गुरुसत्ता के महाप्रयाण के बाद मातृसत्ता का संदेश

August 2002

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(परमवंदनीया माताजी के यह वचनामृत गुरुसत्ता के महाप्रयाण के चौदह दिन बाद के प्रवचन से लिए गए हैं)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

बच्चों, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यह मिशन किसी तेजी से बढ़ता हुआ चला जा रहा है। उसमें आप लोगों का क्या योगदान होना चाहिए? आप लोगों का जो योगदान होना चाहिए, वह है हिम्मत का, साहस का। बुज़दिली का नहीं, रोने और चिल्लाने का नहीं होना चाहिए। भावना और भावुकता में अंतर होता है। भावुकता हमें बुज़दिली सिखाती है, भावुकता हमें कायरता सिखाती है और भावना? भावना हमें यह सिखाती है कि अपने इष्ट के प्रति जो हमारा समर्पण है, उसके लिए हमें क्या करना चाहिए। आपको याद होगा कि आप जब अपने घर से आए थे, आपकी क्या भावनाएँ थीं? न कि हम गुरुजी के लिए, गुरुजी के कार्य के लिए तथा मिशन के लिए, समाज-सेवा के लिए, राष्ट्र के उत्थान के लिए हम यह संकल्प लेते हैं कि हम आजीवन यह कार्य करते चले जाएँगे। यही था न?

बेटे, मैं एक और बात यह कह रही हूँ कि पूर्व में आपकी जो भावनाएँ थीं, वही विद्यमान रहनी चाहिए। जब हम उनमें मिल गए और तो हममें मिल गए, तो एकाकार हो गए। एकाकार हो गए, तो अब अलग कहाँ रहे। समय-समय पर जो हमारे अंदर कुसंस्कार उदय होते रहते हैं, उन कुसंस्कारों को तो हमें हटाना चाहिए और सद्संस्कारों का उदय होना चाहिए। हमारा हर कार्यकर्त्ता शक्तिशाली दिखाई पड़ना चाहिए, हनुमान जैसा, अर्जुन जैसा, एकलव्य जैसा, शिवाजी जैसा। उसका चिंतन और चरित्र दोनों ही उच्चस्तरीय होने चाहिए। जो चिंतन में होता है, वही चरित्र में भी होता है और जो चरित्र में होता है, वही व्यवहार में भी होता है। यह व्यवहार में होता है, तो स्वतः ही उसी प्रकार का वातावरण बना लिया जाता है। वह बाद में अपने आप बनता हुआ चला जाता है।

गुरुजी कैसे बनो

बेटे, गुरुजी ने ऐसा ही तो किया था न। बाल्यकाल से ही उन्होंने अपने चिंतन को इस तरीके से ढाला कि एक स्वयं सेवक की मनोवृत्ति उनके अंदर हमेशा से विद्यमान रही। जहाँ कहीं भी उन्होंने कार्य किया, लोग उन्हें सराहते रहे। सैनिक प्रेम में जब काम करते थे, तो जो उनसे बड़े थे, वे सबसे यही कहते थे कि कहिए साहब, मैं बाजार जा रहा हूँ, कोई आपका काम है क्या? उनने कहा, हमारी बीबी के बच्चा होने वाला है। अच्छा दायी का प्रबंध करता हूँ और कोई बात? हमारे पास चारपायी नहीं है। अच्छा, चारपायी का प्रबंध करते हैं। कहने का मतलब मेरा यह है कि उनमें जो स्वयंसेवी वृत्ति थी, वही वृत्ति पनपती हुई चली आई। उनके जीवन में शुरू से ही करुणा, त्याग और संवेदना विद्यमान रही। मैंने एक घटना उस रोग सुनाई थी, शायद सभी कार्यकर्ता थे।

