भागवत भूमि का सेवन

August 2002

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सन् 1924 का पहला या दूसरा महीना था। श्रीराम अपने पिता के साथ ननिहाल गए। वहाँ भागवत सप्ताह का आयोजन था। पारायण करने वाले विद्वान दूसरे ही थे, पंडित रूपकिशोर जी को जामाता की हैसियत से निमंत्रित किया गया था। ताई जी वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थीं। पिता-पुत्र कथा आरंभ के एक दिन पहले आँवलखेड़ा से रवाना हुए और यथासमय पहुँचे। रास्ते में पुत्र ने पिता से कुछ जिज्ञासाएँ कीं या यों कहें कि छपको प्रसंग के समय मन में उठे कुछ सवाल रखे। एक सवाल यह था कि आप भागवत का उपदेश करते हैं। उस अधिकार से भी छपको की सेवा को उचित ठहरा सकते थे, लेकिन कल्याण पंडित को गायत्री उपासना का हवाला क्यों दिया?

पिताश्री ने समझाया, इसलिए कि भागवत शास्त्र गायत्री मंत्र की ही व्याख्या है। भागवत ही नहीं, सभी शास्त्र इसी के विस्तार हैं। यह बीज रूप है। श्रीराम ने सुनकर कहा, लेकिन हमने भी आपकी कथा सुनी है, उसमें गायत्री मंत्र की ऐसी महिमा कहीं नहीं लिखी है। पिता ने उत्तर दिया जिसमें दिशा भी थी। उन्होंने कहा, उस महिमा का अनुसंधान तुम्हें करना है। तुम अभी शास्त्रीय पक्ष ही समझो। शास्त्रीय पक्ष यह है कि भागवत का आरंभ गायत्री मंत्र की व्याख्या है। उसमें गायत्री के कई पद और अर्थ विद्यमान हैं।

श्लोक का अर्थ है, ‘जिसमें इस जगत् की सृष्टि स्थिति और प्रलय होते हैं, क्योंकि जो आकाश आदि पदार्थों में अनुगत भी हैं और जिसमें इसका अभाव भी है, जो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और प्रकाशस्वरूप है, जिन्होंने संकल्पमात्र से ब्रह्मा जी को वेद का उपदेश किया है, जिसके संबंध में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। मरु-मरीचिका के समान मिथ्या जगत् भी जिनके आधार से सत्य प्रतीत होता है, उन स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा मायावान और मायातीत रहने वाले सत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।’

प्रारंभ का श्लोक सुनाकर पिताश्री ने कहा, इस पद में ‘जन्माद्यस्य यतः’ पद से सवितुः शब्द का अर्थबोध होता है। ‘स्वराट्’ शब्द ‘देवस्य’ का बोध कराता है। इसी प्रकार ‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं’ पद से ‘वरेण्य भर्ग’ और ‘तेने ब्रह्महृदा च आदिकवये’ पद गायत्री में निहित स्वराट् या त्रिभुवन को संचालित करने वाली परमशक्ति का उद्बोधन करता है। ‘सत्यं परं धीमहि’ गायत्री मंत्र की मूल प्रेरणा को स्वयं ही व्यक्त करता है। यही नहीं भागवत शास्त्र का उपसंहार भी ‘सत्यं परं धीमहि’ से होता है। द्वादश स्कंध के तेरहवें अध्याय का उन्नीसवाँ श्लोक परम शुद्ध माया-मल से रहित और परमात्मा के सत्य को अपने भीतर धारण करने की प्रार्थना से संपन्न होता है। अर्थ से और शब्द से दोनों विधि से भागवत शास्त्र गायत्री का ही व्याख्या-विस्तार है।

मत्स्य और वामन पुराण के संदर्भ से भी पंडित जी ने समझाया कि भागवत शास्त्र को गायत्री ने ही अधिकृत किया है। उसका आरंभ गायत्री से हुआ है, इसलिए वह भागवत है। ननिहाल तक का रास्ता इस विषय पर चर्चा में कट गया कि गायत्री सभी शास्त्रों का, इस युग के प्रतिनिधि ग्रंथ भागवत का आधार है, क्योंकि समझाया, वाल्मीकि ने गायत्री के चौबीस अक्षरों के आधार पर चौबीस हजार श्लोकों में रामकथा लिखी थीं। रामायण की जो प्रतियाँ इस समय मिलती हैं, उनमें पूरी रामायण में एक निश्चित अंतराल से एक श्लोक गायत्री के एक अक्षर से आरंभ होता है। उसी अंतराल के बाद एक श्लोक अगले अक्षर का उद्घोष करता है।

