द्रष्टा स्तर की प्रेम से लबालब सत्ता

August 2002

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भाग बिना नहिं पाइए, प्रेम प्रीति की भक्त। बिना प्रेम नहीं भक्ति कछु भक्ति भर्यो सब जक्त॥

प्रेम बिना जो भक्ति है सो निज दंभ विचार। उदर भरन के कारने, जनम गंवायौ सार॥ (संत कबीर की साखियाँ, पृष्ठ 41)

भक्ति के आदर्श की घोषणा कर संत कबीर ने अपनी बेबाक वाणी में कहा है कि बिना प्रेम भक्ति संभव नहीं है। गुरु-शिष्य का संबंध भी कुछ ऐसा ही होता है। आत्मीयता-अनन्य भाव-प्रेम के बाद भक्ति विकसित होती है एवं परिपूर्ण समर्पण बनने पर फिर आदान-प्रदान होने लगता है। यह कार्य दोनों ओर से होता है। परमपूज्य गुरुदेव एवं उनके शिष्य के संबंध बड़े अंतरंग स्तर के वह निराले थे। वे अपना सब कुछ उन पर उड़ेल देते थे, जो उनके अपने थे। अपने शिष्य की उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त करना, वह भी उनके अपने अनुदानों के बलबूते भी प्राप्त हुई हों, तो भी उनका हौसला बढ़ाना उसी प्रेम भरे संबंधों की ही प्रतिक्रिया होती थी। समय-समय पर लिखे पत्र इस तथ्य का प्रतिपादन करते हैं।

यहाँ हम परमपूज्य गुरुदेव का दिल्ली के श्री शिवशंकर जी को लिखा एक पत्र प्रस्तुत कर रहे हैं, जो 21-9-1951 को लिखा गया था-

हमारे आत्मस्वरूप,

आपका पत्र तथा भेजा हुआ साप्ताहिक हिंदुस्तान मिला। प्रथम पृष्ठ पर आपका लेख पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई। ईश्वर आपको एक दिन साहित्य क्षेत्र का उदीयमान नक्षत्र बनावे।

आपके कुटुँब के प्रति हमें असाधारण ममता है। आप हमारे लिए छोटे भाई या पुत्र के समान हैं। हमारी हर चीज पर आपका अधिकार है। जैसे आपको अपने बड़े भाई या पिता की वस्तुओं का उपयोग करने का अधिकार प्राप्त है, वैसे ही आप हमारी हर वस्तु का उपयोग कर सकते हैं। आपने हमारी पुस्तक से कुछ लेख ले लिए, इसमें कोई अनोखी बात नहीं हुई। यदि अखण्ड ज्योति प्रकाशन में से कभी कोई वस्तु उपयोगी जँचा करें, तो भी उसे बिना पूछे निस्संकोच उसका उपयोग कर लिया करें।

आपके लेख को पढ़कर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है। आप अपनी लेखनी द्वारा राष्ट्र की महत्वपूर्ण सेवा कर सकेंगे, ऐसा हमें लगता है।

पत्र की भाषा से एक पिता का, बड़े भाई का स्नेह, अनंत स्तर की आत्मीयता का प्राकट्य होता दिखाई देता है। आज ‘कॉपीराइट’ पर कितने मुकदमें हो जाते हैं, पर अच्छे विचार फैलने चाहिए एवं इसके लिए यदि कोई प्रयास हुआ है, तो उसके लिए शिष्य की पीठ ठोकी जानी चाहिए, यह मान्यता एक बड़े दार हृदय वाला ही रख सकता है। शिवशंकर जी एम.ए. कर चुके थे। एल.एल.बी. व एल.एल.एम. की तैयारी कर रहे थे। बाद में वे पूज्यवर के ट्रस्ट के सलाहकार व फिर ट्रस्टी भी बने। उनके जीवन में कई क्राँतिकारी मोड़ आए। ‘लॉ’ के हर पहलू पर उनका गजब का अधिकार था। साहित्यकार तो वे बन नहीं पाए, पर जीवन के आरंभ की वेला में यह आशीष उनको अपने आराध्य का प्रेमभरा अनुदान दे गया। जीवनभर में अपने विषय पर लिखते रहे। सबसे बड़ी बात गुरुसत्ता की प्रीति उनके प्रति निरंतर बढ़ती रही।

परमपूज्य गुरुदेव को सर्वाधिक प्रिय अपना मिशन था, अपना नवयुग के निर्माण का लक्ष्य था। हर पत्र में कहीं-न-कहीं उसका हवाला अवश्य रहता था। प्यार के दो बोल लिखने के बाद वे यह लिखने में नहीं चूकते थे कि अखण्ड ज्योति पत्रिका को वे न्यूनतम 5 या 10 व्यक्तियों को अवश्य पढ़ाएँ अथवा युगनिर्माण योजना (मिशन-शतसूत्री संकल्प) के उद्देश्यों से अवगत कराएँ। 24-12-1963 में श्री ब्रजेंद्र लाल गुप्त को लिखे पत्र का हवाला लेते हैं-

युगनिर्माण योजना को व्यापक बनाया जाना आवश्यक है। उसके लिए यदि दौरा करना पड़े, तो वह भी करना ही चाहिए। अभी ठंड है, पर जब अवकाश निकले, तब एक चुनाव लड़ने की तरह यह कार्य करने में भी लगना ही चाहिए।