बेटे मैंने आपको एक कबूतर की घटना सुनाई थी और एक उस हरिजन महिला की सुनाई थी, जिसमें कि उसके कीड़े पड़ गए थे और उन्होंने घाव धोया और मरहम लगाया। बेटे, चाहे तो रामकृष्ण परमहंस से जोड़ लें आप, चाहे अन्य किसी से जोड़ लें। जो भी ऋषि और संत-सुधारक हुए हैं, उनके अंदर जनमानस के लिए एक करुणा उदय होती है। करुणा जब आ जाती है सारे विश्वकल्याण के लिए, तो वह तिल-तिल करके अपने को समर्पित करता चला जाता है। जिसने अपने को समर्पित कर दिया है, श्रद्धा तो उसको मिलने ही वाली है। बनावटीपन में नहीं, बनावटीपन तो थोड़े दिन में खुल जाता है। फिर सब लोग छिटकते हुए चले जाते हैं। बनावटीपन यदि नहीं हैं, तो फिर आपको सहयोग मिलना ही चाहिए। जनश्रद्धा मिलनी चाहिए, मदद मिलनी चाहिए। आपने देखा भी है कि हमारे छोटे-छोटे, जरा-जरा से बच्चे, नाचीज बच्चे जब बाहर जाते हैं, तो जो सत्कार होता है, वो किसका होता है? आपका। आपका नहीं होता, यह मानकर चलना। जिसके अंदर यह अहंकार विद्यमान हो कि यह हमारा पुरुषार्थ है। यह हमारा नहीं बेटे, उस महापुरुष का है, जिसने सारा जीवन लोकमंगल के लिए, राष्ट्र के उत्थान के लिए लगा दिया। अंतिम क्षणों में भी उन्होंने एक ही बात कही कि हमें विश्वभर में विचार क्राँति का विस्तार करना है। यह यों ही थोड़े हो जाएगा।

संकल्प पूरे होंगे, उनके निमित्त जीकर

बेटे, जो संकल्प लिए गए हैं, ये यों ही पूरे हो जाएँगे क्या? ये यों ही पूरे नहीं होंगे। आजकल मुझे रात को नींद नहीं आती। सोचती हूँ कि ये जो संकल्प लिए गए हैं, वे अधूरे तो रह नहीं सकते, क्योंकि जो रग-रग में समाया है, काम तो उन्हीं इष्टदेव का है न। काम उनका है, पर काया अपनी है। इसमें कोई शक नहीं है। शरीर अपना है और बल उनका है। जब हमारे अंदर यह हिम्मत आ जाएगी और यह साहस आ जाएगा कि देने वाला तो दूसरा है, करने वाले हम हैं, फिर कोई भी काम अधूरा नहीं रहेगा। जिस दिन कहीं यह आ गया मैं-मैं-मैं-मैं-मैं क्या होती है? आपको मालूम होना चाहिए कि गुरुजी ने यह शब्द कभी नहीं कहे। यह शब्द कहे होंगे कि बेटा, तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना करेंगे, सब ठीक हो जाएगा, हाँ ठीक हो जाएगा। वे कष्टों को लेते भी रहे, पर उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं करूंगा। मैं शब्द उन्होंने कभी नहीं कहा।

एक दफा एक कार्यकर्ता अपने विद्यार्थी को लाया और बोला, गुरुजी, इसको भूत आ रहा है। भूत अच्छा, कैसा भूत? अब हम बढ़ावा देते हैं, तो लोगों की नजरों में गिर जाते हैं। उन्होंने क्या किया? उन्होंने कहा, अच्छा अभी देखता हूँ तेरा भूत। दो डंडे तुझमें लगाऊँगा और दस डंडे इसमें लगाऊँगा। पढ़ा-लिखा होकर, प्रोफेसर होकर और तू ये कह रहा है कि भूत आ रहा है। इसी तरह बहुत दिनों की शुरू-शुरू की बात है। हमारे यहाँ एक लड़की थी। अब वह सो गई, लेट गई। हमारी और छोरियाँ डर गई। बोलीं माताजी, इस को तो भूत आ गया। यह तो वहाँ हॉस्टल में रहती थी। मैंने कहा, अभी उतारती हूँ इसका भूत। मैंने रोल लेकर कहा, ऐ उठती है कि नहीं। या तो तू उठ, नहीं तो मैं एक जमाती हूँ तेरी कमर पर। अब वह छोरी झट से उठ बैठी। भूत हो तो ना। कहीं भूत थोड़े ही होता है। एक तो बनावटीपन होता है, दूसरे जो बढ़ावा देते रहते हैं, उनको बल मिलता रहता है।

