राखी के कच्चे धागे ने बदला इतिहास

August 2002

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पेड़ों की चोटियाँ, आस-पास का हरा-भरा वन प्रदेश, वेगवती सिन्धु में किल्लोल करती हुई लहरें, हवा की शीतल बयार से मिलकर सारे वातावरण में एक नए ढंग की अचरज भरी चित्रकारी कर रही थीं। अचरज के रंगों के कुछ छींटे उन शिविरों के अन्दर भी पड़ रहे थे, जो यहाँ लगे थे। शिविरों की ये चहुँमुखी कतारें अपने आपको महान् कहलाने वाले सिकन्दर की थी। दाँव-घात और कुछ राष्ट्रद्रोहियों की मिलीभगत से अभी हाल में ही उसने भारत के थोड़े से सीमावर्ती इलाके जीते थे। अब तक की सभी सफलताओं में सबसे बड़ी सफलता पर्वतेश्वर पोरस की पराजय थी।

लेकिन अपनी इस सफलता पर वह स्वयं को हारा हुआ महसूस कर रहा था। पराजित हुए महाराज पोरस उसके सिंहासन की बगल में रखे हुए एक विशिष्ट आसन पर बैठे हुए थे। विजेता सिकन्दर के शिविर में सेल्यूकस एवं फिलिप आदि विशिष्ट सेनानायक भी थे। इनके चेहरों पर अभी तक युद्ध के आतंक की छाप थी पास ही में दूसरी ओर सिकन्दर की पत्नी सेलीना और सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया भी बैठी हुई थी। विजेता पक्ष के इन सभी जनों के चेहरों पर शर्मिन्दगी की गाढ़ी लकीरें थी। जबकि पराजित महाराज पोरस इन सबकी अपेक्षा कहीं अधिक महान्, कहीं अधिक प्रदीप लग रहे थे।

सिकन्दर को अभी भी वे पल याद थे। जब भीषणतम युद्ध में महाराज पोरस हाथी पर थे और वह स्वयं अपने घोड़े पर था। एक क्षण ऐसा भी आया जब पोरस ने सिकन्दर के घोड़े को मार गिराया। सिकन्दर नीचे धरती पर गिर पड़ा था और पोरस उसे अपने भाले से मारने ही वाला था....। लेकिन ठीक उसी समय उसकी नजर अपनी कलाई के धागे पर पड़ी। एक क्षण.... और अपनी झूठी महानता का स्वाँग भरने वाला सिकन्दर समाप्त हो गया होता। लेकिन महावीर पोरस ने अपना भाला पीछे खींच लिया। युद्ध में ऐसे कई अन्य अवसर और भी आए, जब पर्वतेश्वर उसकी जीवन लीला समाप्त कर सकते थे। परन्तु ऐसा उन्होंने किया नहीं।

युद्ध का निर्णय होने के बावजूद भी सिकन्दर को उन क्षणों का स्मरण करके सिहरन आ गयी। अपने पूरे शरीर में हल्की सी झुरझुरी अनुभव करते हुए उसने पूछा आपको युद्ध के मैदान में क्या हुआ था महाराज? आप मुझे मार देते तो आज आप विजेता होते। सिकन्दर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पोरस ने कहा- ‘इस प्रश्न का उत्तर आपकी पत्नी सेलीना बेहतर दे सकती है।’ अपने कथन को बीच में ही छोड़कर वह हल्के से हंस दिए।

सेलीना और सिकन्दर के मन के कैनवास पर कुछ अचरज भरे रंग उभरने लगे। उन्हें याद हो आया कि जब उसने भारत पर आक्रमण किया था। उसके डेरे सिन्धु के तट पर पड़े हुए थे। वर्षा ऋतु जल-थल को एक किए थी। सिन्धु सचमुच ही महासिन्धु बनी हुई थी। उछलती लहरें, उफनता फेन इसे समुद्र का विस्तार दे रही थी। सिकन्दर और उसकी फौजें प्रतीक्षा में थी कि सिन्धु का वेग कुछ थमे, तो वे नदी पार हो सकें।

उन्हीं क्षणों में भारतीय रीति-रिवाजों का थोड़ा-बहुत ज्ञान रखने वाले सिकन्दर को एक कूटनीति सूझी। महावीर पोरस के रणकौशल, उनकी व्यूह रचना, युद्धनीति से यवन सेना आतंकित थी। यवन सैनिकों में लड़ने का कोई उत्साह न था। वे तो सभी सिकन्दर की जोर-जबरदस्ती के कारण मजबूर थे। ऐसे में सिकन्दर ने पोरस की वीरता को अपनी कूटनीति के व्यूह में घेरना चाहा।

इसी कूटनीतिक अभियान के तहत एक नाव सिकन्दर के डेरे से नदी के उस पार भेजी गयी। सिकन्दर की पत्नी सेलीना उस पर सवार थी। श्रावण का महीना था। इन यूनानियों को यह मालूम था कि भारत में श्रावण के महीने में स्त्रियाँ अपने भाइयों के कलाई में राखी बाँधती हैं- इसे रक्षाबन्धन कहते हैं। भाई वायदा करता है कि वह अपनी बहन की रक्षा करेगा, चाहे इसके लिए उसे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। सिकन्दर की पत्नी सेलीना का पोरस के दरबार में स्वागत किया गया। उसे राजमहल में ले जाया गया।

