गुरु ही जीवन की पूर्णता है

August 2002

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आध्यात्मिक जीवन में गुरु की आवश्यकता क्यों अनुभव की जाती है? इसे यदि समझना हो, तो उस पुण्य परंपरा पर दृष्टि डालनी होगी, जिसने गुरु-शिष्य के अंतर्संबंधों को इतना सुदृढ़ और सुविकसित किया कि उससे आगे तथा उससे उच्चतर और कोई भूमिका ही शेष न हो। यह गुरुतत्त्व की अनुभूति के लिए शिष्यत्व की पराकाष्ठा है। इस आत्यंतिक विकास के बिना उस महत् तन्त्र की प्रतीति संभव नहीं। यहीं स्थूल गुरु की जरूरत पड़ती है।

जिन मनीषियों ने गुरु-शिष्य संबंधों का आविष्कार किया, उन्हें लौकिक संबंधों की सीमाओं के बारे में स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त थी। वे इसे भलीभाँति जानते थे कि कोई अंधा किसी दूसरे अंधे का मार्गदर्शन नहीं कर सकता। लँगड़ा किसी लँगड़े के चलने में सहायक बने, भला इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है। यह कार्य गुरु का है। जब कोई शिष्य पहली बार किसी उन्नत चेतना के पास आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु पहुँचता है, तो वह अंधा-लँगड़ा दोनों होता है। उसके पास न तो आध्यात्मिक दृष्टि होती है न गति। वह इस संपूर्ण यात्रा का एक अति हेता है और गुरु इसका दूसरा छोर। एक अधम है, तो दूसरा उच्चतम। एक गिरा हुआ देवता है, तो दूसरा चेतना के सर्वोच्च बिंदु पर प्रतिष्ठित देव। जो संसार की संपूर्ण बाधाओं और बंधनों को ध्वस्त कर यहाँ तक पहुँचा हो, वही इस पथ का योग्य उपदेष्टा और सहायक हो सकता है ऐसा व्यक्ति सद्गुरु के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता।

गुरु जीवन की पूर्णता है। वह पवित्रता, शाँति, प्रेम और ज्ञान की साक्षात् प्रतिमूर्ति होता है। वही अंतःकरण के इन गुणों को प्रकट करने के उत्तरदायित्व को वहन करता है। जब कोई व्यक्ति इन विशेषताओं को अपने अंदर विकसित करना चाहता है, तभी उसे गुरु की आवश्यकता महसूस होती है। गुरु अपने लक्ष्य की पवित्रता द्वारा शिष्य को अपने आँतरिक विकास की ओर अभिमुख करता है। इसके लिए वह सर्वप्रथम शिष्य को उसके अंदर स्थित गुरुतत्त्व के प्रति सजग बनाता है। गुरुतत्त्व प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विद्यमान है। इसे ‘आँतरिक गुरु’ भी कहते हैं। यह शिष्य के संपूर्ण जीवन के समस्त क्रियाकलापों का साक्षी है तथा अव्यक्त रूप से उच्चतर आत्मज्ञान की ओर उसका मार्गदर्शन करता है। सर्व साधारण जन अपनी ही उलझनों और समस्याओं से घिरे रहने के कारण उसकी आवाज को सुन-समझ नहीं पाते, जो सुनते हैं, वे उस अव्यक्त तत्व से परिचित नहीं होने के कारण उसे विभ्रम मान बैठते हैं और निरंतर उसके निर्देशों की उपेक्षा करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में गुरु ही इसके प्रति उसे जागरुक और सचेष्ट बनाता है। वह बताता है कि उक्त संकेत उसके अंदर के उच्चतम और पवित्रतम सत्व के हैं, जिसका आयु, स्थान एवं काल से काई संबंध नहीं। वह इन सबसे परे तथा अविनाशी है। मृत्यु के साथ उसका अंत नहीं होता। वह जन्म-जन्माँतर तक साथ चलता है। विकसित अंतर्दृष्टि वाले ही इस अंतर्ध्वनि को ठीक-ठीक ग्रहण करते और उसका परिपालन करते हैं। अविकसित अंतःकरण को तो इसका भान तक नहीं मिलता।