बेटे गुरुजी ने कभी भी यह नहीं कहा कि आज हमको यह लगा, आज हमसे यह कहा गया। हाँ, उन्होंने यह जरूर कहा कि संवेदना के रूप में हमें एक ऐसा प्रकाश मिलता हुआ चला जाता है कि जो संकल्प हम करते हैं, वे पूरे होते हुए चले जाते हैं। हमारे गुरुदेव ने हमेशा कहा, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि आज यह अनुभूति हुई, आज वह हुई। ऐसी बात अगर आप किसी के अंदर हो तो बेटे, उसे तो अपने मन से निकाल ही देना। अनुभूति जो होती है वह कहने की नहीं होती, वह संवेदना की होती है। कल-परसों की बात है। मैं स्नान कर रही थी। स्नान करते समय मुझे जोर से ऐसी आवाज आई शैलो। कोई बात होती थी तो वे मुझे शैलो कह करके आवाज देते थे। मैं समझ गई कि कुछ कह रहे हैं। मैं तिलमिला गई। जब मैं बाहर आई तो समझ गई कि वह क्या कहना चाहते हैं। अब भी मुझे स्वप्न में, जाग्रत् अवस्था में भी ऐसा प्रतीत होता है कि वे मेरे दायें-बायें हैं और जब मैं कभी डगमगाती हूँ तो मेरा हाथ पकड़ते हैं और कहते हैं कि चलो चलें। मैंने शपथ ली है और उन्होंने कहा है चलो, तो आगे तो बढ़ना ही है न।

बेटे, वे कह गए हैं कि हमने यह जो वृक्ष लगाया है कहीं ऐसा न हो कि सूख जाए। सो हिम्मत के साथ और दिलेरी के साथ आँसू पीना है और आगे बढ़ना है। हर बच्चे को आगे बढ़ाना है। तुम्हारा कोई दुःख, कष्ट-कठिनाई होगी बेटे, उसे हम जी-जान से निवारण करेंगे। आध्यात्मिक दृष्टि से भी निवारण करेंगे, शक्ति से भी निवारण करेंगे और औपचारिक दृष्टि से भी निवारण करेंगे। तुम हमारे बालक हो। हम तुम्हारे लिए जान पर खेल जाएँगे, इसमें कोई दो राय नहीं हैं। तुम्हारे अंदर कोई दोष-दुर्गुण होंगे, तो उन्हें हटाने के लिए में रिआयत नहीं करूंगी। बेटे, गुरुजी ने इस मामले में कभी रिआयत नहीं की। अब तक तो मैं रिआयत करती आई थी, पर अब नहीं करूंगी। क्यों नहीं करूंगी? क्योंकि उन्होंने कह दिया है कि मैं तुम्हारे अंदर समाया हुआ हूँ। जब मेरे अंदर पूर्ण समाए हैं तो बेटे, मैं माताजी का और गुरुजी का दोनों ही का रोल अदा करूंगी। दोनों रोल मुझे इसलिए करने पड़ेंगे, ताकि मिशन में काई गड़बड़ी न आने पाए। गड़बड़ी का जहाँ कहीं भी मुझे बीज मालूम पड़ेगा, वहाँ उस बीज को मैं नाबूद कर दूँगी। बिलकुल कर दूँगी, बगैर किसी मोह के कर दूँगी, चाहे कोई भी क्यों न हो।

ब्राह्मण बीज चाहिए

मुझे तो वह बीज चाहिए, जो कि ब्राह्मीय हो अर्थात् ब्राह्मण वृत्ति उनके अंदर पनपे और ब्राह्मण जैसा जीवन जिए। यही तो गुरुजी का उद्देश्य था बेटे। यहाँ बैठे हुए तुम सब ब्राह्मण ही हो। तुम्हारे लिए फिजूल का कहाँ है? तुम ब्राह्मण ही हो, पर कहीं भी चिंतन गड़बड़ाता हो, तो उस चिंतन को तुम साफ करना। आगे आने वाले समय में कितना काम करना है। मैं देख चुकी हूँ तुम्हारे साहस को। उस समय हमारे कुछ बच्चे बाहर गए थे। मुझे भीतर से वेदन हुई कि इन बच्चों को ऐसा लगा होगा कि हमने गुरुजी के अंतिम दर्शन भी नहीं किए। बेटे, जो बच्चे यहाँ नहीं थे, उनकी वेदना को मैं जानती हूँ, क्योंकि मैं वेदना से ग्रसित हूँ। इसलिए तुम्हारा दर्द समझती हूँ, लेकिन तुमने जो कार्य किया, उस कार्य में ही गुरुजी के दर्शन थे और गुरुजी हजार आँखों से, लाख आँखों से तुम्हें सराह रहे थे और आशीर्वाद दे रहे थे कि हमारे बच्चे कितने साहसी हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी जिन्होंने मनोबल बनाए रखा।

