यौगिक जीवन ही स्वस्थ मन दे सकेगा

August 2002

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इक्कीसवीं सदी में मनुष्य ने अनगिन मानसिक समस्याओं के साथ प्रवेश किया है। सूचना तकनीक, संचार क्रान्ति और याँत्रिकता ने मानवीय जीवन में साधन सुविधाओं की भरमार करने के साथ मानसिक स्वास्थ्य में अनेकों संकट भी खड़े किए हैं। मनुष्य का जीवन अपेक्षाकृत अधिक तनाव ग्रस्त एवं विषादपूर्ण हुआ है। मानसिक चिकित्सा की प्रचलित विधियाँ, मनोविश्लेषण के तौर तरीके मिल जुलकर भी इस चुनौती का सामना करने में प्रायः नाकाम रहे हैं। दुनिया के प्रायः हर देश में इनकी नाकामियाँ समझी और स्वीकारी जा चुकी हैं। ऐसे में चिन्तित विशेषज्ञों ने विश्व भर के पुरातन ज्ञान भण्डार में अपनी ढूंढ़-खोज शुरू की है। और उनकी दृष्टि भारत देश के प्राचीन ऋषियों द्वारा अन्वेषित योग विज्ञान पर जा टिकी है। यहीं उन्हें आज की मानसिक समस्याओं के सार्थक और सक्षम समाधान अंकुरित होते हुए दिखाई पड़ रहे हैं।

इस सम्बन्ध में मानवीय मन के विशेषज्ञ कार्ल रोजर्स ने बहुतायत में शोध कार्य किया है। अपनी दीर्घ कालीन अनुसन्धान प्रक्रिया से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानसिक स्वास्थ्य संकट के प्रश्न कंटक को निकालने के लिए मानवीय प्रकृति की संरचना व उसकी क्रियाविधि का समग्र ज्ञान चाहिए। तभी उसमें आयी विकृति की पहचान व निदान सम्भव है। कार्ल रोजर्स के अनुसार यह समस्त विज्ञान योग शास्त्रों में पहले से ही उपलब्ध है। समस्त योग शास्त्रों में उन्होंने महर्षि पतंजलि प्रणीत योगसूत्र में मनोचिकित्सा की सैद्धान्तिक एवं नैदानिक समग्रता के अपूर्व समन्वय को अनुभव किया है। इसी के आधार पर उन्होंने अपनी नान डायरेक्टिव चिकित्सा विधि भी विकसित की है।

सुविख्यात मनीषी जय स्मिथ के अनुसार प्रायः सभी मानसिक समस्याएँ मानवीय चेतना को विखण्डित करने वाली दरारों और इसमें उत्पन्न होने वाली ग्रन्थियों के कारण जन्मती व पनपती हैं। स्मिथ इन सभी का मूल कारण अहं को मानते हैं। उनके अनुसार यह अहंता ही है, जो एक ओर हमें उच्चतर चेतना से अलग करती है और दूसरी ओर हमको अपने साथी मनुष्यों के सामाजिक विस्तार से दूर करती है। स्मिथ के अनुसार योग विज्ञान की साधनात्मक प्रक्रियाएँ ही एक मात्र सार्थक एवं समर्थ समाधान है। इसी से मनुष्य की बिखरी और बंटी हुई चेतना फिर से अपनी एकात्मकता व सम्पूर्णता प्राप्त करती है। फिर से उसे अपना खोया हुआ स्वास्थ्य व सौंदर्य मिलता है।

मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य संकट का हल ढूंढ़ने के लिए आधुनिक समय में जितने भी अनुसन्धान कार्य हुए हैं और हो रहे हैं, उन सभी सार निष्कर्ष यही है। प्रायः सभी विशेषज्ञों ने एक स्वर से यही प्रामाणित किया है कि मानसिक स्वास्थ्य के सभी अर्थ योग विज्ञान में निहित है। कतिपय मनोविज्ञानियों ने मानसिक स्वास्थ्य के अर्थ को अपने शोध निष्कर्षों के आधार पर स्पष्ट भी किया है। स्ट्रेंज के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य सीखा गया वह व्यवहार है, जो व्यक्ति को सामाजिक रूप से अनुकूल बनाता है। और जिसकी वजह से व्यक्ति अपनी जिन्दगी की सभी समस्याओं से जूझने में सक्षम होता है। इस मानसिक स्वास्थ्य में आत्म सम्मान, अपनी अर्न्तशक्तियों का अनुभव, सभी से सार्थक एवं उत्तम सम्बन्ध बनाए रखने की क्षमता एवं मनोवैज्ञानिक श्रेष्ठता जैसे कई आयाम सम्मिलित होते हैं।

