दुर्लभ यह देवों को, यह जान लीजिए। स्वामी हैं आप इसके, पहचान लीजिए॥
ऐसा है साधन-धाम यह, जैसा कहीं नहीं। यह संपदा अकूत है, कोई कमी नहीं। इससे न कुछ असंभव, अगर ठान लीजिए॥ स्वामी हैं आप इसके, पहचान लीजिए॥
क्यों भ्रमित हुए हैं कि है भोगों का द्वार यह। है वासनाओं के लिए, प्राणों का ज्वार यह। यह भ्राँति ‘सर्वनाश’ है, यह मान लीजिए। स्वामी हैं आप इसके, पहचान लीजिए॥
स्वामी। क्यों दास बन रहे हो, इंद्रियों के तुम। भोगों में क्षरण कर रहे, क्यों शक्तियों को तुम। मन को दबोच करके, कान तान दीजिए। स्वामी हैं आप इसके, पहचान लीजिए॥
मन के ही हारे हार है, मन के ही जीते जीत। मन ही हमारा शत्रु है, मन ही हमारा मीत। मन वफादार-मित्र है, गर ध्यान दीजिए। स्वामी हैं आप इसके, पहचान लीजिए॥
सुनिएगा। अंतर आत्मा आवाज दे रही। गुरुसत्ता निजानंद का है राज दे रही। कर अंतःऊर्जा जागरण, रसपान कीजिए। स्वामी हैं आप इसके, पहचान लीजिए॥
-मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’
*समाप्त*