बेटे, हमें मनोबल बनाना है अपना और दूसरों का। स्वयं उठाना है और दूसरों को उठाना है। कहीं भी चिंतन न बिगड़े। क्या पूछना है? आपस में राजी-खुशी पूछो। एक-दूसरे के दुःख-दर्द में काम न आएँगे, तो और कौन आएगा। मैं तो यहाँ बैठी रहती हूँ, मुझसे कोई कहने आएगा, तभी तो मुझे मालूम पड़ेगा। मैं तुम्हारी माँ हूँ। कोई दुःख-कष्ट हो, फौरन मेरे पास आओ। तुम्हारे कष्ट का निवारण होगा। आपस में हो सकता हो, तो आपस में करना। सबसे मिलना-जुलना और सबके दुःख-कष्ट में शामिल होना, लेकिन एक कार्य में शामिल मत होना। कौन से में? चुगली वाले कार्य में। इससे बहुत ज्यादा नफरत है हमें। गुरुजी कभी भी किसी की ऐसी बात तो सुनते ही नहीं थे। कभी किसी का पत्र आता था और मैं कहती थी साहब, यह पत्र आया है, जरा मैं सुना दूँ क्या आपको। क्या है इसमें लाओ, उठाया और रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। उन्होंने उस पत्र को कभी महत्व नहीं दिया, चाहे किसी कार्यकर्त्ता ने दिया हो, चाहे बाहर की शाखाओं की कोई शिकायत ऐसी हो, जो आपस में प्रतिद्वंद्विता की हो, एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाली बात हो।

कार्य के लिए तो कंपटीशन होना चाहिए। कौन-सा कंपटीशन? आलस्य और प्रमाद का नहीं, वरन् उसका जो गुरुजी कहते थे कि आठ घंटे नौकर काम करता है, स्वयंसेवक बारह घंटे काम करता है और मालिक सोलह घंटे काम करता है। तुम सब जितने बैठे मालिक हो। एकोएक मालिक हो। सीनियर-जूनियर का यहाँ कोई चक्कर नहीं है। इतना तो है कि भाई जो पहले आए हैं, उनका अनुभव है। अनुभव के द्वारा काम तो हमें उनसे ही कराना है। अब प्रत्येक को थोड़े ही हम बुलाएँगे। हमने एक यूनिट बना रखी है, वह संचालन करेगी, बताएगी आप लोगों को। हमारे लिए भावनाओं की दृष्टि से चाहे बेटा गरीब हो, अमीर हो, छोटा हो, बड़ा हो, सब बच्चे एक से हैं। माँ के लिए बच्चा चाहे प्रोफेसर हो और चाहे रिक्शा चलाता हो, दोनों के लिए माँ की ममता एक–सी होती है। माँ ऐसी नहीं होती कि उसका दुलार किसी एक विशेष होता हो और किसी के लिए नहीं होता हो, फिर वह माँ ही कैसी है? ठीक है, जो नजदीक आते रहते हैं, बार-बार जिनको बुलाते रहते हैं, कार्य के लिए तो बेटा, बुलाया ही जाएगा, कहा भी जाएगा। अब एक-एक करके पाँच सौ आदमियों को कहाँ तक हम बुलाएँगे, दूसरे भी तो कार्य हैं। जो जिससे संबंधित है, कार्य तो उन्हीं से कराएँगे। पत्र व्यवहार से संबंध है, तो भी हमें संतोष तब होगा, जब कुछ आउटपुट निकलेगा। रिस्पोंस कुछ भी न निकले और दिखा दें साहब, ये दो चिट्ठी लिखी हैं तो धिक्कार नहीं है। तुम्हारे लिए धिक्कार है और हमारे लिए उससे भी ज्यादा धिक्कार है। क्यों? मिशन का खाते हो, दबाव सारा मिशन के ऊपर पड़ता है और काम एक घंटे का भी नहीं होता। ये सड़ना और सड़ाना, गलाना और गलाना छोड़ना चाहिए और स्फूर्ति बनाए रखनी चाहिए।

