प्रकाश ही जीवन है, अब यह मान्यता तथ्य के रूप में प्रकट और प्रत्यक्ष होती जा रही है और उस शास्त्रीय धारणा के निकट पहुँचती जा रही है, जिसमें कहा गया है कि जीव की मूल सत्ता (आत्मा) ज्योतिस्वरूप है। इतना ही नहीं, स्थूल उपादानों से निर्मित यह जड़ शरीर और जड़ पदार्थ भी उसी की अभिव्यक्तियाँ हैं। इन सबका अंतिम स्वरूप भी प्रकाशवान है, इसलिए विज्ञान यदि यह कहता है कि विभिन्न प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ देह के अंदर प्रकाश के असंतुलन का परिणाम हैं, तो यह किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है।
भारतीय अध्यात्म की यह शुरू से ही मान्यता रही है कि हर स्थूल के पीछे एक तेजवान सूक्ष्म है। यही सूक्ष्म उसके चारों ओर आभामंडल के रूप में बिखरा रहता है। योगी-यतियों के मुखमंडल पर विराजमान दीप्तिवान काँति इसी की परिणति है। प्राण के क्षरण के साथ-साथ इसकी तेजस्विता में कमी आती है। यही कारण है कि सर्वसाधारण के चेहरे पर वह ओज नहीं दीखता, जो दीखना चाहिए। इसका एक ही कारण है कि वे प्रमादवश उस तेज बल का अपव्यय करते रहते हैं। इससे प्रकाश शरीर कमजोर पड़ता जाता है। उसके दुर्बल बनने से उसका गोचर रूप स्थूल शरीर भी शक्तिहीन बन जाता है। अशक्ता रोग की जननी है, अतएव काया बीमार पड़ जाती है, तरह-तरह की व्याधियों से ग्रस्त हो जाती है।
यह बीमारी का एक पहलू हुआ। इसका दूसरा पक्ष यह है कि अव्यवस्थित दिनचर्या और असंयमित जीवन के कारण देह के भीतर का प्रकाश घटक असंतुलित और अस्त-व्यस्त हो जाता है। यह असंतुलन रोगों को न्यौता बुलाता है। इस प्रकार शरीर के अंदर चाहे प्रकाश तत्व की क्षीणता हो या उसकी अस्त-व्यस्तता, दोनों ही स्थितियाँ रुग्णता की कारण बनती हैं।
प्रकाश का जीव जगत् और वनस्पति जगत् से क्या संबंध है? इस संदर्भ में पहली बार गहन अध्ययन डॉ.जॉन आँट ने किया। उनने ही यह प्रथम बार बताया कि प्रकाश-वर्णक्रम का हर हिस्सा पोषण की दृष्टि से स्वयं में एक ऐसी कुँजी सँजोए हुए है, जो हमारे लिए विशेष प्रकार के विकास और वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। उनके अनुसंधान से अब यह स्पष्ट हो गया है कि मानव शरीर एक जीवंत प्रकाश कोश है, जो प्रकाश ऊर्जा का उपयोग ऐसे मूलभूत तत्व के रूप में करता है, जिससे उसकी वृद्धि विकास, सक्रियता और स्वस्थता अक्षुण्ण रह सके। फोटो बायोलॉजी के क्षेत्र में मनुष्यों, पशुओं और वनस्पतियों के संबंध में उनकी यह शोध मील का पत्थर साबित हुई है। इससे प्रकाश प्रेरणा लेकर अनेक वैज्ञानिक इस दिशा में अनुसंधानरत हैं और नित-नए तथ्यों का उद्घाटन कर रहे हैं।
अब से पूर्व तक इसे सभी जानते थे कि प्रकाश जीवन के लिए आवश्यक है, पर यह क्यों और किस प्रकार उपयोगी है? इस संबंध में कोई उल्लेखनीय जानकारी वैज्ञानिकों के पास नहीं थी, विशेष रूप से मनुष्यों और जंतुओं के संदर्भ में। पेड़-पौधों के बारे में तो यह पता था कि वे सूर्य-प्रकाश से अपना भोजन तैयार करते हैं। फोटो सिंथेसिस की क्रिया उनमें दिन के उजाले में ही संभव है, रात के अँधेरे में नहीं, किंतु अब विदित हुआ है कि यह ज्ञान प्रकाश की वास्तविक भूमिका की तुलना में कितना नगण्य था।
