नारीशक्ति की अस्मिता की रक्षा का पर्व

August 2002

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आकाश में सूरज और बादलों की लुका-छिपी, धरती पर अंकुआई, हर्षाई हरियाली वाले मौसम में राखी पर्व की प्रसन्नता के रंग भरने आई है। 22 अगस्त के दिन इसके आगमन की आहट सुनकर भाई-बहिनों के मन-मयूर नाच उठे हैं। श्रावण पूर्णिमा के पुण्य पलों में रक्षा-बंधन का यह त्यौहार अपने साथ प्रकृति की अनोखी सुरम्यता लेकर आया है। ग्रीष्म ऋतु से तप्त हुई वसुन्धरा अब हरित वसना होकर अपनी उर्वरा शक्ति का परिचय देने में लगी है। आकाश के निर्गुण-निराकार विस्तार को सावन के मेघों ने सगुण-साकार बना दिया है। मेघों के बीच राखी के चमकीले धागों की तरह चमकती विद्युत् की छटा अनुपम है। पवन की गति में पर्व की प्रसन्नता भरी सिहरन और उल्लास के लास्य का संचार है। चारों ओर जलाशय जल से आप्लावित होकर गंधमयी धरा को रसवन्ती बना रहे हैं। सारे वातावरण में बहिनों के प्यार की महक छायी हुई है।

युगों से मनाए जाने वाले इस पर्व के साथ कई युग कथाएँ जुड़ी हुई हैं। पुराणों में कहा गया है कि देवासुर संग्राम में जब देवता निरन्तर पराजित होने लगे, तब इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति से रण में विजय श्री दिलाने वाले उपाय की प्रार्थना की। इस प्रार्थना पर देवगुरु ने श्रावण पूर्णिमा के दिन आक के रेशों की राखी बनाकर, उसे रक्षा विधान सम्बन्धी मंत्रों से अभिमंत्रित करके इन्द्र की कलाई पर रक्षा-कवच के रूप में बाँध दिया। कथा यह भी है कि युद्ध प्रयाण के समय देवराज इन्द्र की पत्नी देवी शची ने गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बाँधा। और उन्हें आश्वासन दिया कि मेरे सत का प्रतीक यह धागा रणक्षेत्र में आपकी रक्षा करेगा। इन रक्षा-सूत्रों ने देवों में आत्मविश्वास जगाया और वे विजयी रहे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रारम्भ में राखी बाँधने वाला स्वयं रक्षा करने में सक्षम होता था, इसलिए वह रक्षा के लिए अभयदान देता था।

काल ने करवट बदली और परम्परा बदल गयी। रक्षा-सूत्र बाँधने वाले हाथों ने स्वयं अपनी रक्षा का वचन माँगा। इसकी शुरुआत तब हुई जब द्रौपदी ने भगवान् कृष्ण को राखी बाँधी। ऐसा कहा जाता है, तभी से बहनों ने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधकर अपनी रक्षा का वचन माँगा। भगवान् कृष्ण ने विपद् की घड़ी में द्रौपदी की लाज बचाकर किस तरह राखी का मोल चुकाया, इस पुराण कथा को सभी जानते हैं। रक्षाबंधन के इस पौराणिक प्रसंग में बाद में कई इतिहास-कथाएँ भी जुड़ी। इन कथाओं में कर्णवती-हुमाँयु की कथा, रानी बेलुनावियार-टीपू सुल्तान की कथा, चाँदबीबी-महाराणाप्रताप की कथा, रमजानी-शाहआलम सानी की कथा अति प्रसिद्ध है। इतिहास के पृष्ठो में राखी की इन कथाओं का अमिट अंकन है। इतिहास के जानकर यह भी बताते हैं कि अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के शासन काल में रक्षाबंधन के पर्व की शान-शौकत बढ़ी-चढ़ी थी। इस अवसर पर किले में आठ दिन पहले से ही तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं। हिन्दू महिलाएँ उन्हें राखी बाँधती और ब्राह्मण आशीर्वाद देते थे। सम्राट इन सबको तरह-तरह के उपहार दिया करते थे।

स्वातन्त्र्य युग में लार्ड कर्जन के काल में राखी का सफल भावनात्मक प्रयोग विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने किया था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तो राखी के धागों के कारण ही अस्तित्व में आया। महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय जी ने काशी नरेश को राखी बाँधी और बदले में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए भूमि दक्षिणा में प्राप्त की। कवियित्री महादेवी वर्मा की राखी हिन्दी साहित्य के संसार में प्रसिद्ध थे। उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पन्त, इलाचन्द्र जोशी, प्रेमचन्द्र, जयशंकर प्रसाद तथा महाप्राण निराला की भावनाओं को अपनी राखी के धागों से बाँधा था। घटनाक्रम आज के हों या इतिहास के अथवा इनके विवरण पुराणों में मिलते हों, सभी का सार इतना ही है कि रक्षाबन्धन राष्ट्रीय व सामाजिक मर्यादाओं एवं बहिनों की लाज की सुरक्षा हेतु संकल्पित होने का महापर्व है।