कुछ सौ साल पहले गोस्वामी तुलसीदास ने लोकभाषा में रामकथा गानी चाही। सनातन धर्म का स्वरूप उस समय के अनुरूप समझाना चाहा, तो रामायण और भागवत दोनों का आश्रय लिया। रामायण से उन्होंने भगवान का चरित्र लिया और भागवत से भक्ति। दोनों का समन्वय कर उन्होंने रामचरितमानस लिख दिया। जानते हो गोस्वामी जी को यह ग्रंथ रचने की प्रेरणा कैसे मिली थी? बाबा वेणीमाधव ने गुसाई चरित में गाया है कि संध्या गायत्री कर चुकने के बाद शिव-पार्वती ने उन्हें रामचरित लिखने का आदेश दिया था। संवत् 1631 की रामनवमी के दिन प्रातः संध्या के बाद उन्होंने ग्रंथ की रचना आरंभ की थी। साधक किसी को भी अपना इष्ट बनाए, उसे गायत्री जप से ही आरंभ करना पड़ता है।

श्रीकृष्ण के आँगन में

कुछ देर रुककर उन्होंने कहा, यों समझो कि गायत्री मंत्र चाभी है और सभी साधनाएँ कोष भंडार। इस चाभी के बिना भक्ति, ज्ञान और योग का भंडार सुलभ नहीं होता। सप्ताह परायण की अवधि में पिताश्री गायत्री महिमा के साथ भागवत शास्त्र और धर्म की बातें बताते रहे। उन बातों में श्रीराम का मन अच्छी तरह लग रहा था। कथा पूरी होने के दिन पिता-पुत्र दोनों वापस चलने की तैयारी करने लगे। ताई जी ने भी चलने का मन बनाया। बाद में किसी को छोड़ने के लिए आना पड़े, इससे अच्छा है कि साथ ही निकल आया जाए। साथ चलना तय हो गया, सो ताई जी ने कहा, यहाँ तक आए हैं, मथुराजी पास में ही हैं। आपको असुविधा नहीं होता हो, तो द्वारिकाधीश के दर्शन करते चलें। नए कार्यक्रम में लगने वाले समय का हिसाब लगाते हुए पंडित जी सोचने लगे। ताई जी ने अपनी बात को थोड़ा और वजन दिया, श्रीराम भी साथ में ही है, उसने भी द्वारिकाधीश के दर्शन नहीं किए हैं। यमुनाजी के दर्शन भी हो जाएँगे। ताई जी का आग्रह सुनकर पंडित जी हँसे। उन्होंने मथुरा होते हुए आँवलखेड़ा लौटने का कार्यक्रम बना लिया। इस तरह निकलने पर यात्रा में दो दिन और लग जाते थे।

ब्रजमंडल में घने छायादान वृक्षों का अभाव रहा है। रेत और धूल-मिट्टी से सने रास्ते में यात्रियों को प्रायः असुविधा ही होती है, लेकिन जिन दिनों इस परिवार ने मथुरा का रास्ता लिया, उन दिनों जाड़े का मौसम था। उतरते हुए माघ के दिनों में कड़कड़ाती ठंड पड़ती थी, इसलिए सहपऊ से मथुरा आते हुए असुविधा नहीं हुई। गुनगुनी धूप ने जाड़े को दूर भगा दिया और दोपहर ढलने से पहले ही मथुरा के पास आ गए। मुश्किल से दो-ढाई किलोमीटर की दूरी रही होगी, एक टेकरी दिखाई दी। ऊपर मंदिर था। घंटियों की आवाज आ रही थी, इससे लगता था कि लोग आते-जाते होंगे।

श्रीराम ने पिताश्री से पूछा, यह किसका मंदिर है? नगर के बाहर होने से अनुमान लगाया, ग्राम देवता का मंदिर होगा। नगर या बस्ती की सीमा शुरू होने के पहले हर जगह इस तरह के स्थान होते हैं। पुत्र ने वहाँ चलने की इच्छा जताई। ताई जी और साथ के लोगों सहित सभी टेकरी पर चढ़ गए। मंदिर में गोविंद जी की प्रतिमा स्थापित थी। उनके दर्शन कर थोड़ी देर सुस्ताने लगे। गर्भगृह के बाहर बने चबूतरे के नीचे कुछ क्षण ही बीते थे कि गरजती हुई आवाज गूँजी, ‘जय जय राधे’। पंडित जी ने देखा, एक साधु उनकी ओर देखता हुआ चला आ रहा है। लंबी दाढ़ी और सिर के उड़े हुए बालों वाले इस संन्यासी की उम्र साठ-पैंसठ के आस-पास रही होगी।