अपनी कमियाँ निकलें, पूर्ण बनें

बेटे, अब तक मान लो तुममें कुछ कमियाँ थीं, लेकिन अब आगे आने वाले समय में नहीं होनी चाहिए। आगे बहुत जिम्मेदारियाँ सँभालनी हैं। इतनी जिम्मेदारियाँ सँभालनी है कि बेटे क्या कहूँ? जो लेखन में हैं, वे भी अपना पुरुषार्थ दिखाएँ। कार्य की दृष्टि से भी, भावनाओं की दृष्टि से भी कि बस आनंद आ जाए। बेटे गुरुजी एक-एक दिन में मैं समझती हूँ तीन-तीन, चार-चार लेख लिखते थे। वैसे तो उन्हें कभी कुछ होता नहीं था। एक बार उनके पाँव में चोट लग गई। हुआ यों कि टट्टर में बंदर आ गए। उन्हें भगाने के चक्कर में उनका पैर टट्टर में फँस गया। पैर सूज गया, थोड़ा पक भी गया और टेंपरेचर भी होने लगा। मैं आपको बताती हूँ कि हमारे यहाँ मूँज की चारपाई थी। उस चारपाई में गड्ढा हो गया। क्यों? बैठे-बैठे। वे नित्यप्रति बैठ करके इतना लेखन करते थे कि मैं हैरान रह गई। मैंने कहा, जब कष्ट में इतना लिख सकते हो तो बगैर कष्ट में कितना लिखेंगे। वे अपने सारे शरीर को भुला देते थे, इतना कार्य करते थे। तुम सब उनके शिष्य हो, उनके बालक हो, हमारे बालक हो, तो तुम्हें भी अपने अंदर वही चेतना जाग्रत् करनी पड़ेगी। गुरुजी का अनवरत आशीर्वाद तुम्हें मिलता रहेगा।

बेटे, हमारी ममता भी तुम्हें मिलती रहेगी, पर गड़बड़ी फैलाएँगे तो हमें नाराजगी भी होगी। कटुभाषा से नाराजगी नहीं होगी, तो और क्या होगा? नहीं साहब, बिच्छू का डंक मारे बिना हमारा तो काम ही नहीं चलता। नहीं बेटे, अपनी जुबान पर जरा शहद लगाइए। जब आते हैं, अपना अहंकार दिखाते आते हैं, सबसे बाँसपना दिखाते हैं। कोई बाँसपना नहीं दिखाएगा यहाँ। यहाँ तो नम्रता चाहिए। नम्रता बहुत बड़ी चीज है। गुरुजी के अंदर नम्रता थी और इस सीमा तक थी बेटे कि इन हाथों में तुम्हारे सब के बरतन धोते-धोते, माँजते-माँजते हमें बीसियों साल बीत गए। हमारे जो पुराने परिजन होंगे, उनको मालूम है कि किस तरह हम बच्चों की सेवा करते थे। तब यहाँ तक का इतना लंबा सफर तय करके आए हैं। तुम्हें क्या मालूम है? गुरुजी परिजनों को अपने साथ ले जाया करते थे। उसके कंधे पर हाथ रखकर कहते, चल बेटा, जमुना जी वहाँ बैठेंगे। वे कंधे पर तौलिया डाले रहते थे, सो अपनी तौलिया बिछाई और वहाँ उसको बिठाते थे। यह है आत्मीयता, यह है घुलना-मिलना। यह नहीं होता कि हम मंच पर बैठ गए। ये कौन हैं? आ हा हा हा .....ये आए साहब। महंत जी, ओ हो हो हो .... अब इनको सुनो। अच्छा, तुम्हारी सुनो या गुरुजी को सुनो। बेटे, गुरुजी को सुनो। गुरुजी को जो सुनेगा, वह नम्र होगा। वह सबमें घुलता हुआ मिलता हुआ चला जाएगा। यह अनुकरण उनको करना चाहिए, जिन्होंने अभी तक नहीं किया। जिन्होंने किया है, उनकी सराहना है, उनके लिए ढेरों आशीर्वाद है।