श्री ब्रजेंद्र लाल गुप्त पहले विधानसभा का चुनाव लड़ चुके थे। आगे भी इच्छा रखते थे। उन्हें उदाहरण भी दिया गया, तो यह कि चुनाव लड़ने में जितनी तत्परता, लगन एवं अथक प्रयासों की आवश्यकता पड़ती है, उससे कम में युगनिर्माण योजना के उद्देश्यों को फैलाया नहीं जा सकता। जैसा व्यक्ति वैसी भाषा। प्रेरणा हो तो इस स्तर की। प्रेम के नाते अधिकार जो था उनका सब पर। उसी संबंध के आधार पर वे इस तरह की प्रेरणाएँ लक्षाधिक व्यक्तियों को पत्रों से दे गए।

पिता-गुरु से जो स्नेह से संवेदना मिलती है, वह और कहीं से दुर्लभ है। गुरुवर के शिष्य इसकी अनुभूति करते थे। श्री बेजनाथ शौनकिया जी के पिताश्री का स्वर्गवास हुआ। उनने अपना दुःख गुरुसत्ता तक प्रेषित किया। वहाँ से जो जवाब मिला, संलग्न है-

हमारे आत्मस्वरूप, 7-3-1958

छंदबद्ध पत्र मिला। पिताजी के स्वर्गवास के समाचार से दुःख हुआ। ईश्वर की लीला प्रबल है। उसकी इच्छा के आगे मनुष्य का कुछ वश नहीं चलता। अब धैर्य और संतोष में ही दूरदर्शिता है। स्वर्गीय आत्मा की शाँति और सद्गति के लिए माता से आँतरिक प्रार्थना है।

आप आपने को पितृविहीन न समझें। हम अभी हैं। आपको चिंता करने का कोई कारण नहीं हैं। जो जिम्मेदारियाँ पिताश्री के चले जाने से आपके कंधों पर आई है, वे सभी सानंद पूर्ण होती चलेंगी।

त्रयोदशी संस्कार के समय हम सशरीर न आ सकेंगे, पर हमारी हार्दिक सद्भावना आपके साथ रहेगी।

पत्र सरल-सा है, पर एक-एक शब्द में अपनापन है, अपने सगे के प्रति संवेदना है एवं आश्वासन है। यदि यह प्यार न हो, तो जग कैसा दीखने लगेगा। आज यही संवेदना तो मर गई है, पत्राचार ने ई-मेल का रूप ले लिया है, वहाँ कहाँ यह स्नेह, यह ममत्व, यह भाव परायणता।

एक और पत्र यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जो न केवल भविष्य-दर्शन की झाँकी कराता है, हम सबके लिए कर्तव्यबोध का सूचक भी है। इस पत्र में आज जो भी कुछ घटित हो रहा है, उसकी एक झलक भी है। पत्र लेखक शिष्य ने अपनी आशंकाएँ आज की परिस्थितियों को देखते हुए व्यक्त की थीं। वर्ष था 1954 का। हम आज 48 वर्ष बाद सोच भी नहीं सकते कि कोई इतना स्पष्ट चित्रण हमारे समक्ष कर सकता है, आगत का, भवितव्यता का। परंतु अपने प्रिय शिष्य की जिज्ञासा मिश्रित आशंका पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए गुरुसत्ता ने पूरा खुलकर लिखा। वह जो आज हो रहा है। यह पत्र 30-4-54 को श्री सुमंत कुमार मिश्र को लिखा गया-

हमारे आत्मस्वरूप,

पत्र मिला, आपकी आशंकाएँ सच्ची हैं। यदि आज की घुमड़ती हुई घटाएँ बरस पड़ीं, तो इस विश्व के नष्ट होने में कुछ संदेह नहीं है। वह एक खंड प्रलय ही होगी। भय संत्रस्त जनता के दुःखकातर लोगों को वे उपाय करना चाहिए, जो इन घटाओं को हटा सकते हैं, पर इसके लिए सच्चे आत्मदान देने वाले साधकों की जरूरत है। हम लोग कुछ तप-त्याग करने को तत्पर हों, तो बहुत कुछ हो सकता है।

अणुयुद्ध आध्यात्मिक तपश्चर्याओं से ही रोका जा सकता है। हमें अदृश्य को जानने की नहीं, अपने कर्तव्य का पालन करने की आवश्यकता है। आपका समाधान आपकी अंतरात्मा स्वयं कर देगी।

श्रीराम शर्मा

पत्र अपने आप में अद्भुत है एवं आज की परिस्थितियों का पूरा विवरण देता है। अदृश्य को जानने की अपेक्षा कर्तव्यपरायणता, अपना-अपना योगदान ही गुरुवर ने एकमात्र मार्ग बताया है। विश्व आज आतंकवाद से ग्रसित है। चारों ओर युद्धोन्माद छाया दिखाई देता है। ऐसा लगता है मानो प्रलय अब आई। विगत वर्ष सितंबर माह में अमेरिका पर हुए हमले से लेकर कश्मीर की सीमाओं पर चल रहा सीमापार का आतंकवाद राष्ट्र ही नहीं, विश्व को विनाश की चुनौती दे रहा है। ऐसे में आज से 50 वर्ष पूर्व दिया गया संदेश, आध्यात्मिक तपश्चर्या, जीवन-पद्धति में परिवर्तन, समूह साधना एवं संवेदना का जागरण उतना ही समयानुकूल है, जितना तब था। सचमुच सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व के धनी थे हमारे गुरुदेव, जो द्रष्टा भी थे एवं एक अभिभावक भी, संवेदनाशील पिताश्री।


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