पंडित जी ने उन्हें प्रणाम कहा। साधु ने उत्तर में पूछा, कुछ आहार बचा है भगत। ताई जी ने अपनी गहरी में से चार पूड़ियाँ निकालीं और उन पर अचार रखकर पंडित जी को ओर बढ़ाया। पंडित जी ने वह भोजन साधु को आदरपूर्वक दे दिया। जीते रहने की दुआ देता हुआ साधु जिस दिशा से आया था, उस दिशा में जाने लगा। ताई जी के पास चुपचाप बैठे श्रीराम यह सब देख रहे थे। साधु को जाते हुए देखते ही उन्होंने पुकारा, बाबाजी। आपने भगवान को देखा है? साधु बच्चे की आवाज से ठिठका और कुछ सँभलते हुए बोला, नहीं लेकिन देखना चाहता हूँ। उन्हें पाने के लिए ही उनकी भूमि में भटक रहा हूँ।

भटकना छोड़ो

इतना कहकर साधु निहारने लगा। श्रीराम ने कहा, बाबाजी भटकना छोड़िए, भगवान की भूमि का सेवन कीजिए। वे यहीं मिलेंगे। बात बहुत सीधी-सरल थी, लेकिन साधु के मन को पता नहीं, कहाँ छू गई। सेवन का न जाने क्या अर्थ समझा कि वह गोविंद जी के मंदिर के बाहर मिट्टी में लोट गया। रज का स्पर्श पाकर जैसे उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। वह अनुग्रहीत-सा कहे जा रहा था, “तुमने राह दिखाई बच्चा, मेरा भटकाव पूरा हो गया। प्रभु तो मिले ही हुए हैं, मैं ही अपने लोचन बंद किए था।” यह कहते हुए साधु ने श्रीराम को प्रणाम करना चाहा। वह पास आए, इससे पहले ही ब्राह्मण कुमार दूर दौड़ गए थे।

ताई जी और पिताश्री साधु और पुत्र के संवाद को सुनकर चुपचाप बैठे थे। श्रीराम के दौड़ लगाने पर उन्होंने रुकने के लिए कहा और रुकने पर उठकर साथ चल दिए। द्वारिकाधीश तक की यात्रा इसके बाद चुपचाप संपन्न हुई। रास्ते में कोई कुछ नहीं बोला। द्वारिकाधीश के दर्शन के बाद ताई जी ने गोविंद टेकरी वाली घटना के बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त की, ठाकुर जी ही मेरे लाल के मुँह से बोले थे। उनके धाम में किसी को भटकने की क्या जरूरत वह तो यहाँ पहुंचते ही मुक्त हो जाता है।

मथुरा पहुंचकर ताई जीन ने द्वारिकाधीश के दर्शन किए। श्रीराम ने मंदिर और मथुरा के बारे में पिताश्री से अनेक प्रश्न किए। इन प्रश्नों में कुतूहल और जिज्ञासा दोनों भाव समाहित थे। द्वारिकाधीश मंदिर मुश्किल से दो सौ साल पुराना है। सन् 1814 में बनवाए इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की राजसी प्रतिमा विराजमान है। कृष्णवर्ण की इस प्रतिमा का पूजन वल्लभमार्गीय विधान से होता है। द्वारिकाधीश के दर्शन करने के बाद पूरा परिवार कटरा केशवदेव गया। भगवान कृष्ण का जन्म वहीं हुआ समझा जाता है। इन दिनों वहाँ एक भव्य मंदिर और भागवत भवन आदि स्थापनाएँ हैं जिन दिनों श्रीराम अपने स्वजनों के साथ गए थे, तब एक साधारण-सा मंदिर था।

कटरा केशवदेव से निकलकर परिवार विश्राम घाट पहुँचा। श्रद्धालुओं का विश्वास है कि केशवदेव मंदिर में से, जहाँ पहले कंस किला था, भगवान सीधे यमुना किनारे गए थे। उन्होंने और बलदाऊ ने कुछ समय यमुना तट पर बिताया था। भक्तों की भाषा में कंस और उसके रक्षकों से हुए संघर्ष के कारण भगवान को जो क्लाँति हुई थी, उसे यमुना तट पर दूर किया था। जिस जगह भगवान ने विश्राम किया, उसे विश्राम घाट कहते हैं। बालक श्रीराम ने कहा, पिताजी क्या हम लोग भी यहाँ केशवदेव मंदिर के दर्शन से हुई थकान उतारने आए हैं। यह जगह हमारे लिए भी विश्रामघाट है। पुत्र की नटखट बात सुनकर पिता हँसे बिना न रहे।

विश्रामघाट पर क्षोभ

मथुरा-वृंदावन की हवाओं में कृष्ण भक्ति का रस आज भी घुला हुआ है। संवेदनशील चित्त वहाँ पहुँचते ही भक्ति की तरंगों को पकड़ने लगता है, लेकिन यात्रियों को तीर्थ-पुरोहितों अथवा पंडों के कारण बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इन दिनों स्थितियाँ थोड़ी सुधरी हैं, लेकिन किसी समय यह स्थान कुछ शरारती, उपद्रवी और लोभी पंडों के कारण बहुत बदनाम था। पिताश्री वहाँ के पंडों से अच्छी तरह परिचित थे, इसलिए परेशानी नहीं हुई। फिर भी दूसरे यात्रियों को सताए जाते हुए तो उन लोगों ने देखा ही। पंडों से घिर जाने पर एक यात्री कह रहा था, आप लोग आने वालों की दान-दक्षिणा के भरोसे रहते हैं। उन्हें इसके लिए मजबूर करते हैं। कोई और काम-धंधा क्यों नहीं अपनाते? एक पंडे ने कहा, क्या काम-धंधा करें लाला? यात्री ने कहा, कुछ भी, कोई भी काम कर सकते हैं। पंडे ने उसके सुझाव का उपहास उड़ाते हुए कहा, एक मेहनत तो हम कर ही सकते हैं कि तू अगर मर जावे, तो तुझे जमुना जी में फेंक दें, फिर तेरे पास जो मिलेगा, वह हमारी मेहनत की कमाई होगी।

यह उत्तर सुनकर आस-पास खड़े पंडों समेत दूसरे लोग भी खी-खी कर हँस दिए। श्रीराम ने पिताश्री की ओर आश्चर्य से देखा। उन्होंने पुत्र की बाँह पकड़ी और चलने का इशारा किया। श्रीराम ने कहा कि वे लोग यात्री को परेशान कर रहे हैं, कोई कुछ करता क्यों नहीं? पिताश्री ने कहा, पंडे संख्या में ज्यादा हैं। कोई कुछ कहेगा, तो वे सब एक हो जाएँगे। उन लोगों से लड़ना मुश्किल है। श्रीराम ने बालसुलभ सहजता और निराशा से कहा, यह भगवान कृष्ण की नगरी है या कंस की?

ताई जी ने कहा, “है तो भगवान की नगरी, लेकिन कंस का असर यहाँ हमेशा रहा है।” श्रीराम ने प्रश्न का दूसरा हिस्सा दोबारा कहा, “क्या यह इसी तरह चलता रहेगा। कोई सुधार नहीं होगा?” पिता ने आश्वस्त किया, “ऐसा नहीं है। स्थितियाँ सदा एक जैसी नहीं रहती। बदलती भी हैं।” वे विश्रामघाट के सती बुर्ज की ओर मुड़ रहे थे। एक गली की ओर इशारा किया और कहा, अब से पचास-साठ साल पहले इस गली में एक संन्यासी रहते थे। वे प्रज्ञाचक्षु थे, लेकिन वेद−शास्त्रों के प्रकाँड विद्वान थे। वे भी मथुरा की इन स्थितियों से दुखी थे। धर्मक्षेत्र में और भी कई बुराइयाँ हैं, उन सभी बुराइयों से लड़ना चाहते थे, लेकिन उन्हें दिखाई नहीं देता था, इसलिए ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे।”

पिताश्री अपने पुत्र को स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद की कथा सुनाने लगे थे। उन संन्यासी के पास एक दिन गुजरात का एक ब्रह्मचारी आया। उस ब्रह्मचारी ने कहा, मैं वेद−शास्त्रों का अध्ययन करना चाहता हूँ, ताकि सत्यधर्म की शोध कर सकूँ। संन्यासी ने कहा, दक्षिणा क्या दोगे? ब्रह्मचारी ने कहा, आप जो भी आदेश करेंगे। संन्यासी ने कहा, पाखंड का नाश। धर्म के नाम पर चल रहे अधर्म का विरोध। कुरीतियों उन्मूलन। शिष्य ने यह दक्षिणा देना स्वीकार किया और गुरु के पास रहकर समस्त विद्या पढ़ी। विद्या ग्रहण करने के बाद शिष्य ने पूरे देश का भ्रमण किया। धर्म का आवरण ओढ़े अधर्म के प्रति लोगों को जाग्रत किया। और धर्म के असली स्वरूप से परिचित कराया। श्रीराम ने उत्सुकता जताई कि अकेले व्यक्ति ने कैसे यह सब कर लिया? पिताश्री ने कहा, साहस और संकल्प हो, तो असंभव दीखने वाले काम भी सहज ही संपन्न हो जाते हैं। क्रमशः


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