मूर्द्धन्य विज्ञानी जैकब लिबरमैन ने अपनी पुस्तक ‘लाइट मेडिसिन ऑफ दि फ्यूचर’ में इस बात की चर्चा की है कि मानव शरीर का पोषण दो तरीके से होता है, एक तो सीधे सूर्य प्रकाश के माध्यम से तथा दूसरा, खाद्यान्नों, जल एवं वायु से। प्रथम स्थिति में मनुष्य जब रोशनी के प्रत्यक्ष संपर्क में आता है, तो उसकी किरणों से संपूर्ण शरीर में उद्दीपन आरंभ हो जाता है और जहाँ, जितनी एवं जिस प्रकार की किरणों की जरूरत पड़ती है, वहाँ वे उस परिमाण में अवशोषित हो जाती है। इससे शरीर स्वस्थ बना रहता है और आदमी सक्रिय। दूसरी अवस्था में जितने भी प्राकृतिक एवं खेतों में उगने वाले आहार है, उन सभी में सूर्य ऊर्जा प्रचुर मात्रा में संगृहीत होती है, वे अपने जीवनकाल में उसका अवशोषण कर लेते हैं। बाद में मानव जब उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण करता है, तो स्थूल हिस्से से काया के स्थूल भाग का पोषण होता है एवं उसमें सन्निहित प्रकाश-ऊर्जा द्वारा उसके प्रकाश शरीर को पुष्टि मिलती है, किंतु वे कहते हैं कि खाद्यान्नों में प्रकाश तत्व उतनी मात्रा में नहीं होते, जितने से अंग-अवयवों का भलीभाँति परिपोषण हो सके, इसलिए वे सुबह की धूप के सेवन की सलाह देते हैं, ताकि उस कमी की पूर्ति हो सके। धूप-स्नान की परिपाटी विकसित करने वाले संभवतः मनुष्य शरीर की सूक्ष्म संरचना और प्रकाश के स्वास्थ्यकारी गुणों से अवगत रहे होंगे, अतएव उन्होंने प्राकृतिक ढंग से स्वास्थ्य-संरक्षण के लिए यह विधा विकसित की होगी। आज उस ओर पर्याप्त ध्यान ने देने के कारण हम बीमार पड़ते और दुःख भोगते हैं।
जैकब लिबरमैन लिखते हैं कि शरीर में प्रकाश तत्व की कमी अथवा रोशनी की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति, यह दोनों ही दशाएँ देह और मन को निष्क्रियता की ओर ले जाती हैं। मन के निश्चेष्ट होने से दमित इच्छाएँ और वासनाएँ उभरने लगती हैं, इससे व्यक्ति परेशान हो उठता है। उक्त दुःखद स्थिति को टालने के लिए जब वह पुनः उन्हें दबाने का प्रयास करता है, तो द्वंद्व पैदा होता है। यह उसे अवसाद में धकेल देता है।
निश्चय ही प्रातः का उजाला हमें स्फूर्ति, उल्लास, सक्रियता और चैतन्यता प्रदान करता है। रात की तमिस्रा तो संपूर्ण धरित्री को आलस्य, निद्रा और निरानंद की गोद में पटक देती है। अब यह केवल दार्शनिक सत्य भर नहीं रहा, वरन् एक वैज्ञानिक तथ्य के रूप में भी सामने आया है। डॉ.जेन किम अपनी रचना ‘सनलाइट’ में कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति सूर्य प्रकाश के संपर्क में आता है, तो उसके अंदर विभिन्न प्रकार के शरीर-क्रिया संबंधी परिवर्तन घटित होते हैं। उदाहरण के लिए, उसकी रेस्टिंग पल्स एवं श्वसन पर घट जाती है, रक्तचाप कम हो जाता है। इसके अतिरिक्त खून में शक्कर और लैक्टिक एसिड की मात्रा न्यून हो जाती है, साथ ही ताकत, ऊर्जा और सहन शक्ति बढ़ जाती है। कुछ हारमोनल बदलाव भी देखे गए हैं। इससे व्यक्ति के अंदर प्रसन्नता और क्रियाशीलता आती है। रात्रिकालीन अंधकार की प्रतिक्रिया इससे ठीक उलटी है। उससे संपूर्ण अंतःस्रावी तंत्र प्रभावित होता है, जिसके कारण रक्त में कुछ ऐसे रसस्राव होते हैं, जो तन में शिथिलता ओर मन में अनुत्साह पैदा करते हैं, जो आदमी को स्वभावतः विश्राम करने और सोने के लिए प्रेरित करता है। कदाचित् इसी कारण से रात में सोते समय लोग प्रायः बत्ती बुझा देना पसंद करते हैं, ताकि शरीर फिजियोलॉजी को वह प्रभावित न कर सके और आदमी अधिक सुखपूर्वक नींद का आनंद ले सके।