सबको प्यार बाँटो, आत्मीयता दो

बेटे, सबको अपने समान समझो। अपने जो छोटे भाई हैं, उनको प्यार दो। अपने से जो बड़े हैं, उनका सम्मान करो। किसी को यह महसूस न होने पाए कि यहाँ गुरुजी नहीं हैं। यहाँ तो सारे निर्जीव बसते हैं, जैसे इनमें जान ही नहीं है। बेटे, सबको गुरुजी जैसा प्यार, आत्मीयता दो। मुझे कई बार उन लड़कों को झिड़कना पड़ता है, जो हमारे पास रहते हैं। नीचे तो मुझे नहीं दिखाई पड़ता, पर पास में तो मैं दो-तीन लड़कों को बहुत झिड़कती हूँ। क्या करूं, मेरा स्वभाव ऐसा नहीं है, पर जब देखती हूँ कि जब ये लोगों को मिलाते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे भेड़-बकरियों को आगे करते हैं। भेड़-बकरियों की तरह नहीं, बल्कि सभ्यता-शालीनता का क्रम चालू करो। जल्दी-जल्दी चलाओ, लेकिन तुम्हारी जुबान में मिठास होनी चाहिए। मिठास होगी तो क्या होगा? सारे-के-सारे व्यक्ति तुम्हारी सराहना करेंगे। दो तरह की मिठास होती है, एक तो प्रकृतिप्रदत्त-स्वभावगत और दूसरी चापलूसी। जिससे काम लेना है, उसी की चापलूसी करो। चापलूसी करने में छोटापन होता है, हेटापन होता है। उसमें व्यक्ति का बौनापन झलकता है। हमें बौना भी नहीं बनना है और अहंकारी भी नहीं बनना है चूँकि मिशन तुम्हारे द्वारा चलना है, तुम्हारे कंधों पर चलना है, इसलिए हमारा प्रत्येक कार्यकर्ता गुरुजी की दूसरी काँपी होना चाहिए।

सो कभी थोड़ा झल्ला जाते थे, लेकिन उन्होंने मन से कभी किसी से द्वेष नहीं माना। यहाँ तक कि जो हमको विरोधी मानते थे, उनके लिए भी उन्होंने कभी कुकल्पना नहीं कि। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि उसने हमारे साथ ऐसा किया है, तो हम इसका बदला लेंगे। उन्होंने उसके साथ सज्जनतापूर्ण व्यवहार किया, वे कभी भी बौखलाए नहीं। बस चाल उलटी बदल दी। उन्होंने कहा, अच्छा यह बात है, अपने काम की गति बढ़ा दो। बजाय सड़ने-कुढ़ने के उन्होंने सारा समय श्रेष्ठ चिंतन में लगा दिया। अरे, दूसरा तो सड़ ही रहा है, हम और उसके साथ सड़ जाएँ। क्यों? हमें मिशन चलाना है, तो हम में प्रखरता होनी चाहिए, नम्रता भी होनी चाहिए, साथ ही अपने अंदर साहस और बल भी होना चाहिए।

बेटे, हम ऐसे बुज़दिल भी न हों कि कोई आए, हाँ साहब कौन हैं? अरे हम तो संत हैं। अच्छा, तो एक इधर से भी दे जाए और एक उधर से भी दे जाए। ऐसा संत भी नहीं बनना है। मैं कई बार कह चुकी हूँ कि तुम लोग लाठी चलाओ, यह पुरुषार्थ का प्रतीक है। सारे आश्रमों की निगाहें हमारी तरफ जाती हैं। यह सब कहेंगे कि यहाँ मरे-मराए नहीं, जिंदादिल लोग रहते हैं। किसी ने कहा, कहाँ गए? अरे साहब, मंदिर गए तो पता चला कि वहाँ से घंटी-बंटी भी कोई उठा ले गया। उन्होंने कहा, यहाँ कौन बसते हैं यहाँ तो निर्जीव हैं, जिन्हें यह भी ध्यान नहीं कि हम यहाँ मंदिर में बैठे हैं और यहाँ से सामान भी चला गया। बेटे, हमारे यहाँ सभी जिंदादिल लोग ही रहने चाहिए।

दो महान् संकल्प

अब चलिए, मैं थोड़ा-सा प्रसंग बदल रही हूँ। यह इतना बड़ा काम है, मैंने उस रोज दोनों संकल्पों के बारे में बताया था न। हाँ बेटे, मैं फिर दोहरा रही हूँ कि हमने दो संकल्प ले लिए हैं। मैं समझती हूँ कि इन्हें पूरा कराने में वही मदद करेंगे, तभी होंगे पूरे। मेरा मन ऐसा कहता है कि वे मदद जरूर करेंगे, क्योंकि जब उनका हर कार्य पूरा होता हुआ चला गया, तो ये दो संकल्प भी पूरे होंगे। मैंने जो उस रोज निवेदन किया था और कहा था कि एक शादान श्रद्धाँजलि समारोह मनाएँगे। उसके लिए तुम्हारे पैरों में गति, तुम्हारी हिम्मत, तुम्हारा साहस अब और भी डबल होना चाहिए।