राखी के धागों को बाँधते हुए इतिहास व पुराण के प्रेरक प्रसंगों के स्मरण के साथ वर्तमान का चिन्तन भी जरूरी है। आज की कथा कहती है कि देखो तो सही हमारी बहिनें कितने संकट में है। समाज की अनगिन कमजोरियों एवं बुराइयों ने बहिनों के जीवन को संकटग्रस्त किया हुआ है। जहाँ एक ओर हम उनकी प्रगति के लिए बढ़ते अवसरों की बात करते हैं, वहाँ क्या यह सच नहीं है कि कितनी उमंगों के साथ नए घर में जाने वाली हमारी बहिनों को दहेज प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है? क्या यह सच नहीं है कि कितनी बड़ी संख्या में लिंग-भेद पर आधारित भ्रूण हत्या के कारण बहिनों को जीवन में प्रवेश करने से ही वंचित कर दिया जाता है।

छोटी सी प्यारी सी बहिन राखी बाँध रही हो, इससे प्यारा और कोई दृश्य नहीं हो सकता है। पर भाइयों को यह भी सोचना पड़ेगा कि बड़ी संख्या में वे स्कूली शिक्षा से वंचित क्यों हैं? भाइयों से कई गुना अधिक बहिनें कुपोषण की शिकार क्यों हैं? लगातार बढ़ रही बाल वेश्यावृत्ति का जिम्मेदार कौन है? भाइयों के लिए एक विकल्प यह है कि बहिनों की इन सभी समस्याओं की ओर से हम आँख मूँद लें और राखी के त्यौहार को बस एक रस्म की तरह निभा दें। पर राखी का पवित्र धागा तो हर भाई की आत्मा को झकझोर कर यही कहता है कि बहिन के संकट को कभी मत भूलना। क्या भाई अपनी बहिन की इस पुकार को अनसुना कर देगा? क्या रक्षाबंधन का त्यौहार केवल एक मिठाई के डिब्बे और सौ रुपये के नोट तक सिमट जाएगा? या हम इस दिन बहिन के संकट को वास्तव में याद करेंगे और इसके लिए समाज में जरूरी बदलाव लाने के लिए विचार क्रान्ति अभियान की सक्रियता से स्वयं को जोड़ेंगे।

यह ठीक है कि रक्षाबन्धन के दिन बहन से राखी बंधवाने के लिए जा रहा भाई आज भी उत्साहित है। प्यारी बहिन से मिलने की उमंग हिलोरे ले रही है। पर बहुत से भाइयों के दिल में इस उत्साह और उमंग के साथ उदासी भी है। बहन को ससुराल में जो कष्ट सहना पड़ रहा है, इसकी उदासी है। उसे जो ताने सुनने पड़ते हैं, जो अपमान सहना पड़ता है, इसकी उदासी है। हालाँकि बहिन बहुत कुछ दुःख-दर्द अपने अपने मायके से छिपा जाती है, पर क्या भाई से उसकी परेशानी और आँखों का दर्द पूरी तरह से छिप सकता है? भाई उसके इस खामोश दर्द को जानता है और इसी कारण वह उदास है।

रक्षाबंधन के दिन आज अपने भाई को राखी बाँधने जा रही बहिन काफी उत्साहित है। कई दिनों बाद भाई से मिलने की उमंग है। पर इस उमंग और उत्साह के साथ एक उदासी भी है बहिन को धीरे-धीरे ऐसा लग रहा है, जैसे मायके में अब वह पराई होती जा रही है। भैया-भाभी भी नहीं चाहते कि वह अपना दुःख-दर्द उनसे खुलकर कहे। तो क्या जो कष्ट उसे झेलने पड़ रहे हैं वे अकेले उसी के रह जाएँगे। क्या उसे सहारा देने वाला, उसके दुःख-दर्द को बाँटने वाला कोई नहीं है? राखी बंधवाने वाले भाई को इन प्रश्नों की सच्चाई समझनी होगी। उसे यह महसूस करना होगा कि आज कई तरह से बहन का दुःख-दर्द न केवल बढ़ गया है, अपितु उसकी प्यारी बहन अपने में बहुत अकेली अनुभव करने लगी है।

निश्चय ही युग परिवर्तन के साथ मान्यताएँ, परम्पराएँ बदलते हैं। संस्कृति करवट लेती है। नए रूप में नए ओज से चमकती है। पर इसका मूल्य नहीं बिखरता। पुराण व इतिहास कथाओं के मूल्य आज भी प्रासंगिक है। आज की कथा में इन्हें पिरोने की जरूरत है। रक्षाबंधन के पर्व को मूल्यनिष्ठ बनाकर इसे नयी गरिमा व नया अर्थ देने की आवश्यकता है। बहनें, भाइयों की कलाई में राखी बाँधकर न सिर्फ अपने सम्मान की रक्षा, वरन् सभी नारियों के सम्मान का वचन लें। भाई भी अपनी बहिन के अकेलेपन व उदासी को दूर करने का संकल्प करें। यदि रक्षाबंधन के दिन प्रत्येक भाई अपनी बहिन के साथ प्रत्येक नारी की गरिमा, अस्मिता और सम्मान को चोट पहुँचाने वाले तत्वों से निपटने का संकल्प ले, तो राखी के पुण्य पर्व का प्राकृतिक एवं भावनात्मक शृंगार स्थायी बन जाएगा।


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