अब यह पूर्णतः साबित हो चुका है कि हर जीवधारी नियमित रूप से प्रकाश ग्रहण और विसर्जन करता रहता है। प्रख्यात जर्मन रसायनशास्त्री और भौतिक विज्ञानी फ्रिटज-अलबर्ट पोप्प ने अपने परीक्षणों द्वारा यह दिखाया है कि किस प्रकार शरीर का प्रत्येक जीवकोश रोशनी विकीर्ण करता है। उन्होंने इस प्रकाश-कणों को ‘बायोफोटोन’ नाम दिया। उनका कहना है कि ये किरणें पराबैंगनी से लेकर अवरक्त तक का संपूर्ण इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वर्णक्रम स्वयं में धारण किए रहती हैं। उनकी तीव्रता बदलती रहती है। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि यह वस्तुतः उस समय उनके (सेल्स के) भीतर हो रही जैव रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है। कोशिका विकास के दौरान इसे सबसे अधिक तीव्र देखा गया है।
क्षरण और ग्रहण निसर्ग का निश्चित नियम है। माताएँ और गायें अपने बच्चों के लिए दूध लुटाती हैं, तो उसकी स्वतः पूर्ति होती रहती है। रक्तदान करने वालों का रुधिर कभी घटता नहीं, आहार द्वारा वह पूरा हो जाता है। भेड़ों हर वर्ष ऊन देती हैं, पर उन्हें उसकी कमी कहाँ होती है। उसी प्रकार बाल्यावस्था में जब कोशिकाओं का विभाजन और विकास अपने चरम पर होता है, तो उस दौरान अंतःप्रकाश का उत्सर्जन भी बड़े पैमाने पर होता रहता है, इसे फ्रिट्ज अल्बर्ट ने अपने प्रयोगों द्वारा प्रमाणित कर दिया है। वे कहते हैं कि प्रकृति की यह कैसी निपुण व्यवस्था है कि जब जीवन तत्व का सर्वाधिक ह्रास होता है, उस बचपन में बालक अधिकाँश समय बाहर ही खेलते रहते हैं। इस प्रकार वे उस क्षरित ऊर्जा की स्वाभाविक पूर्ति सूर्य प्रकाश द्वारा करते रहते हैं। बचपन बीतने के साथ-साथ बनावटी जीवन चालू होते ही इस क्रम में व्यक्तिक्रम आ जाता है, फलतः उसमें प्रकाश ऊर्जा की कमी पड़ने लगती है, जो रोगों का निमित्त कारण बनती है।
प्रकाश सप्तवर्णी है। सातों रंगों का अपना अलग-अलग स्वभाव और प्रभाव है। इन वर्णों की न्यूनाधिकता से शरीर और मन में पृथक-पृथक परिणाम प्रकट होने लगते हैं। कोई क्रोध, कोई प्रसन्नता, कोई शाँति, तो कोई स्थिरता के लिए जिम्मेदार है। जब तक इन रंगों का आनुपातिक संतुलन भीतरी प्रकाश में व्यवस्थित बना रहता है, तब तक हमारा व्यक्तित्व संतुलित रहता है और शरीर-मन स्वस्थ, किंतु उसके गड़बड़ाने से शरीर-मन लड़खड़ाने लगता है। ऐसा इसलिए, कारण कि हमारी समग्र सत्ता- कायिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक, इन सबको पोषण प्रकाश से ही मिलता है। जब पोष ही विकारग्रस्त हो, तो मानवी अस्तित्व के विभिन्न स्तरों पर उसका कुप्रभाव पड़े बिना कैसे रह सकता है?
