कर्मसंन्यास व कर्मयोग में कौन-सा श्रेष्ठ है

August 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(कर्मसंन्यासयोग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की प्रथम किश्त)

इस अंक से कर्मसंन्यासयोग नाम से श्रीमद् भगवद्गीता का पाँचवाँ अध्याय आरंभ करते हैं। युगगीता का यह भावप्रवाह द्वापर में कही गई गीता एवं प्रज्ञावतार की सत्ता के लीलासंदोह पर आधारित है। नवयुग आगमन की बेला में इस युगगीता की व्याख्या-विवेचना में वह सब कुछ है, जो आज एक साधक के रूप में हम सभी को अभीष्ट है, करने योग्य एक कर्तव्य है, युगधर्म है। श्री गीताजी के प्रथम छह अध्याय कर्मयोग प्रधान हैं। यों स्थान-स्थान पर इसमें भक्तियोग-ज्ञानयोग गुंथा पड़ा है। मोहग्रस्त किंतु जिज्ञासु शिष्यभाव में स्थित अर्जुन के प्रश्नोत्तरों के माध्यम से कुछ ऐसे प्रसंग आए हैं, जो आज की युगपरिवर्तन की संक्रमण वेला में सभी को प्रेरणा देते हैं। चौथा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग पर था, जिसकी व्याख्या में ‘युगगीता’ पुस्तक का दूसरा खंड एवं उसके सोलह लेख समा गए। प्रस्तुत अध्याय ‘कर्मसंन्यासयोग‘ प्रकरण पर है। अर्जुन ने ज्ञान का महत्व जान लिया, किंतु अभी भी कर्मयोग के संबंध में उसके मन में कुछ संदेह है। वह बोलता तो प्रारंभ में ही है, पर श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्कान के साथ उसकी मानसिकता का अध्ययन कर रहे हैं एवं उसका प्रश्न समाप्त होते ही कर्मों से संन्यास व कर्मयोग तथा संन्यासयोग अर्थात् साँख्ययोग की महत्ता समझाने लगते है। ज्ञान में कर्मों का संन्यास (ज्ञानकर्मसंन्यासयोग) चौथे अध्याय का प्रकरण था, जहाँ ‘उठो भारत, अज्ञान से जन्में संशयों से मुक्त होकर विवेक-ज्ञान को जीवन में उतारकर समत्वरूपी योग में स्थित हो जाओ’, इस संदेश के साथ योगेश्वर सद्गुरु द्वारा समापन किया गया था।

लोकसेवियों की मार्गदर्शिका

अब एक प्रकार से पुनः इसी विषय को गहरी जाँच-पड़ताल के साथ, पी.एच-डी. स्तर के गहन अध्ययन की तैयारी के साथ श्रीकृष्ण प्रस्तुत करना चाह रहे हैं। यह विषय हर कार्यकर्ता के लिए, स्वयंसेवक के लिए, एक आदर्श राष्ट्रनिष्ठ लोकसेवी के लिए समझना बहुत जरूरी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान को सर्वोपरि मानकर उसी के आधार पर अपने व्यक्तिगत अहं की बलि दी जानी चाहिए। अहंकार का समर्पण हो एवं व्यक्ति निष्काम कर्म की ओर बढ़े, चाहे कितनी ही मुश्किल क्यों न आएँ। अब इस ‘अहं’ से मुक्ति कैसे पाई जाए? यह अहंकार है क्या? इस मद को पहचाना कैसे जाए? किसी तरह हम इसके स्वरूप को जान लें एवं शुद्ध अहं के गरिमामय रूप को जानकर उसमें प्रतिष्ठित होने की सोचें, तो कितना बड़ा परिवर्तन आ सकता है? यह सब कार्यकर्त्ताओं की आचार-संहिता का प्रकरण इस अध्याय में आया है, जो उसे साधना की धुरी पर जीवनकला को निखारने की बात भी समझाता है। संन्यास वेशधारी तो लाखों की संख्या में समाज में हैं, पर क्या वे अपना ‘अहं’ छोड़ पाए हैं? वास्तविक संन्यास क्या होता है व कर्मयोग व संन्यास का परस्पर समन्वय कैसे स्थापित किया जाए, इसकी विशिष्ट व्याख्या इस अध्याय में श्रीकृष्ण करते है। अहंकार के नाश की विधि इसमें वर्णित की गई है, इसीलिए इस अध्याय का नाम ‘कर्मसंन्यासयोग‘ है।