देखो बेटे, मेरा साहस डगमगाया नहीं हैं। कभी-कभी आँखों में आँसू तो आ जाते हैं, पर रोकती हूँ। आज जब एक गीत गाया जा रहा था, तो मैं अपने को नहीं रोक सकी और अंदर-ही-अंदर आँसू पीती रही। सामने वाला यह नहीं भाँप पाया कि माताजी की आँखों में आँसू भी हो सकते हैं। क्या करें बेटे? पचास साल जिसके साथ में गुजारे, उसे हम कैसे भुला सकते हैं? वह नहीं भुलाया जा सकता, लेकिन फिर भी मैं भीतर से इतनी कड़ी और इतनी हिम्मत वाली हूँ कि मैं आँसुओं को भुला दूँगी, उन्हें पी जाऊँगी। उनका जो उद्देश्य है, जो उनका लक्ष्य है, उसके लिए तो अब हमें मर मिटना है। इसी भूमि में वे समा गए और इसी में बेटा मुझे भी समाना है। तुम लोगों का भी यही लक्ष्य होना चाहिए कि जब हम यहाँ शाँतिकुँज में आए हैं, तो हमें नाक कटाकर नहीं रहना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि मन में कुछ और है, तन में कुछ और। जो मन में है, वही तन में है। तुम सब अपने मन की परिशुद्धि करना, तभी तुम्हारी भावनाएँ और तुम्हारा समर्पण शुद्ध होगा। अभी तक तो तुम्हारा समर्पण है, आगे की तो मुझे मालूम नहीं। बेटे, आगे भी तुम इसी तरीके से बने रहना, शुद्ध भावना और पवित्र समर्पण के साथ।

बेटे, अब तीन महीने रह गए हैं। तीनों महीने कितने होते हैं? बहुत जरा से होते हैं। तीन महीने कितने होते हैं? बहुत जरा से होते हैं। दिन और रात तुम सबको श्रम करना पड़ेगा। दिन और रात एक करने पड़ेंगे, तब कहीं हम कार्य को पूरा कर पाएँगे। चैन की नींद सोते रहे, तो क्या ऐसे ही काम हो जाएगा? बेटे, ऐसे काम नहीं होगा। जरा-जरा से काम में कितना समय लगता है। जो छह यज्ञ हुए हैं, उनमें कितने लोगों ने दिन और रात एक किए हैं, तब सफल हुए हैं। सो भी उतने बड़े नहीं थे। यह कार्य तो कितना विशाल है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है। अंतर्राष्ट्रीय काम यों ही हो जाएगा क्या?

दूसरा संकल्प स्मारक बनाने का है, तो वह भी यों ही हो जाएगा क्या? चलो, उसे तो यह भी है कि हम अपने द्वारा पूरा कर लेंगे, लेकिन यह जो श्रद्धाँजलि का कार्य है, इसके लिए तो तुम्हें अपना मन और अपना तन दोनों ही समर्पण करने पड़ेंगे। इसके लिए बेटे, अपनी हिम्मत अपना साहस और अपनी भावनाएँ होंगी। भावनाओं के बगैर कोई भी कार्य पूरा हो नहीं पाता। इसके बिना हम भगवान की पूजा भी नहीं कर पाते हैं। हाथ में माला तो जरूर लगी रहेगी, पर दिमाग हमारा दूसरी तरफ लगा रहेगा। क्यों? इसलिए लगा रहेगा कि भगवान के प्रति जो हमारा उदात्त भाव, जो हमारा समर्पण, जो हमारी करुणा होनी चाहिए, वह करुणा ही नहीं पैदा हुई, तो हम भगवान की पूजा कैसे करेंगे? इस तरह क्या हम भगवान के बताए रास्ते पर चल सकेंगे, तो हम गुमराह होते जाएँगे। गुमराह होते ही हम पलायनवादिता की ओर चलते चले जाएँगे, जबकि उपासना, साधना और आराधना तीनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं।