शरीर पंचतत्वों का बना है। इन तत्वों के अपने-अपने प्रतिनिधि रंग हैं। पृथ्वी तत्व लाल, जल तत्व सिंदूरी वायु तत्व अरुण, आकाश तत्व धूम्र तथा अग्नि तत्व नील वर्ण का है। यही रंग षट्चक्रों में से क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि चक्र के हैं, आज्ञा चक्र श्वेत वर्ण का है। जब इन प्रकाश वर्णों में से कभी कोई रंग हावी हो उठता है, तो उस तत्व की प्रधानता काया में बढ़ जाती है और उसके लक्षण शरीर में प्रकट होने लगते हैं। इसके कारण उक्त रंग से संबंधित चक्र भी प्रभावित होता है, जो अपने से संबद्ध ज्ञानेंद्रियों ओर कर्मेंद्रियों को उद्दीप्त-उत्तेजित करना आरंभ करता है। बिना परिमार्जन-परिष्कार के चक्रों का उद्दीपन हानिकारक हो सकता है, कारण कि उससे मुक्त ऊर्जा को बरदाश्त करने की शक्ति शुद्धिरहित अवयवों में नहीं होती। ऐसे में व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तकलीफ हो सकती है। इस स्थिति में विशेषज्ञ शरीरगत प्रकाश-किरणों को पुनर्व्यवस्थित कर पंचतत्वों और चक्रों के क्रियाकलापों को सुव्यवस्थित करने और प्रकाराँतर से समग्र स्वस्थता प्राप्त करने की सलाह देते हैं।
अब प्रश्न यह है कि अपने आँतरिक प्रकाश की अस्तव्यस्तता को दूर कैसे किया जाए और उसकी सुव्यवस्था, द्वारा आरोग्य-लाभ का उपाय क्या हो? आचार्यों ने इसके कई तरीके बताए हैं, उनमें से एक यह है कि प्रातःकाल उदीयमान सूर्य के आगे गीले शरीर से बैठा जाए, चेहरा भी भीगा हुआ हो। अब कुछ क्षण अरुणोदय को देखकर नेत्र बंद कर लिए जाएँ और ध्यान में उसकी मानसिक कल्पना की जाए। बाहर प्रत्यक्ष सूर्य और भीतर उसकी मनोकल्पना, इससे सूर्य रश्मियाँ अवशोषित होने लगती हैं। गीले शरीर में यह कार्य अधिक सहजता और सफलतापूर्वक संपन्न होता है। इसके अतिरिक्त एक दूसरा विकल्प यह है कि कहीं भी बैठकर दिन या रात में उगते हुए सूर्य का ध्यान किया जाए। इससे भी वही लाभ मिलेंगे। एक तरीका रंगों का ध्यान का है, किंतु इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि देह में किन रंगों की कमी हुई है, तदनुसार उन वर्णों की किरणें लेने, उनका ध्यान करने अथवा उनसे उपचारित जल का सेवन करने से भी अभीष्ट की पूर्ति हो सकती है, लेकिन इसे कोई सुयोग्य जानकार ही बता सकता है। अतएव किसी विज्ञ रंग चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।