पोरस ने पूछा- ‘आप क्यों आई? आपने मुझे बुला लिया होता, मुझे खबर भेजी होती तो मैं स्वयं आपके शिविर में आ गया होता। इस समय सिन्धु को पार करना बहुत जोखिम से भरा था।’ सेलीना बोली- ‘मुझे तो आना ही था... क्योंकि श्रावण का महीना है। मेरा कोई भाई नहीं है और मैं आपको अपना भाई बनाना चाहती हूँ।’

पोरस ने कहा था- ‘यह तो अच्छा संयोग है। मेरी भी कोई बहन नहीं है। मैं आपको अपनी बहन बनाकर बहुत प्रसन्न होऊँगा।’ सेलीना ने पोरस की कलाई पर राखी का धागा बाँध दिया। पोरस ने वचन दिया कि चाहे उसे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े- वह उसकी रक्षा करेगा।

सेलीना बोली, भैया मैं आपकी बात पर भरोसा करती हूँ। मुझे मालूम है कि भारत देश के वीर अपने वचन के पक्के होते हैं। लेकिन मैं आपसे अपनी नहीं अपने सुहाग की रक्षा का वचन चाहती हूँ। आप बस इतना स्मरण रखें, कि शीघ्र ही आपका मेरे पति के साथ युद्ध होगा। आप बस इतना ख्याल रखें कि वह आपकी बहन का पति है और आपकी बहन विधवा न बने। सेलीना की इन बातों के जवाब में वीर शिरोमणि पोरस ने कहा था, ‘ठीक है बहन, यह एक भाई का वायदा है कि तुम मेरे जीवित रहते विधवा नहीं बनोगी।’

बीते हुए घटनाचक्र का स्मरण कर सेलीना की आँखों में कृतज्ञता बरस पड़ी। सिकन्दर का सिर भी नीचे हो गया। उसने कहा, वीरवर पोरस! मैं जानता हूँ कि सेलीना को आपके पास भेजकर राखी बाँधने के लिए प्रोत्साहित करना, मेरे लिए एक कूटनीति भर थी। मेरे जीवन में कभी भी साधनों का कोई प्रश्न नहीं रहा है। साध्य को ही मैंने सब कुछ समझा है। पर मैं जानता हूँ कि राखी के प्रति आपकी भावनात्मक प्रतिबद्धता के कारण ही मैं न केवल जीवित हूँ, बल्कि विजेता भी हूँ। लेकिन यह विजय और जीवन मुझे आपसे मिले हैं।

हंसते हुए पोरस ने कहा, यवनराज! राखी बाँधते हुए भारत देश के पुरोहित एक मंत्र पढ़ते हैं-

येन बद्धो बलीराजा, दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि, रक्षो मा चल मा चल॥

अर्थात्- यह वह रक्षा सूत्र है जिससे महाबलवान दानवों के राजा बली बाँधे गए। रक्षा सूत्र तुम चल-विचल मत हो, प्रतिष्ठित बने रहो।

रक्षा सूत्र की यह महिमामय प्रतिष्ठ हमारी गौरवपूर्ण साँस्कृतिक परम्परा है। मैंने आपको जीवन दान देकर अपने देश के साँस्कृतिक गौरव को अक्षुण्ण रखा है। वैसे भी हम भारतवासी दूसरे के देश में घुसकर आतंक फैलाने, उनकी भूमि हड़पने में यकीन नहीं रखते। हमारा यकीन तो हृदयों पर विजय पाने में है। हम तो साँस्कृतिक दिग्विजय को अपना जीवन अभियान मानते हैं।

भारत देश की साँस्कृतिक परम्परा और उसके जीवन्त प्रतीक महावीर पोरस के इन वचनों को सुनकर सिकन्दर अभिभूत हो गया। इतिहासवेत्ता भी इस तथ्य से सहमत हैं कि इसके बाद सिकन्दर वापस लौट गया। वह भारत में और आगे नहीं बढ़ा। कोई भी यह ठीक-ठीक नहीं बता पाया कि वह वापस क्यों लौट गया। क्योंकि वह तो युद्ध जीत गया था। अब तो पूरे भारत के द्वार उसके लिए खुले थे। वह दूसरे राज्यों में प्रवेश कर सकता था। पर्वतेश्वर का राज्य तो सीमा के पास का छोटा राज्य था। लेकिन तथ्यान्वेषी जानते हैं कि सिकन्दर की वापसी भारत देश की संस्कृति के सामने उसके समर्पित होने का परिणाम थी। यह राखी के बन्धन के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ पोरस की उदात्त भावनाओं के सामने सिकन्दर की भावनाओं की हार की परिणति थी। जिसके कारण उसे यह सच स्वीकार करना पड़ा कि यथार्थ में महान् वह नहीं, राखी का प्रण निभाने वाले सम्राट पोरस हैं।


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