स्थूल गुरु इस गुरुतत्त्व का मूर्तिमान प्रतीक है। कोई भी शिष्य गुरु के आदेशों और आदर्शों को तथा अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को निष्ठापूर्वक अनुपालन करके ही उस महान तत्व को उद्बुद्ध कर सकता है। गुरु भी इसके लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं, पर शिष्य के सहयोग के बिना उनका यह प्रयास फलीभूत नहीं होता और पथरीले जमीन में बीज बोने की तरह वह निरर्थक चला जाता है। उसे जगाने का सबसे सरल उपाय यही है कि हम बाह्य गुरु के प्रति सच्चे और ईमानदार बनें। यदि मन की गहराइयों से हम ऐसा कर सकें, तो फिर यह कर्तव्यनिष्ठा ही हमारी सर्वोत्तम साधना बन जाएगी। फिर यह कर्तव्यनिष्ठा ही हमारी सर्वोत्तम साधना बन जाएगी। फिर किसी भी प्रकार के जप-अनुष्ठान, ध्यान-धारण अथवा योगाभ्यास की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी, पर आदमी अध्यात्म में भी सर्वथा सच्चा कहाँ बन पाता है। वह यहाँ भी उन्हीं तरीकों और तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहता है, जो अपने पूर्ववर्ती जीवन में लोक प्रवंचना हेतु करता रहा था। इससे उसका आध्यात्मिक जागरण और विलंबित होता है, जिससे उबार पाना गुरु के बूते की बात नहीं होती है।

अध्यात्म के पवित्रता सर्वोपरि है। शिष्य यदि उसे अपने अन्तःकरण में धारण कर सके और गुरु के निर्देशानुसार चले, तो इतने भर से ही वह अध्यात्म तत्वज्ञान के उस चरम सत्य की उपलब्धि कर सकता है, जिसे पाने के लिए साधकों को जन्मों तक परिश्रम करना पड़ता है, पर शिष्य को इसे अपना निजी उपार्जन मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। यथार्थ में इसके पीछे भी प्रत्यक्ष गुरु की ही प्रच्छन्न भूमिका होती है।

जब शिष्य के भीतर शक्ति का जागरण होता है, तो वास्तव में यह आँतरिक गुरु का ही उन्नयन है। यही वह केंद्र है, जिसकी खोज जिज्ञासु युगों से करते रहे हैं। बाह्य जगत् में हम जिन सुखों के पीछे भागते रहे हैं, वे भ्रम के अलावा और कुछ भी नहीं। इसके विपरीत हमारा आँतरिक गुरु परमानंद का अनंत स्त्रोत है। यथार्थ में उसकी अचेतन खोज के क्रम में ही हम भौतिक जीवन से सुख की अपेक्षा करने लगते हैं। उसके संपर्क से होने वाली अनुभूति के प्रति हर कोई अवचेतन रूप से सजग है, किंतु अपनी अज्ञानता और माया के कारण हम बाह्य जगत् में उसे ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं। वहाँ उसे हम पाते भी हैं, किंतु वह तो अंदर के आनंद का विस्तार है, भ्रमवश हम उसे भौतिक वस्तु से संबद्ध मान बैठते हैं और इसलिए उस अनुभव को पुनः प्राप्त करने के लिए उस वस्तु का पीछा करते हैं। इस बार आदमी किसी कामना से प्रेरित होता है, इस कारण उसका बोध प्रतिबंधित हो जाता है और उसकी अनुभूति पहले जैसी गहरी एवं आनंददायी नहीं होती। इससे वह निराश हो जाता है और उससे उबरने के लिए अन्यत्र आनंद की खोज करने लगता है। यह सिलसिला तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी भेंट सत्य का साक्षात्कार कर चुके किसी महापुरुष से न हो जाए। इस मिलन से उसके अंदर पुनः वही प्रक्रिया शुरू हो जाती है, लेकिन गुरु चूँकि आँतरिक गुरु का ही प्रतिरूप होता है, अतः यह अनुभव यहाँ अधिक स्थायी होता है। गुरु के प्रति शिष्य का बाह्य अवबोधन आँतरिक गुरु के प्रति उसके बोध से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होता है। यदि गुरु से शिष्य का संबंध वास्तविक और गहरा है, तो इसके साथ ही शिष्य अपने आँतरिक गुरुतत्त्व से संबंध विकसित करने में भी सक्षम होता है। दोनों अनुभव समानाँतर चलते हैं और उनमें सह अस्तित्व होता है। बाह्य गुरु के संबंध विकसित होने के साथ-साथ आँतरिक गुरु के शिष्य का संपर्क सजीव, साकार ओर सुस्पष्ट होने लगता है। इस प्रकार गुरुतत्त्व प्रकट होने लगता है।