इन अध्याय के 29 श्लोकों में सारे कर्म-सिद्धाँत को योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बड़े सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है। इस अध्याय में स्थान-स्थान पर कर्मसंन्यास की व्याख्या एवं कर्मयोग की महत्ता बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण अहंकार से रहित सिद्धपुरुषों के लक्षण भी अर्जुन को बताते हैं। अहंकाररहित होना एक बड़ी सिद्धि है एवं इतना भर हो जाने पर मनुष्य किस तरह सामान्य से असामान्य हो जाता है, यह पढ़ने पर पाठक के मन में भी ललक पैदा होने लगती है। स्थान-स्थान पर आसक्ति को छोड़कर कर्म करने की महत्ता इस अध्याय में प्रतिपादित की गई है, पर अर्जुन इतने मात्र से संभवतः इतना प्रभावित नहीं है। उसकी आशंकाएँ अभी भी यथावत् है, क्योंकि वह व्यावहारिकता के धरातल पर मार्गदर्शन चाहता है। विगत दो अध्यायों के चरम सोपान पर पहुँचा देता है यह पाँचवाँ अध्याय, जहाँ अंतिम श्लोकों में ध्यान की विधि भी योगेश्वर द्वारा बता दी जाती है। जीवन कैसे जिया जाए, कर्मों को दिव्य कैसे बनाया जाए, औरों से अधिक बेहतर जीवन किस तरह जिया जाए, विचारों व भावनाओं का सुव्यवस्थित विकास कैसे संभव हो, यह श्री गीताजी के काव्य की विशेषता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि जीवन को एक खेल की तरह मानकर ठीक तरह जी लिया जाए, तो हमारा जीवन सुसंस्कृत एवं चरित्रनिष्ठा से भरा-पूरा होता चला जाता है। जीवन पूर्णतः रूपांतरित होने लगता है। सदाचारमय जीवन जीते-जीते मनुष्य क्रमशः उन्नति की ओर बढ़ने लगता है-आध्यात्मिक भी एवं भौतिक भी। उसके अंदर का दानव मिटता चला जाता है एवं देवत्व जागने लगता है। छठे अध्याय में आत्मसंयम के योग को समझाने से पूर्व श्रीकृष्ण अर्जुन में जिज्ञासा जगाकर इस पाँचवें महत्वपूर्ण अध्याय में कर्मयोग की पराकाष्ठा तक उसे पहुँचा देते हैं। यही है पाँचवें अध्याय में प्रवेश की भूमिका।

कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है?

पाँचवाँ अध्याय अर्जुन की एक जिज्ञासा से प्रारंभ होता है। वह अभी-अभी सुन चुका है, ‘योगमातिष्ठोतिष्ठ भारत’ हे भारत, उठो एवं योग का आश्रय लो। अपनी अहंकेंद्रित कामनाओं को त्यागो। वस्तुतः यही सच्चे अर्थों में संन्यास है।

तत्काल की वह अपनी जिज्ञासा श्रीकृष्ण के सम्मुख रख देता है-

अर्जुन उवाच-

सन्नयासं कर्मणाँ कृष्ण पुनर्योगं च शंससि। यच्छे्रय एतयोरेकं तन्में ब्रूहि सुनिश्चितम्॥5/1

अर्जुन बोले. “हे कृष्ण. आप कर्मों का त्याग करने (कर्मणाँ सन्नयासं) और फिर उन्हें करते रहने (कर्मयोग) पर जोर देते हैं, इनकी प्रशंसा करते हैं। इन दोनों मार्गों में से कौन-सा एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित, कल्याणकारक व श्रेष्ठ हो, यह आप मुझे बताइए।”

यहाँ अर्जुन पूर्णतः भ्रमित है। उसे दोनों मार्ग परस्पर विरोधी दिखाई दे रहे हैं। पहले मार्ग के अनुसार तो यह स्पष्ट होता है कि तमाम कर्मों का त्याग कर दिया जाना चाहिए (संन्यास) और दूसरा मार्ग हमें सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से जीवन में रुचि लेने-कर्मयोग में निरत होने की बात कहता है। अर्जुन की बुद्धि में यहाँ वह गंभीर भाव नहीं आ पा रहा है, जो दोनों मार्गों की तत्व से उसे जानकारी करा सके।