तीनों योग जीवन में अनिवार्य

उपासना भगवान के समीप बैठना अर्थात् उसमें मिल जाना। अनुभूति होना, करुणा पैदा होना, दया पैदा होना। ये सब कौन और क्या हैं? ये भक्ति का स्वरूप हैं और दूसरा वह है जिसका मन शुद्ध, जिसके अंदर दया, करुणा और संवेदना होती है, फिर वह अपने तक सीमित नहीं रहता, वरन् वह ऊँचा उठ जाता है, जिस तरीके से वाल्मीकि ने एक पक्षी के जोड़े को तिलमिलाते हुए देखा और उनकी करुणा फूट पड़ी। इसी तरह संत तुलसीदास की करुणा फूट पड़ी। ऐसा व्यक्ति ही जनमानस के लिए समर्पित होता है और अपने जीवन का धन्य बनाता है।

‘साधना’ माने-अपने जीवन को ऊँचा उठाना, अपने को साधक बनाना ताकि वह जनसेवा कर सके। जनसेवा हमारा मुख्य ध्येय है। इसीलिए तो गुरुजी आए। सारी जिंदगी उन्होंने यही तो किया था। बेटे, जितनी उन्होंने उपासना की, उससे कम उपासना कलम की नहीं की, और उससे कम उपासना उन्होंने समाज की नहीं की। जितनी गायत्री माता के प्रति उनकी श्रद्धा थी, उससे ज्यादा कलम के लिए थी और उससे भी ज्यादा समाज सेवा के लिए थी। वे समाज को ऊँचा उठाना चाहते थे। वे समाज को, राष्ट्र को बहुत से होनहार नागरिक देना चाहते थे, यही उनका उद्देश्य था। उनकी सारी जिंदगी इसी में लग गई। यह कौन-सा कार्य है? यही साधना है।

आराधना-समाज सेवा है। ये तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं। बेटा, अब हमको उपासना तो नित्यप्रति करनी ही है। हमारे जो कार्यकर्ता हैं वे बजाय आलस्य के चाहें तो आधा घंटा उपासना करें। मैं यह तो नहीं कहती कि सारे दिन माला लेकर तुम बैठे रहो। बैठे रहेंगे तो काम कौन करेगा। चाहे तुम पंद्रह मिनट ही उपासना करो, पर ऐसे तल्लीन हो जाओ कि बस आनंद आ जाए। हमारे यहाँ अखण्ड ज्योति कार्यालय में एक चित्र है, जो अभी भी है। गुरुजी जब उपासना में बैठते थे तो छह घंटे यह नहीं मालूम पड़ते थे कि जाने कहाँ निकल गए। फिर सारा दिन काम करते थे। छह घंटे तो नहीं, तुम्हारे लिए आधा घंटा ही बहुत है। आधा घंटा नित्यप्रति जब खाना खाएँ तो पहले उपासना कर लें। इसके बाद अपने जीवन का शोधन करें, कहाँ-कहाँ हमारी कमियाँ हैं, किस तरीके से अपनी इन कमियों को हम निकालें।

बेटे, अपनी कमियाँ व्यक्ति को नजर नहीं आतीं। जिस दिन अपनी कमियाँ नजर आ जाएँगी, तो व्यक्ति न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाएगा। हम दूसरों की कमियाँ तो देखते हैं कि अमुक में ये कमी है, अमुक में वो कमी है, पर अपने गरेवान में मुँह डालकर नहीं देखते कि हम में कितनी कमियाँ हैं। हमारे प्रत्येक कार्यकर्ता को चाहिए कि वह अपनी कमियों को खोज-खोजकर निकालें। दूसरों से पूछे-क्यों भाई साहब। आज यह बताइए कि मुझसे कोई दुर्व्यवहार तो नहीं हुआ? मेरे अंदर कोई कटुता तो नहीं आई? दूसरा तुम्हारी कमियाँ निकाले तो उस पर खीजो मत, वरन् उसको सराहो कि हमारी कोई कमी निकालने, बताने वाला तो है। हमारे अंदर जो कमी है उसे निकालिए। बेटे, गुरुजी का यह गुण था कि चाहे वे आर्य की खुली छूट थी। गुरुजी ने कहा कि कोई कहने वाले तो है, जिससे मालूम तो पड़े कि हमारे अंदर क्या कमी है। हम उस कमी को निकालेंगे। उन्होंने चाहे पाँच साल का बालक ही क्यों नहीं हो, कोई बात उसके मुँह से निकली है और वह फिट बैठती है तो वे उसकी भी बात मान लेते थे। यह नहीं कहते थे कि मैं इतना बड़ा हूँ और जरा से बच्चे की बात मानूँगा। वे सबकी मानते थे।

क्रमशः (उत्तरार्द्ध आगामी विशेषाँक में)


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