सच्चिदानंद रूप है हमारी जीवात्मा

August 2002

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परमात्मा को सच्चिदानंद स्वरूप कहा गया है। विराट् का ही एक अंश होने से जीवात्मा भी उन्हीं गुणों से सुशोभित है। सत्, चित् और आनंद-ये तीनों मिलकर कारणशरीर का ढाँचा बनाते हैं। सत् अर्थात् शाश्वत, अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप। चित् अर्थात् चेतना, दिव्य गुणों से सुसज्जित, उच्चस्तरीय आदर्शों, आस्थाओं से युक्त। आनंद अर्थात् भाव संवेदनाओं, सरसता, मृदुलता से सिक्त अंतःकरण आशा, उत्साह, संतोष के परस्पर समन्वय पर आधारित जीवनक्रम। आत्मा का सहज स्वभाव है- ऊँचा उठना, अपने विराट् स्वरूप की स्वयं को प्रतिमूर्ति बनाने के लिए इन्हीं गुणों से स्वयं को समृद्ध करना तथा अंततः समस्त आवरणों को हटाते हुए अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करना। परिष्कृत जीवात्मा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आध्यात्मिक पुरुषार्थ करती है एवं जीव ब्रह्म सम्मिलन से निस्सृत परमानंद की स्थिति को प्राप्त करती है।

इस आत्मगरिमा से अपरिचित मनुष्य भौतिकता में भटकता है। यह विस्मृति अनेकानेक समस्याओं को जन्म देती है। यह विस्मृति अनेकानेक समस्याओं को जन्म देती है। इन्हें ही माया का आवरण, मनुष्य का विभ्रम कहा जा सकता है। ये ही रोग-शोकों के रूप में अंततः बाहर प्रकट होते हैं। सच्चिदानंद का पहला चरण है-सत्। सत् मनुष्य को जीवन के क्षणभंगुर होने का बोध कराता है। हम शाश्वत है, चिरंतन है, अविनाशी है, पंचतत्वों से बनी काया के बिखर जाने पर भी हमारी सत्ता बनी ही रहेगी, यह बोध बना रहे, तो भटकाव से बचा जा सकता है, पर हमारी इंद्रियों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि वह बहिर्जगत् को देखती और जड़ पदार्थों के प्रति सहज ही आकर्षित हो जाती है। सत् की अनुभूति व्यक्ति को यह विचार करने पर विवश करती है कि शरीर मरणधर्मा है, परंतु आत्मा कभी नष्ट नहीं होती है। वह तो एक सतत प्रवाह है। आत्मा का साक्षात्कार ही मनुष्य की सारी सफलताओं का प्राण है। यह तभी संभव है, जब मानव अपने वर्तमान जीवन को श्रेष्ठ, उदार तथा उदात्त भावनाओं से युक्त करने का प्रयास करता है।

सत् से आस्था रखने वाला व्यक्ति सृष्टि को चलाने वाली बुद्धिमान, उद्देश्यपूर्ण व्यवस्था में दृढ़ विश्वास रखता है। वह जानता है कि विधि-विधानों, नियमों के अनुरूप चलने वाली इस सृष्टि की व्यवस्था में किसी तरह की लापरवाही, अनुशासनहीनता, अनियंत्रण, अदूरदर्शिता का स्थान नहीं है। कर्मफल से पूर्णतः अवगत यह व्यक्ति अपनी समस्त गतिविधियों का निर्धारण सुघड़तापूर्वक करता है। वह जानता है कि आत्मा कभी नहीं बदलती है, बदलता तो यह चोला है।

कुछ भी खोता नहीं यहाँ पर केवल जिल्द बदलती पोथी। जैसे रात उतार चाँदनी पहने सुबह धूप की धोती।

यह पंक्तियाँ उसी अनाशवान आत्मा के लिए किसी कवि ने कही है। यदि व्यक्ति को इसका वास्तविक बोध हो जाए, तो तत्क्षण उसमें वैराग्य उदय हो जाएगा, फिर संपूर्ण संसार उसे स्वप्नवत् प्रतीत होगा। स्वप्न का अपना कोई अस्तित्व नहीं, वह तो अपने ही चिंतन का परिणाम है। वैसे ही यह काया आत्मा की छाया है, उसका ही प्रतिबिंब है। ईश्वर ने इसकी सृष्टि अपना ज्ञान कराने, अपना अस्तित्व दर्शाने हेतु किया है, इसलिए मूल, ईश्वर की अंशधर आत्मा ही हुई। देह तो माया-मिथ्या के समान है, इसकी प्रतीति होते ही व्यक्ति को वैभव-विलास, यश-कीर्ति की निरर्थकता स्पष्ट भासने लगती है। वह सोचता है, जो चिरस्थायी नहीं, उसके प्रति मोह कैसा। उसके लिए अनावश्यक संग्रह और परिग्रह का कोई औचित्य नहीं। ऐसा चिंतन प्रखर होने पर स्वयं को ऊँचा उठा हुआ पाता है। आत्मिक प्रगति के विभिन्न सोपानों को पार करता हुआ अपने लक्ष्य तक जा पहुँचाता है।

आत्मा की दूसरी विशेषता है-चित्। उच्चस्तरीय आस्थाओं, मान्यताओं एवं आदर्शों से युक्त व्यक्ति चित् परायण कहलाता है। चित् अर्थात् स्वयं के विषय में उत्कृष्टतापूर्ण मान्यता, अपने लक्ष्य के प्रति चेतनता-सजगता। यह वे निष्ठाएँ हैं, जो मनुष्य की जीवनयात्रा की रूपरेखा बनाती हैं। देवत्व में आस्था, आदर्शवादी उत्कृष्टता में अटूट विश्वास, परम सत्ता के प्रति समर्पण भाव चित् के परिष्कृत स्वरूप हैं। चित् शिवम् अर्थात् कल्याणकारी भाव है।

