पैंसठ वर्ष की एक अनंत यात्रा के प्रारंभिक पड़ाव

August 2002

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अखण्ड ज्योति की अंतर्कथा से कम ही लोग परिचित हैं। ज्यादातर पाठक-परिजन तो इसके प्रभावशाली बाह्य विस्तार के आत्मीय बन्धन में अपने-आपको लपेटा-समेटा हुआ अनुभव करते हैं। उन्हें यह भी अनुभूति होती है कि अखण्ड ज्योति ईश्वरीय प्रकाश का प्रकाशन है। इसमें प्रकाशित होने वाले भाव और विचारों के साथ प्रकाशन व्यवस्था के प्रत्येक पहलू में इस दैवी प्रकाश की प्रदीप्ति है। इसके पवित्र उजाले से लाखों अन्तःकरण प्रतिमास प्रकाशित और प्रभावित होते हैं।

लेकिन यह आन्तरिक सत्य कम ही लोग अनुभव कर पाते हैं कि इस व्यापक प्रभाव का कारण प्रकाशन तंत्र का सर्वसमर्थ परमेश्वर के प्रति अटूट विश्वास और अडिग आस्था है। विश्वास व आस्था की इसी अविचलता ने अखण्ड ज्योति के पृष्ठो, पंक्तियों तथा प्रकाशन व्यवस्था के प्रत्येक क्रिया-कलापों में ईश्वरीय प्रकाश के दैवी अवतरण को सहज सम्भव बनाया है। अखण्ड ज्योति के सभी साधन और साध्य भगवद्-विश्वास के रस में भीगे और डूबे हैं। यही वह वास्तविक पूँजी है, जिसके बल बूते इसका प्रकाशन प्रारम्भ हो सका। वर्तमान में भी यही अलौकिक निधि काम आ रही है।

अपने जन्म से ही प्रचण्ड भगवद्विश्वास की प्राण शक्ति के सहारे अखण्ड ज्योति ने अपनी जीवन यात्रा शुरू की। कठिनाइयाँ और संकट पग-पग पर आए, पर हर बार प्रभुविश्वास ही सहारा बना। अखण्ड ज्योति की इस अंतर्कथा को उजागर करते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने वर्ष 1940 के अप्रैल अंक में लिखा- ‘कदाचित कुछ प्रेमी इस बाहरी रूप को देखकर अखण्ड ज्योति की भीतरी स्थिति भी जानना चाहते होंगे। उन्हें कुछ थोड़ा सा भीतरी परिचय करा देना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि पाठकों को हम अपना परिवार समझते हैं। उन्हें हक है कि अपनी चीज के बाहरी रूप को देखने के साथ भीतरी बातें भी जानें।’

इस अंतर्कथा का पहला सत्य यह है कि ‘अखण्ड ज्योति का संचालक इन पंक्तियों का लेखक, सम्पादक आर्थिक दृष्टि से कोई ऊँचा व्यक्ति नहीं है। अपनी कुछ एक हजार रुपये की छोटी सी पूँजी से उसने इतने बड़े उत्तरदायित्व के जहाज का लंगर खोल दिया है। उसका विश्वास है ‘नरसी भगत’ वाले ‘साँवलिय्य शाह’ इस जहाज को पार लगावेंगे। छह सात महीने में संचालक की वह पूँजी समाप्त हो गयी। और घाटे का मसान गला घोंटने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। अर्थ चिन्ता बड़ी कठिन होती है। आमदनी बढ़ाना या खर्च घटाना यही दो सूरतें हो सकती थीं।

आमदनी बढ़ती न दिखी तो खर्च घटाया। तिरंगा मुख पृष्ठ छोड़ना पड़ा। भीतर का रंगीन तस्वीर बन्द हो गयी, कागज हल्का हुआ। दफ्तर का मकान पन्द्रह रुपये माहवार किराये से घटाकर चार रुपये महीने के छोटे कमरे में लाया गया। चन्द अनिवार्य कार्यकर्त्ताओं को छोड़कर शेष कर्मचारियों के कार्य भी सम्पादक ने अपने ही हाथ में ले लिया। और नित्य सोलह घण्टे स्वयं काम करने की व्यवस्था हुई। इस प्रकार खर्च में बहुत कुछ कमी करके घाटे को हल्का किया गया। फिर भी असुविधा दूर नहीं हो सकती। डेढ़ रुपया वार्षिक मूल्य के अखबार के कागज छपाई, पोस्टेज आदि के बाद इस महंगाई में भला क्या बच सकता है? ऐसी दशा में कार्य की महत्ता को देखते हुए घाटे का होना स्वाभाविक है।’