भगवान श्री जो यहाँ कहना चाह रहे हैं, उसके अनुसार कर्मों से अहंकार का त्याग ही ‘कर्मणाँ सन्न्यासं’ है, कर्मों का त्याग है तथा कर्मफल उपभोग के प्रति हमारी चाह के त्याग का कर्मयोग कहा गया है। कितना बारीकी से रखा गया दशन है, पर वह समझ में तब ही आ सकता है, जब हम उसका मर्म समझ सकें। जैसे ही वह समझ में आ जाता है, हम समष्टि में संव्याप्त इस परमात्मसत्ता को भी जान लेते हैं। बाधक मात्र अहंकार है, उसके उद्वेग हैं। कर्ता का भाव व भोक्ता का भाव यदि निकल जाए, तो हम अपने दिव्य स्वरूप को जान सकते हैं, मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की स्थिति में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। फिर हम उन ग्रंथियों में उलझने से बच सकते हैं, जो हमें देवता के राजमार्ग से हटाकर इंद्रियपुष्टि की ओर, अहं की पूर्ति की ओर, स्वार्थ की पूर्ति की ओर ले जाती है।

कर्त्ताभाव का त्याग ही कर्म-संन्यास

उत्तर जो मिलने जा रहा है, उसकी भूमिका समझ लें, तो हमें अर्जुन का प्रश्न अच्छी तरह समझ में आ जाएगा। कर्त्ताभाव के त्याग की विधि कर्मों का संन्यास है और भोक्ताभाव से ऊपर उठने की विधि कर्मयोग है। अहंकार का त्याग करके लोकसेवा में लगना ‘संन्यास’ है एवं कर्मफल की लालसा पर नियंत्रण रख लोकसेवा में लगना ‘कर्मयोग‘ है। शास्त्रों में वर्णित इन दो शब्दों को समझ लेने के बाद इस अध्याय का एवं कर्मयोग का मर्म समझ में आ जाता है, परंतु अर्जुन चाहता है कि उसके गुरु श्रीकृष्ण उसका एक ही निश्चित मार्ग, पूर्ण संन्यास अथवा पूर्ण कर्मयोग (संन्यास एवं योग) के विषय में मार्गदर्शन करें।

गलती उसकी भी नहीं है। अर्जुन ने पहले ज्ञानयोग की महिमा सुनी, सुना कि ज्ञान से अधिक पवित्र धरती पर कुछ भी नहीं वे उसे उसके लिए श्रद्धावान बनना होगा, फिर चौथे अध्याय में उसने सुना कि कर्मयोगी बनना चाहिए, दिव्यकर्मी होना चाहिए। अर्जुन किसी बीच के मार्ग, किसी शॉर्टकट की, बायपास मार्ग की तलाश में है। युद्ध में लगने का उसका मन है नहीं, कर्मयोगी वह अभी बनना नहीं चाहता, क्योंकि उसमें बार-बार युद्ध करने की बात कही जा रही है। हाँ, यदि किसी तरह संन्यास मिल जाए, तो जान बच सकती है। संन्यास ले लेंगे, तो कर्म से बच जाएँगे। एक पावन आश्रम परंपरा की दुर्गति अनादिकाल से होती चली आई है। संन्यास अर्थात् कर्मों से पलायन। भगवान उसे दुविधा से निकालते हैं एवं उससे कहते हैं-

श्री भगवानुवाच-

सन्नयासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसन्नायासार्त्कमयोगो विशिष्यते॥5/2

श्री भगवान बोले, “कर्मसंन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (कर्मों का संपादन) दोनों ही हमें मोक्ष की ओर ले जाते हैं, किंतु इन दोनों में से कर्मों के त्याग की अपेक्षा कर्मयोग साधना में सुगम होने से अधिक श्रेष्ठ है।”

मार्ग दोनों ही श्रेष्ठ, परंतु....

दोनों ही परमकल्याणकारी हैं, दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, परंतु इनमें से भी कर्मयोग जिसमें कर्मों का संपादन करते-करते सफलता की ओर बढ़ा जाता है, सर्वाधिक श्रेष्ठ है, यह श्री भगवान का स्पष्ट मत है। यह एक प्रारंभिक साधक के लिए, युद्धभूमि में खड़े योद्धा के लिए, मोहग्रस्त अर्जुन के लिए दिया जा रहा है कि कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मों का संपादन करते-करते जीना ही सर्वश्रेष्ठ है (तयो अस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगी विशिष्यते)। बिना रजोगुण पार किए जो सतोगुण सीधे पाना चाहता हो, उसे यह जान लेना चाहिए कि राजमार्ग मात्र एक ही है। हर कोई तमोगुणी की (मोह की, अहंता की) स्थिति में पलायनवादी बनकर हिमालय जाने की बात कहता है, क्योंकि वह मार्ग सीधा-सच्चा दिखाई देता है, पर यह तो छलावा है। ऐसे व्यक्ति वापस तमस की ओर लौटते हैं एवं यदि जीवन में सच्चा मार्गदर्शन नहीं मिला तो जन्म-जन्माँतरों तक भटकते रहते हैं।