प्रत्येक पदार्थ में शक्ति निहित है, किंतु उसकी प्राकृतिक अवस्था में हर कोई उसके अंदर की शक्ति को ढूंढ़कर उसका उपयोग नहीं कर सकता। एक निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही उस पदार्थ से शक्ति मुक्त होगी, तभी उसे एकत्रित कर उपयोग में लाया जा सकता है। यह प्रक्रिया एक वैज्ञानिक ही बता सकता है। अध्यात्म क्षेत्र में यह भूमिका समर्थ गुरु निभाता है। उसके मार्गदर्शन में ही शिष्य की अंतःऊर्जा का आविर्भाव और विकास होता है। अनाड़ी और अज्ञानी शिष्य यदि अपने बूते ऐसा करना चाहे, तो उसे असफलता के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ न लगेगा।

गुरु-शिष्य परंपरा में ‘शक्तिपात’ शक्ति हस्ताँतरण की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। ऐसा समझा जाता है कि योग्य गुरु अपनी उपार्जित शक्ति का एक अंश शिष्य को देकर उसे समर्थ बना देने में सक्षम होते हैं, लेकिन आधार समर्थ होने पर ही यह सब संभव है। कमजोर आधार अंशदान में मिली वह शक्ति बरदाश्त न कर सकेंगे और उलटे अपना अहित कर बैठेंगे, इसलिए गुरु उन्हें इस प्रक्रिया द्वारा शक्ति प्रदान करेंगे, ऐसी आशा अपात्र शिष्यों को नहीं करनी चाहिए। उनके लिए सामर्थ्यवान बनने का सबसे सरल तरीका यही है कि वे गुरुचरणों में आत्मसमर्पण कर दें और उनकी इच्छा में ही अपनी इच्छा मानें एवं उनके संतोष में अपना संतोष। शिष्य जब अपने आपे को संपूर्ण रूप से गुरु में विसर्जित कर देता है, तो वह महसूस करता है कि एक अज्ञात शक्ति निरंतर उसका सहयोग कर रही है, न सिर्फ भौतिक क्षेत्र में, वरन् आत्मिक प्रगति में भी समान रूप से। यह स्थिति तब भी बनी रहती है, जब गुरु अपने भौतिक शरीर में नहीं होते, कारण कि वे अपने सूक्ष्म शरीरों को तप-साधना से इतने समर्थ बना चुके होते हैं कि स्थूल देह के न रहने पर भी शिष्यों को सहयोग-संरक्षण मिलता रह सके। जो निष्ठावान शिष्य है, जिनके लिए गुरु कार्य ही सर्वोपरि है, ऐसे शिष्यों के प्रति गुरु भी अहैतुकी कृपा करते हैं। उन्हें अपना संरक्षण-मार्गदर्शन ही नहीं देते, अपितु आत्मोत्थान की सुनिश्चित गारंटी भी प्रदान करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे इस संसार में अब हैं या नहीं, कारण कि आत्मज्ञान प्राप्त गुरु कभी मरते नहीं, उनका सिर्फ परमात्मा में विलय होता है, लेकिन अभिन्न हृदय शिष्यों की आत्मिक प्रगति तक वे प्रतीक्षा करते रहते हैं।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनुचित न होगा कि आखिर ये अभिन्न हृदय शिष्य हैं कौन? क्या वे, उनसे स्नेह का दंभ भरते हैं या वे जो उनके आदर्शों का बखान मात्र करते हैं? अथवा वे जो हर वक्त उनके समक्ष दीन-हीन बने रहते हैं? निश्चय ही इनमें से कोई भी नहीं। उनके नाप-तौल का पैमाना दूसरा है। उनकी कसौटी में ऐसे जन कभी भी खरे नहीं उतरते। वे यह देखते हैं कि उनके कार्यों को कौन कितनी तत्परता और निष्ठापूर्वक करता है और कौन उसकी खानापूर्ति भर करता है। उनकी दृष्टि में वह शिष्य महान है, जो उनके आदर्शों पर चलकर निरंतर उनके कार्यों को अग्रगामी बनाने में संलग्न रहता है। ऐसे ही शिष्य उनके अंतरंग होते हैं। इन्हीं पर उनका विशेष अनुग्रह बरसता है।

हर व्यक्ति के अंदर शक्ति का एक स्त्रोत है, जो स्वयं को प्रकट करने हेतु फूटना चाहता है। इस शक्ति के एक अंश की अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप ही हम सोचते, अनुभव करते एवं कार्यरत होते हैं, किंतु इसके अतिरिक्त इसका एक बड़ा भाग सुषुप्त स्थिति में पड़ा रहता है, जो हमारे प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया में स्वयं को प्रकट करने लगता है। यह उच्चतर शक्ति है, जो मनुष्य की संपूर्ण अंतर्निहित शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है।

जब यह शक्ति जाग्रत् होकर एक स्वरूप लेती है, तो इसकी तुलना एक बाँध की दीवार के टूटने से की जा सकती है, जिसका सारा जल तीव्र वेग से बहता हुआ मार्ग में आने वाले अवरोधों को तोड़ता-फोड़ता चलता है। रास्ता साफ होने से संपूर्ण जलराशि बिना किसी नुकसान के शाँतिपूर्वक प्रवाहित हो जाती है।

लगभग ऐसी ही स्थिति मनुष्य के अंदर शक्ति के स्वाभाविक एकत्रीकरण, स्थानाँतरण एवं विस्फोट के समय घटित होती है। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि यह शक्ति किसी भी व्यक्ति में किसी भी समय जाग्रत् होकर प्रकट हो सकती है। मनोभूमि के स्वच्छ होने पर ऐसे समय आनंद की अनुभूति होती है, पर उसके मलिन और बुरे संस्कारों से युक्त होने पर बहुत ही कष्ट होता है। यह कष्ट बीमारी, मानसिक वेदना, निराशा अथवा उदासी के रूप में प्रकट हो सकता है।

गुरु इस प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। वहाँ शक्ति चक्र का विघटन उद्दाम प्रवाह की तरह न होकर संतुलित ढंग से होता है, जिससे शिष्य को किसी प्रकार की पीड़ा का आभास नहीं होता और यदि होता है, तो इतना स्वल्प, जिसे वह आसानी से हँसते-हँसते झेल सके। इसके साथ ही उसके अंदर का रूपांतरण आरंभ हो जाता है और नए तत्व नए ढंग से पुनर्गठित होने लगते हैं। इस प्रकार शिष्य का विकास सुनियोजित ढंग से शनैः-शनैः होने लगता है।

सक्षम गुरु न हो, तो यह विकास-यात्रा बाधित होती और कंटकाकीर्ण बन जाती है। अतएव अध्यात्म पथ के प्रत्येक पथिक को एक ऐसे अनुभवी मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है, जो उसके प्रगति-प्रवाह को निर्बाध रूप से बनाए रख सकने में सहायक हो सके और अंततः उसके भीतर के गुरुतत्त्व से उसका साक्षात्कार करा सके। यह गुरुतत्त्व वास्तव में उसके विकसित आत्मतत्व के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।

गुरु शिष्य संबंध निष्ठामूलक है। धीरे-धीरे वही श्रद्धा में रूपांतरित हो जाता है। जब वह पूर्ण प्रगाढ़ होता है, तो संपूर्ण गुरुतत्त्व शिष्य में संचरित हो जाता है। फिर वह साधारण नहीं, असाधारण बन जाता है। अतएव गुरु-शिष्य परंपरा में अंतर्संबंधों के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। गुरुपर्व (व्यास पूर्णिमा) से लेकर श्रावणीपर्व तक शिष्य द्वारा इसी संबंध की समीक्षा की जाती है और देखा जाता है कि हम अपने गुरु से और प्रकाराँतर से गुरुतत्त्व से कितने अधिक सन्निकट हुए और सघनता से जुड़े। यदि इसमें सकारात्मक लक्षण दीख पड़े, तो समझना चाहिए कि गुरुतत्त्व की प्राप्ति संबंधी प्रगति-यात्रा में हम ठीक-ठीक आगे बढ़ रहे हैं और लक्ष्य उपलब्धि की दिशा में निरंतर चल रहे हैं।


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