इस गहरी आर्थिक विपन्नता में परम पूज्य गुरुदेव की प्रकाशन नीति यथावत बनी रही। उन्होंने न तो भारी-भरकम धनराशि देने वाले विज्ञापन दाताओं का सहारा लिया और न ही धन राशि देकर अहसान जताने वाले धनवानों का। विपन्नता की इस संकट भरी दशा में उनका प्रभु विश्वास सम्पूर्ण रूप से समृद्ध रहा। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा- ‘अखण्ड ज्योति के लिए अपने उदार बन्धुओं से याचना करते तो झोली खाली न रहती। परन्तु हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि लोकोपयोगी कार्य, जो जनता जनार्दन की निस्वार्थ सेवा के लिए पवित्र भावनाओं से किए गए हैं, यह है।

और यज्ञ की बाह्य व्यवस्था का भार प्रभु पर है। ‘योग क्षेम वहाम्यहम्’ के संकल्प से वह प्रतिज्ञाबद्ध है कि सत्य धर्म की रक्षा करें। फिर हम किसी से क्या याचना करें? यदि हमारा कार्य अपवित्र है, हमारी भावनाएँ हीन है, तो हमें नष्ट हो जाना चाहिए। और यदि हम धर्म प्रचार के मिशन के लिए जीवित हैं, तो वह घट-घट वासी परमात्मा जिन्हें निमित्त बनाना चाहता होगा, उनके हृदयों में प्रेरणा भरेगा कि इस मुरझाते हुए धर्म तरु को सींचने के लिए अपने भरे हुए जल पात्रों में से एक-एक चुल्लू पानी का इसके लिए भी त्याग करें।

अखण्ड ज्योति परिवार गुण ग्राहकों, सच्ची सेवा का महत्व जानने वाले बुध जनों, उच्च अधिकारारुढ़ों, धनी मानियों, महापुरुषों, साधु महात्माओं, ईश्वर भक्तों और सुहृदयों से भरा पड़ा है। ईश्वर जब उनके हृदयों में प्रेरणा करेगा तो वे अपनी श्रद्धानुसार इस मुरझाते हुए धर्मतरु को सींचने के लिए स्वयं दौड़ेंगे। यह काम हमारा नहीं है कि अपने विशुद्ध तप के कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए साथ-साथ हम झोली भी फैलाये घूमें।’ इन पंक्तियों में परम पूज्य गुरुदेव की भावदशा की झलक है। उनके परम विश्वासी भक्त हृदय की अभिव्यक्ति है। ईश्वर के प्रति निष्ठावान, समर्पित भक्त की टेक है। अपने आराध्य पर श्रद्धासिक्त विश्वास है।

इसी सब को उन्होंने अपनी निधि माना था। इसी वास्तविक पूँजी के सहारे उन्होंने अखण्ड ज्योति का प्रकाशन शुरू किया था। जब-जब झंझावातों के दौर आए। तब-तब वह अपने प्रभु विश्वास की निष्कम्प ज्योति को लिए चलते रहे। उनका विश्वास हर बार विजयी हुआ। परिस्थितियों की चुनौती हर बार हारी। अखण्ड ज्योति सदा ही ईश्वरीय प्रकाश का वितरण करती रही। अपने जीवन का यही सत्य उन्होंने अपने अनुयायी शिष्यों-साधकों को भी सिखाया।

ईश्वर विश्वास को अपना दृढ़ अवलम्ब मानकर अधिक से अधिक श्रम करते रहना- यही अखण्ड ज्योति की प्रकाशन नीति है। परम पूज्य गुरुदेव ने यही सीख दी है कि अखण्ड ज्योति के साध्य से कभी विचलित मत होना। सर्व समर्थ प्रभु स्वयं ही साधनों के अम्बार लगा देंगे। भक्तों के प्रेरक भगवान् स्वयं ही अपने प्रिय भक्तों को इस पवित्र कार्य के लिए माध्यम बनाते रहेंगे। अखण्ड ज्योति की अंतर्कथा यूँ ही अपनी अनन्त यात्रा के भक्ति, विश्वास एवं श्रद्धा से परिपूर्ण विवरणों को अपने आप में संजोती रहेगी।


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