भगवान एक ही बात कहते हैं, “तुम्हारे लिए कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। यही युगधर्म है और इसी में तुम्हें ही नहीं, किसी भी काल के मानव को सर्वप्रथम अपने आपको नियोजित करना चाहिए।” यह पूरा अध्याय युगधर्म की ही बात करता है व हमें बताता है कि हमारे कर्मों को किस दिशा में नियोजित किया जाना चाहिए। आज के युग में चारों ओर आपाधापी मची हुई है। मनुष्य दूषित हो रहा है, उसके कर्म दूषित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में ऐसे युगधर्म की अपेक्षा है, जो हमें बता सके कि हमारे कर्म प्रदर्शन के योग्य बन सकते हैं, हम औरों को अपने कर्मों से शिक्षण दे सकते हैं। आज की परिस्थिति में गेरुए कपड़े पहनकर वैराग्य को जीना संभव नहीं है। कभी संन्यास धर्म प्रतिष्ठित रहा होगा, पर आज तो युगधर्म का परिपालन करने वाले वानप्रस्थ, परिव्राजक वर्ग के कर्मयोगियों की सर्वाधिक आवश्यकता है।

युगधर्म की व्याख्या परमपूज्य गुरुदेव के एक लेख के माध्यम से समझाना चाहेंगे। यह लेख ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका अप्रैल 1983 के लिए लिखा गया था, शीर्षक था, ‘जागृतात्माएं युगधर्म का निर्वाह करें’ (पृष्ठ 51)। पूज्यवर लिखते हैं, “आपत्तिकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए समर्थ भावनाशीलों को आगे आना पड़ता है। अग्निकाँड, भूकंप, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष जैसे संकट आ खड़े होने पर उदारचेता अपने काम-धंधे में हर्ज करके भी दौड़ते और संत्रस्त जनसमुदाय की सहायता करने में कुछ उठा नहीं रखते। स्थानीय चिकित्सकों की जिम्मेदारी और भी अधिक है। इस अवसर पर उनकी योग्यता विशेष रूप से आवश्यक होती है। यदि वे मरहम-पट्टी करने के लिए आने से इंकार या आनाकानी करें, तो यह तत्काल के संकट से परे रहना अंततः हानिकारक ही सिद्ध होगा। इस निष्ठुरता के लिए उन्हें आत्मप्रताड़ना और लोकभर्त्सना दोनों ही सहनी पड़ेंगी।”

युगधर्म की अति महत्वपूर्ण व्याख्या करने के बाद पूज्यवर आगे लिखते हैं, “प्रज्ञा परिजनों की स्थिति सुयोग्य चिकित्सकों जैसी है और समय की विपन्नता भयानक दुर्घटना जैसी। इन दिनों आस्था संकट के सर्वनाशी घटाटोप पूरी प्रौढ़ता पर है। साधनसंपन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य को दिनोदिन अधिकाधिक कष्टदायक स्थितियों में फँसना पड़ रहा है। आज की परिस्थितियों को यदि कोई परदा उघाड़कर देखे, तो प्रतीत होगा कि दृश्यमान चमक-दमक के पीछे कितनी अधिक पीड़ा, खीज, निराशा संव्याप्त है। व्यक्ति की तरह ही समाज की चूलें भी चरमरा रही हैं। लोग ऐसे माहौल में जी रहे हैं, जिसमें आतंक, अनाचार और प्रपंच-पाखंड के अतिरिक्त और कुछ बचा नहीं रहा। कहना न होगा कि समय को जिस स्तर की उद्धार क्षमता चाहिए, उसकी उपयुक्त मात्रा प्रज्ञा परिजनों के अतिरिक्त कदाचित् ही अन्यत्र कहीं दिखाई पड़े।”