कार्ल मेनिंजर ने इसे अधिकतम खुशी तथा प्रभावशीलता के साथ वातावरण एवं दूसरे मनुष्यों से समायोजन के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार यह एक सन्तुलित मनोदशा, सतर्क बुद्धि, सामाजिक रूप से मान्य व्यवहार व प्रसन्नता बनाए रखने की क्षमता है। ये परिभाषाएँ भले ही थोड़ा आधी-अधूरी हों, पर इसमें कोई सन्देह नहीं है कि योग विज्ञान मनुष्य की इन सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए मानवीय चेतना की अंतःशक्तियों को जाग्रत् एवं सुविकसित करता है। पश्चिमी विद्वानों द्वारा दी गयी मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषाओं के इस अधूरेपन के बारे में वी. मधुसूदन रेड्डी का कहना है कि पाश्चात्य समाज में मानसिक बीमारी एक सामाजिक समस्या है। वहाँ के मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्री दोनों ही इस मानसिक एवं संवेदनात्मक विकृति के मूल कारणों को ठीक से जान समझ नहीं पाए हैं। हालाँकि फिर भी इनकी योग के बारे में कुछ समझ विकसित हुई है। इसी कारण ध्यान और हठयोग की ओर इनका झुकाव हो रहा है। इसी में इस समस्या का समाधान निहित है। मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से योग की ये पद्धतियाँ अनुभाविक एवं प्रायोगिक है।

एस. दलाल ने इस सम्बन्ध में काफी कुछ कहने-लिखने व समझाने की चेष्टा की है। उन्होंने अपनी एक पुस्तक ‘लिविंग विद इन’ में योग साधना के वैज्ञानिक एवं प्रायोगिक जीवन के सर्वथा नए क्षितिज पर जीवन साधना करने वाले महर्षि अरविन्द के पूर्ण योग के सत्यों की व्याख्या की है। अपने इस प्रस्तुतीकरण में श्री दलाल का कहना है कि- सामान्यतया मानसिक स्वास्थ्य संकट को तनाव, उदासी, चिन्ता, असुरक्षा का भाव, क्रोध, ईर्ष्या, सन्देह आदि की उपस्थिति से परिभाषित किया जाता है। इन मनोविकारों की अनुपस्थिति को मानसिक स्वास्थ्य समझा जाता है। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। क्योंकि मनुष्य के आन्तरिक एवं विधेयात्मक भावों जैसे शान्ति, अन्तः सुरक्षा का भाव, विश्वास, इन्द्रिय निग्रह आदि का इसमें अभाव है। यौगिक जीवन ही मानसिक स्वास्थ्य की एक मात्र सही परिभाषा और उपयोगी समाधान है। योग ही एक मात्र साधन है जो मानसिक विकारों से मुक्ति देने में समर्थ है। पूर्ण यौगिक अवस्था न केवल सभी मनोविकारों से छुटकारा दिलाती है, बल्कि दिव्य गुणों का अभिवर्धन एवं विकास भी करती है।

इस सम्बन्ध में कैलिफोर्निया में एक अच्छी प्रयोगात्मक शुरुआत हुई थी, जिसमें काफी कुछ सफलता भी मिली। इसमें यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया गया कि व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए आत्मज्ञान आवश्यक है। इन प्रयोगों के लिए एक ओर योग की तकनीकों व उपचार पद्धतियों को, दूसरी ओर मनोरोगों की पहचान व वैज्ञानिक जाँच के लिए मनोवैज्ञानिक पद्धतियों को सम्मिलित करना आवश्यक माना गया। विश्व भर के विशेषज्ञ अब यह सत्य स्वीकारने लगे हैं कि हठयोग, ध्यान, मूल्य चेतना, योग शिक्षा, ट्रान्सपर्सनल परिकल्पना व आत्मबोध के द्वारा ही सम्पूर्ण मानसिक स्वास्थ्य एवं आन्तरिक शक्तियों का विकास सम्भव है।

इस क्षेत्र में अभी जो कुछ हुआ है, वह बहुत स्वल्प एवं एकाँगी है। योग विज्ञान द्वारा मानसिक स्वास्थ्य उपलब्ध करने के सम्बन्ध में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। शोध-अनुसन्धान के इस क्षेत्र में अभी और नए दीप जलाने की आवश्यकता है। युग की इसी आवश्यकता की अनुभव करके देव संस्कृति विश्वविद्यालय में योग विभाग की स्थापना की गयी है। इस विभाग के प्राध्यापक एवं विद्यार्थी ब्रह्मवर्चस शोध अनुसन्धान के शोध वैज्ञानिकों से मिलकर उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। इसके सामयिक निष्कर्ष अखण्ड ज्योति के पृष्ठो पर प्रकाशित भी हुए हैं। आगे आने वाले दिनों में इस शोध कार्य की गति और भी तीव्र होगी। ताकि उसके निष्कर्षों में प्रतिपादित यौगिक जीवन की तकनीकों को अपनाकर सामान्य जन उत्कृष्ट मानसिक स्वास्थ्य एवं उच्चतम आन्तरिक शक्तियों के जागरण व विकास से लाभान्वित हो सके।


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