एक महान सृजन सेनानी गुरुतत्त्व में विलीन

August 2002

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14 मई, रात्रि 1 बजकर 35 मिनट पर महान सृजन सेनानी, परमपूज्य गुरुदेव के निष्ठावान शिष्य, अपनी गुरुभक्ति एवं समर्पण के कारण असंख्य गायत्री-परिजनों के प्रेरणा स्त्रोत, युगनिर्माण के आधार स्तंभ, गायत्री तपोभूमि के व्यवस्थापक एवं संचालक पं. लीलापति शर्मा स्थूल देह का त्याग कर गुरुतत्त्व में विलीन हो गए। पंडित जी की पूज्य गुरुदेव से पहली मुलाकात सन् 1956 के आस-पास हुई। गुरुदेव उस समय किसी कार्यक्रम के सिलसिले में ग्वालियर आए हुए थे। पंडित जी उन दिनों ग्वालियर क्षेत्र की डबरा नाम की जगह में राइस मिल में मैनेजर थे। पंडित जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व की उस समय आस-पास के सेठ-साहूकारों एवं वहाँ के प्रशासनिक क्षेत्र में बड़ी धाक थी, लेकिन इस प्रभावशाली व्यक्तित्व की गहराई में जो भावनाशील-समर्पित शिष्य छिपा हुआ था, उसे केवल गुरुदेव ने पहचाना। प्रथम मुलाकात में ही उन्होंने पंडित जी को अपना लिया।

पंडित जी भी गुरुदेव के तपोनिष्ठ जीवन व सादगी से अभिभूत होकर सदा के लिए उनके हो गए। अपने इस प्रथम मिलन को बताते हुए पंडित जी बताया करते थे कि तब मेँ बड़ा तार्किक था। मैंने शुरू-शुरू में गुरुजी को परखने की कोशिश की। गुरुजी तो सौ प्रतिशत खरे थे। गुरुजी की इस सौ प्रतिशत शुद्धता, उच्चता एवं सच्ची आध्यात्मिकता को समझ लिया, तो फिर मैंने अपनी सारी तर्कबुद्धि को कूड़े में फेंक दिया और एक ही निश्चय किया, ‘श्रद्धा सो श्रद्धा, समर्पण सो समर्पण। गुरुदेव में ही अपने को विलय करना है। उन्हीं के लिए अपने सारे जीवन को झोंक देना है। ‘उनका समूचा जीवन उनके इस संकल्प का प्रमाण है। इसकी तारीफ स्वयं गुरुदेव एवं माताजी बार-बार अपने मुख से करते थे। संकल्प के धनी, दृढ़ प्रतिज्ञ पंडित जी गुरुदेव के सामने जहाँ कर्मकुशल समर्पित शिष्य की भाँति रहते थे, वहीं वंदनीया माताजी के सामने उनका व्यवहार मातृभक्त बालक की भाँति होता था। वह माताजी के बड़े ही अनुरागी भक्त थे।

अपनी पहली मुलाकात के थोड़े ही दिनों के बाद पंडित जी गुरुदेव के काम में लग गए। सन् 1958 के सहस्रकुंडीय यज्ञ में उन्होंने भरपूर जिम्मेदारी निभाई। गुरुदेव ने जब उन्हें पूरी तरह सब कुछ छोड़कर आने के लिए कहा, तो बिना कोई आगा-पीछा देखे या सोचे वह सन् 1965 में पूर्ण रूप से आ गए। 1971 में पूज्य गुरुदेव की हिमालय यात्रा के समय से उन्होंने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए गायत्री तपोभूमि के संचालन व व्यवस्था की संपूर्ण जिम्मेदारी उठाई। अपने इस काम के बारे में वह कहते थे कि मैं तो हनुमान की भाँति श्रीराम प्रभु का सेवक हूँ। अपनी इस समर्पित भावना के साथ उन्होंने गायत्री तपोभूमि के स्वरूप एवं कार्यों का व्यापक विस्तार किया। उन्हीं के प्रयासों से भव्य प्रज्ञानगर बना। युगनिर्माण विद्यालय का संचालन करते हुए उन्होंने भारी मात्रा में गुरुदेव के साहित्य का प्रकाशन व प्रचार किया। जहाँ कभी पहले केवल एक ट्रेडिल मशीन हुआ करती थी, वहाँ उनके प्रयासों से दो रोटरी ऑफसेट मशीनें लग गई।

सन् 1981 में उन्हें पहला हृदयाघात हुआ, लेकिन संकल्प व जिजीविषा के धनी पंडित जी ने अपने किसी काम में कोई कमी न आने दी। अपनी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों को झेलते हुए उन्होंने गुरुदेव के साहित्य प्रसार की कई योजनाएँ चलाईं। मासिक पत्रिका युगनिर्माण योजना का संचालन करते हुए उसे ढाई लाख तक पहुँचा दिया। अपने बाद के जीवन में उन्होंने शारीरिक पीड़ाओं के साथ अनेकों भावनात्मक पीड़ाएँ भी झेलीं। अपने युवा पुत्र के विछोह का आघात सहा, पर उनके समर्पण वह कर्मनिष्ठा में कोई कमी नहीं आई। गुरुदेव के साहित्य को उन्होंने विभिन्न विषयों के अनुरूप पॉकेट बुक्स के रूप में प्रकाशित किया। इसे भारी लोकप्रियता मिली। सतत कर्म करते हुए उन्होंने गायत्री तपोभूमि की स्थापना के इस स्वर्ण जयंती वर्ष में देह का त्याग कर दिया। उनके अंतिम संस्कार में उनके स्वजनों एवं गायत्री तपोभूमि के कार्यकर्ताओं के साथ अखण्ड ज्योति संस्थान के परिजनों तथा शाँतिकुँज के वरिष्ठ प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उन्हें भावभीनी अंतिम विदाई देते हुए सभी के हृदयों से यही पुकार उठ रही थी कि पंडित जी की ज्योतिर्मय आत्मा सदा ही हम सभी को, अपने गायत्री परिजनों को उच्चस्तरीय प्रेरणा व प्रकाश देती रहे। परम गुरुभक्त, गुरुदेव एवं माताजी के अमर सपूत पं. लीलापति शर्मा को शत्-शत् नमन, शत्-शत् नमन।


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