कर्मयोगी बनें, युगधर्म निबाहें

यह पूरा लेख पढ़ने योग्य है, पर इसका जो अंश यहाँ उद्धत है, वह हम सबके लिए है, हर देवमानव के लिए है, जिसके भी मन में समाज के प्रति थोड़ी भी पीड़ा है, उसके लिए है। यह लेख 1983 में लिखा गया था, पर आज बीस वर्ष बाद भी यह उतना ही सामयिक है। जो भी कुछ विवरण ऊपर दिया गया है, वह आज के समाज की जन्मकुँडली है, पूरा वास्तविक लेखा-जोखा है। ऐसे में हमसे एक सुयोग्य चिकित्सक की भूमिका निभाने को कहा जा रहा है। हम अर्थात् ‘अखण्ड ज्योति’ के पाठक, संवेदना की धुरी से मिशन के उद्देश्यों से जुड़े परिजन, लोकसेवी, कर्मयोग में निरत हर कोई सामान्यजन। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि हमें कर्मसंन्यास व कर्मयोग दोनों में से चुनना पड़े, तो युगधर्म की छवि से चिकित्सक वाला, लोकशिक्षण वाला कर्मयोग का मार्ग चुनना चाहिए। कभी-कभी संन्यासी बनने की हुड़क मन में उठती है। लगता है कि संन्यास ले लिया होता, तो ज्यादा श्रेष्ठ कहलाते। आनंद का जीवन होता। आज जो संन्यासी समुदाय है, उसकी तरह भोग का जीवन जीते। सन् 1980-81 की बात है। परमपूज्य गुरुदेव के आदेश से हमें एक आश्रम में जाने का मौका मिला, इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम की मशीन लेकर। एक आश्रम में एक स्वामी जी को हार्ट अटैक हुआ था। जिस कक्ष में से होकर हम गुजरे, वहाँ कई संन्यासी भोजन कर रहे थे। अत्यधिक गरिष्ठ, मेवाप्रधान भोजन। आज की दृष्टि से हाई कोलेस्ट्रॉल फूड। अंदर ईसीजी लिया। तुरंत तात्कालिक उपचार किया, दिल का दौरा पड़ा था। रक्त की चरबी की ठीक से चेकअप कराने हेतु सैंपल भेजा। उसी कक्ष से लौटना हुआ। लगा कि यदि सभी स्वामी जी जो बड़े-बड़े मठों में रहते हैं, यह भोजन करते होंगे, तो हार्ट अटैक नहीं होगा तो क्या होगा? यह नहीं कर रहे कि सारे संन्यासी ऐसे होते हैं, पर आज जो स्थिति हो गई है, संन्यास आश्रम की, धर्म की जो दुर्गति हो गई है, उसमें कर्मयोग से परे हटकर पलायनवादी बनकर जीने वाले अधिक हैं वह इनकी संख्या प्रति कुँभ में बढ़ती चली जाती है। बाहर तो भगवा है, किंतु अंतरंग में क्या है, यह किसी को दिखाई नहीं देता। नंगे पाँव चलते हैं, कुछ तप-तितिक्षा के व्रत साध लिए हैं, मौन रहते हैं, पर जीवन वैसा-का-वैसा ही है, क्योंकि तमस् से ऊपर नहीं उठ पाए। यदि अंदर-बाहर दोनों और कर्मणाँ न्यासं, कर्मसंन्यास सही अर्थों में स्थापित हो जाए, तो वह स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद की तरह, आद्य शंकराचार्य की तरह लाखों के दिशादर्शक बन जाते हैं।

युगधर्म की बात से उपर्युक्त प्रसंग उभरे। युगधर्म का परिपालन ही कर्मयोग को जीवन में उतारना है। पीले कपड़े, जो त्याग, तप, बलिदान व उल्लास के प्रतीक है, पहने गायत्री परिवार के कार्यकर्ता स्थान-स्थान पर सातों आँदोलनों में निरत दिखाई देते हैं। गुरुवर चाहते तो वे भी सभी को गेरुए कपड़े पहना देते, पर उनने कहा, “आपको हम पीले कपड़े पहना रहे हैं। आपको लोग गाली देंगे, अपमानित करेंगे, क्योंकि धर्मतंत्र बुरी तरह पददलित हुआ है, अपमानित हुआ है। आपको जीवनविद्या की पुनर्स्थापना करनी है, इसलिए आपको पीले कपड़े पहनाए हैं, ताकि आप धर्मतंत्र को पुनर्जीवित कर सकें।” कर्मयोगी बनकर ही अर्जुन की तरह हम भी मोह, बहं के भवबंधन पार कर सकते हैं। यह व आगे के तीसरे श्लोक की व्याख्या अगले अंक में। (क्रमशः)


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles