नरक और कहीं नहीं है, यह महत्वाकाँक्षाओं के इर्द-गिर्द घूमने वाले जीवन में है। महत्वाकाँक्षाओं के ज्वर से ही जीवन विषाक्त होता है। मनुष्य जिन बड़ी से बड़ी बीमारियों और विक्षिप्तताओं से परिचित है, महत्वाकाँक्षा से बड़ी बीमारी इनमें से कोई भी नहीं है। जो व्यक्ति महत्वाकाँक्षाओं की हवाओं से उद्वेलित हैं, शान्ति, संगीत और आनन्द उसके भाग्य में नहीं हो सकते। ये तो स्वयं में स्थित होने का फल है। आत्मस्थ होने के परिणाम हैं। जो स्वयं में नहीं हैं, वही अस्वस्थ है। स्वयं में स्थित होना ही तो स्वस्थ होना है।
किसी समय महर्षि रमण से पश्चिमी विचारक पॉल ब्रान्टन ने पूछा था- ‘इस महत्वाकाँक्षा की जड़ क्या है?’ महर्षि हँसकर बोले, हीनता का भाव। अभाव का बोध। बात थोड़ी अटपटी सी लगती है। हीनता का भाव और महत्वाकांक्षी चेतना परस्पर विरोधी दिखाई पड़ते हैं। लेकिन वे वस्तुतः विरोधी हैं नहीं। बल्कि एक ही भावदशा के दो छोर हैं। एक छोर से जो हीनता है, वही दूसरे छोर से महत्वाकाँक्षा है। हीनता स्वयं से छुटकारा पाने की कोशिश में महत्वाकाँक्षा बन जाती है। इसे सुसज्जित हीनता कहना थोड़ा भी गलत नहीं है। हालाँकि बहुमूल्य से बहुमूल्य साज-सज्जा के बावजूद न तो वह मिटती है और न नष्ट होती है। थोड़ी देर के लिए यह हो सकता है कि दूसरोँ की दृष्टि से वह छिप जाए, लेकिन अपने-आप को लगातार उसके दर्शन होते रहते हैं।
कपड़ों में छिपकर व्यक्ति औरों के लिए नग्न नहीं रह जाता, पर अपने आप के सामने उसकी नग्नता जस की तस होती है। यही वजह है कि दूसरों की आँखों के सामने जिनकी महत्वाकाँक्षाओं की सफलताएँ चकाचौंध पैदा करती रहती है, वे अपने भीतर हमेशा किन्हीं और बड़ी सफलताओं को पाने के लिए चिन्ताग्रस्त बने रहते हैं। उनकी हीनता का आन्तरिक भाव किसी बड़ी से बड़ी योजना के पूरा होने- किसी चकाचौंध वाली सफलता के मिलने के बावजूद नष्ट नहीं होता है। हर नयी सफलता उनके लिए किसी और बड़ी सफलता की चाहत की चिन्ता और बेचैनी लेकर आती है। इस तरह जिन सफलताओं को उन्होंने समाधान जाना था, वे और नई समस्याओं की जन्मदात्री भर सिद्ध होती है। यह ठीक भी है, सुविख्यात विचारक जे. एमरी ने अपनी पुस्तक ‘एट द माइन्डस लिमिट’ में कहा है कि जब भी किसी जीवन समस्या को गलत ढंग से पकड़ा जाता है, तो परिणाम यही होता है। समस्या के समाधान समस्या से बड़ी समस्याएँ बनकर आते हैं।
यह बात याद रखने की है कि किसी भी बीमारी को छिपाने से उससे कभी भी छुटकारा नहीं मिलता। इस तरह रोग मिटते नहीं, बल्कि बढ़ा करते हैं। हीन भाव की ग्रन्थि से पीड़ित चित उसे छिपाने और भूलने की कोशिश में महत्वाकाँक्षा से भर जाता है। इस त्वरा में स्वयं को भूलना आसान भी है। फिर यह महत्वाकाँक्षा संसार की हो या अध्यात्म की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी भी तरह से इसका नशा गहरी आत्मविस्मृति लाता है। हालाँकि नशे के बारे में एक बड़ा अनुभूत सत्य है कि व्यक्ति जिस नशे या नशे की जिस मात्रा का आदी हो जाता है, फिर उससे उसको मादकता नहीं आती। फिर तो उसको नशों की ज्यादा-ज्यादा मात्राएँ चाहिए, कुछ और नए-नए नशे चाहिए। इसीलिए महत्वाकाँक्षाएँ बढ़ती जाती है। उनका कोई अन्त नहीं आता है। उनका अथ तो है, पर इति नहीं है।
इस सम्बन्ध में एक सच्चाई और भी है। व्यक्ति जब अपनी असलियत से भागना चाहता है, तो उसे किसी न किसी रूप में महत्वाकाँक्षा का बुखार जकड़ लेता है। अपने आप से अन्य होने की चाहत में वह स्वयं जैसा है, उसे ढाँकता है और भूलता है। लेकिन किसी तथ्य का ढंक जाना और उससे मुक्त हो जाना एक बात नहीं है। हीनता की विस्मृति, हीनता का विसर्जन नहीं है। यह तो बहुत अबुद्धिपूर्ण प्रक्रिया है। इसीलिए ज्यों-ज्यों दवा की जाती है, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता है। महत्वाकाँक्षी मन की प्रत्येक सफलता आत्मघाती है। क्योंकि वह अग्नि में घृत का काम करती है। सफलता तो आ जाती है, पर हीनता नहीं मिटती। इसीलिए और बड़ी सफलताएँ जरूरी लगने लगती है। मूलतः यह हीनता का निरन्तर बढ़ते जाना है।
विश्व का ज्यादा तर इतिहास ऐसे ही बीमार लोगों से भरा पड़ा है। तैमूल-सिकन्दर या हिटलर और भला क्या है? न न इन बेचारों पर हँसिए नहीं। क्योंकि बीमारों पर हँसना शिष्टता नहीं है। एक और वजह से भी इन पर हँसना ठीक नहीं है। क्योंकि थोड़े-बहुत रूप में इस बीमारी के कीटाणु हममें भी तो हैं। बात किसी एक की नहीं है। प्रायः सभी इस रोग से संक्रमित हैं। यही कारण है कि यह महारोग जल्दी किसी को नजर नहीं आ पाता। लेकिन नजर न आने पर भी रोग है तो मृत्यु का अनुचर ही। महत्वाकाँक्षा के साथ भी कुछ ऐसा ही है। यह विध्वंस है, हिंसा है, रुग्ण चित से निकली घृणा है, ईर्ष्या है। मनुष्य-मनुष्य के बीच साँसारिक संघर्ष यही तो है। युद्ध इसी का व्यापक रूप है। यह साँसारिक होती है तो इससे परहिंसा जन्म लेती है। यदि यह आध्यात्मिक है तो आत्महिंसा पर उतारू हो जाती है। अध्यात्म पथ पर चलने वाले भी यह कम ही जानते हैं कि अध्यात्म कहीं कुछ पाने की लालसा नहीं- बल्कि स्वयं को सही ढंग से जानने-पहचानने का विज्ञान है।
यह सृजनात्मक चेतना में भी सम्भव है। और केवल वही चेतनाएँ सृजनात्मक हो सकती है, जो महत्वाकाँक्षा से मुक्त हैं। सृजनात्मकता केवल स्वस्थ और शान्त चित में ही स्फूर्त हो सकती है। स्वस्थ चित स्वयं में स्थित होता है। कुछ और होने की दौड़ उसमें नहीं होती। कुछ और होने की दौड़ के धुएँ में व्यक्ति उसे नहीं जान पाता है, जो वह स्वयं है। और स्वयं को न जानना ही वह भूल और केन्द्रीय अभाव है, जिससे सारी हीनताओं का आविर्भाव होता है। आत्मज्ञानी के अतिरिक्त इस अभाव से और कोई मुक्त नहीं है। और उसके लिए चित से सभी महत्वाकाँक्षाओं की विदाई अत्यन्त आवश्यक है। इनके रहते तो जीवन की दशा और दिशा औंधी और उलटी ही रहेगी।
मनुष्य जब स्वयं में किसी भी तरह की हीनता पाकर उससे भागने लगता है तो उसकी दिशा अपने-आप से विपरीत हो जाती है। वह इस विपरीत दिशा में तेजी से दौड़ने लगता है। बस यहीं भूल हो जाती है। मनोवैज्ञानिक एच. गिब्सन ने अपने शोध पत्र ‘एम्बीशन : एन इन्ट्रोगेशन टु मेन्टल हेल्थ’ में इस भूल का खुलासा किया है। उनका निष्कर्ष है कि सब हीनताएँ बहुत गहरे में आन्तरिक अभाव की सूचनाओं से ज्यादा नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति ही आन्तरिक अभाव में है। एक रिक्तता प्रत्येक को ही अनुभव होती है। इस आन्तरिक रिक्तता को ही बाह्य उपलब्धियों से भरने की कोशिश चलती रहती है।
भला आंतरिक रिक्तता के गड्ढे को बाहरी उपलब्धियों से भरना किस तरह से संभव है, क्योंकि जो बाह्य है वह भला आन्तरिक कमी को किस भाँति पूरा करेगा? और फिर सभी कुछ तो बाह्य है। धन, पद, प्रभुता और भी ऐसी बहुत चीजें बाहरी ही हैं। सवाल पूछा जा सकता है, तब आन्तरिक क्या है? उस अभाव, उस रिक्तता, शून्यता को छोड़कर कुछ भी आन्तरिक नहीं है। इस शून्यता से भागना स्वयं से भागना है। उससे पलायन स्वयं की सत्ता से पलायन है। उससे भागने में नहीं, वरन् उसमें जीने और जागने में ही कल्याण है। जो व्यक्ति उसमें जीने और जागने का साहस करता है, उसके समक्ष वह शून्य ही पूर्ण बन जाता है। उसके लिए वह रिक्तता ही परम मुक्ति सिद्ध होती है। उस न कुछ में ही सब कुछ है। उस शून्य में ही सत्ता है। वह सत्ता ही परमात्मा है, जिसकी एक झलक में ही सभी अभाव पूरे हो जाते हैं, सभी हीनताएँ विलीन हो जाती है।