चित् एक गुण है, जो परिष्कृत स्वरूप में व्यक्ति को महामानव बना देता है, पर जब यही विकृति की ओर अग्रसर हो जाता है, तो अनेकानेक समस्याओं, मानसिक असंतुलनों एवं शारीरिक संतापों को जन्म देता है। आदर्शवादिता से निष्ठा हटते ही पतन तेजी से होता है। दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण स्वयं के विषय में मान्यताएँ गरिमायुक्त नहीं रहती। श्रेष्ठ चिंतन का अभाव एवं उत्कृष्टता के प्रति अनास्था अंततः उद्दण्डता को जन्म देते हैं। विकृत चिंतन से सद्विचारों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सिद्धाँतों के प्रति, अपनी दिव्यता के प्रति अनास्था मनुष्य को एकाकी, स्वार्थी एवं अहंकारी बनाती है।

आवेश तथा जल्दबाजी के कारण व्यक्ति को जो भौतिक दृष्टि से हानि होती है, वह अविज्ञात नहीं है, परंतु वह व्यक्ति दृष्टि से हानि होती है, वह अविज्ञात नहीं है, परंतु वह व्यक्ति स्वयं इस तथ्य से अनजान बना रहता है कि वह उद्धत आचरण पलटकर उस पर ही हमला करेगा। मानसिक तनाव और उससे होने वाली समस्त मनोशारीरिक व्याधियाँ ऐसे व्यक्तियों को होती हैं, जो स्वयं उच्छृंखल हैं, फिर उसके अंग-अवयव, ऊतक भी क्योंकर किसी का कहा मानेंगे। आवेश-क्रोध से होने वाला स्राव समस्त शरीर-संस्थानों के परस्पर संतुलन को गड़बड़ा देता है। इसके विपरीत स्वयं की गरिमा एवं महत्ता में, चित् की विशिष्टता में, आदर्शों के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति आत्मिक दृष्टि से तो संपन्न होता ही है, मानसिक संतुलन और समरसता तथा शरीरगत सुव्यवस्था भी उसकी एक बहुमूल्य अर्जित संपत्ति है।

सच्चिदानंद आत्मा का तीसरा और अंतिम पक्ष है-आनंद। इसके बिना आत्मा की पूर्ण व्याख्या संभव नहीं है। जीवात्मा का लक्ष्य ही आनंद है। इसे परिष्कृत भाषा में कहा गया है, रसो वै सः। वह परमात्मा रस से, आनंद से परिपूर्ण है। इस रस को प्राप्त करने के लिए विभिन्न मार्गों से साधक पुरुषार्थ करता है एवं संतोष का आनंद लेता है। इस रस का अंतरंग पक्ष है, भाव संवेदनाओं से लबालब अंतःकरण। करुणा, दया, सेवा-भावना, भक्तिभाव रस के परिष्कृत स्वरूप हैं। जब इनका विकास सहज-स्वाभाविक रूप से होता है,तो ये व्यक्ति को भावनात्मक दृष्टि से ऊँचा उठाते हैं। ऐसे महामानव विश्व मानवता की सेवार्थ अपने जीवन की आहुति दे देते हैं। इंद्रियों से प्राप्त होने वाला आनंद क्षणिक है, ऐसी मान्यता रखने वाले ये महापुरुष अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग उच्च उद्देश्यों की ओर नियोजित करने में करते हैं।

चेतना पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर के जो आवरण पड़े हैं, उनके कारण जीव इस उद्गम स्त्रोत तक नहीं पहुँच पाता। प्यास निरंतर बनी रहती है। कस्तूरी अपनी नाभि में लिए हिरण जिस प्रकार सुगंध की खोज में चारों ओर मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार जीव आनंद की खोज में विविध योजनाएँ बनाता, कल्पना करता एवं अथक प्रयत्न करता है। यह पुरुषार्थ असफल समाधानकारक ही होता है। अंतःकरण की गहन परतों में छिपे आनंद के स्त्रोत की खोज बाह्य जगत् में चलने के कारण भटकाव, थकान, अशाँति, निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलता।

आनंद की मिठास और भी गहन है। इसकी विकृति वासना, तृष्णा, अहंता के रूप में बाहर परिलक्षित होती है। आनंद की प्रतिच्छाया होने के कारण वासना आकर्षक और लुभावनी लगती है। विषयों के सेवन में मन लगने लगता है, तो व्यक्ति विलासी, प्रमादी, आलसी होता चला जाता है। जिह्वा का असंयम, कामेंद्रियों का उपभोग, संग्रह का लोभ अगणित मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों को जन्म देता है।

विषयों के सेवन में जब इतनी तृप्ति और तुष्टि मनुष्य को मिलती है, तो उसके मूल स्त्रोत में कितनी मिठास होगी, इसकी कल्पना मात्र से ही हृदय पुलकित हो उठता है। भगवान रसमय है, इस रस को आत्मसत्ता के रूप में ईश्वर ने मनुष्य को धरोहर बनाकर दिया है। यह रस भौतिक नहीं आत्मिक है। इसे अंतःकरण के उल्लास, संतोष, शाँति जैसी दिव्य संवेदनाओं के रूप में अनुभव किया जाता है। भक्तिरस की धाराएँ ऐसे ही अंतःकरण में बहती हैं। ये ही कभी मीरा, कभी चैतन्य, कभी रामकृष्ण, कभी योगी रामप्रसाद एवं कभी जगद्बंधु जैसी विभूतियों के रूप में प्रकट होती है। परम सत्ता परब्रह्म से मिलन-संयोग की स्थिति ऐसी ही जाग्रति पर आती है।


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