डॉ.गैब्रियल काउसेंस ने अपनी कृति ‘स्प्रिचुअल न्यूट्रीशन एंड दि रेनबो डाइट’ में एक अन्य उपाय बतलाया है। उनका कहना है कि शाक-सब्जियाँ वास्तव में प्रकाश का घनीभूत रूप है। भिन्न-भिन्न वर्णों वाली शाक-सब्जियों का प्रभाव भी उन रंगों के समान ही होता है। सब्जियाँ और फूल जिस रंग के होते हैं, वे उसी रंग की किरणों को सूर्य प्रकाश से आकर्षित और अवशोषित कर लेते हैं। उन्हें खाने पर उस रंग की कमी की पूर्ति आसानी से हो जाती है। वे कहते हैं कि भोजन के अलग-अलग रंगों का संबंध चक्रों, ग्रंथियों एवं दूसरे अवयवों से भी है। विशिष्ट वर्ण वाला शाक या फल खाने से उस रंग से संबंधित उपाँगों को संतुलित-नियंत्रित किया जा सकना संभव है। इससे तत्संबंधी रोगों का शमन सरलता से हो जाता है।
उनका कहना है कि रंग और भावना में विज्ञान की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। दोनों का तरंग-दैर्घ्य समान है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। वे कहते हैं कि यदि लाल रंग क्रोध के लिए जिम्मेदार है, तो इस मानवी भावना का तरंग-दैर्घ्य लाल रंग जितना ही होगा। लाल रंग की कमी से व्यक्ति दब्बू, डरपोक, प्रतिकूल परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देने वाला, असंघर्षशील तथा कमजोर मन वाला होता है। अतः इसकी पूर्ति के लिए उसे ऐसे वातावरण में रखना पर्याप्त होगा, जहाँ दुस्साहसिक एवं निर्भीक प्रसंगों की नियमित चर्चा होती हो। इससे उसे वहीं तरंगें प्राप्त होती रहेंगी, जो लाल वर्ण से मिल सकती थीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष लाल रंग की कमी यहाँ तत्संबंधी भावनात्मक पोषण से पूरी कर ली जाती है।
इतना ही नहीं, मनुष्यों के बीच के पारिस्परिक प्रभाव एवं हमारी शरीर क्रियाएँ, यह सभी तरंगजनित प्रकृति की होती हैं। इन तरंगों में से प्रत्येक का पृथक-पृथक प्रभाव हमारी मनोदशा, व्यवहार और शरीर क्रिया पर पड़ता है। इनमें से किन-किन रंगों को ग्रहण करने की व्यक्ति में कितनी सामर्थ्य है? इस आधार पर यह आसानी से जाना जा सकता है कि शेष किन तरंगों के प्रति वह अग्रहणशील है। उन तरंगों की आपूर्ति करने पर वह बाकी की दूसरी तरंगों के साथ मिलकर एक संतुलित रेनबो डाइट (जिसमें प्रकाश के सातों वर्णों से संबंधित पोषण सामर्थ्य हो) का निर्माण करती है। इससे व्यक्तित्व के मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक हर स्तर को पोषण मिल सकेगा और स्थूल देह की भी परिपुष्टि होगी। इस प्रकार व्यक्ति स्वस्थ बना रह सकेगा।
हम प्रकाशवान हैं। हमारा संपूर्ण अस्तित्व प्रकाशयुक्त है, किंतु हमारे अंदर के कल्मष उसे अभिव्यक्त नहीं होने देते और उसको दोषपूर्ण आवरण से ढक देते हैं। उसके प्रभाव में आकर भौतिक काया भी रुग्ण बनती और दुःख भोगती हैं। जब आत्मपरिष्कार कर हम बिल्कुल निर्दोष और निर्विकार स्थिति में पहुँचते हैं तब वह दिव्य प्रकाश प्रकट होकर हमारी संपूर्ण सत्ता को ओतप्रोत कर देता है। यही हमारा वास्तविक अस्तित्व है। इसे चेतना या आत्मा का प्रकाश भी कहते हैं, समग्र स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक आदर्श अवस्था है।