15 अगस्त फिर से एक बार राष्ट्रीय जीवन में स्वाधीनता का उल्लास बिखेर रहा है। ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ का गौरव गान करते हुए जन-गण-मन हर्षित है। लेकिन इस हर्ष में, उल्लास के उजाले में अभी कुछ कोर-कसर है। सन् 1947 से लेकर वर्ष 2002 तक हमने स्वराज्य के पचपन वर्ष लिए हैं, फिर भी हम सब मिलकर इसे पूर्णता नहीं दे सके। वही पूर्णता जिसके बारे में राष्ट्रीय स्वाधीनता के मंत्रद्रष्ट ऋषि श्री अरविन्द ने कहा था- ‘पूर्ण स्वराज्य का विचार राष्ट्रीय जनमानस के लिए आकर्षक है। यदि पाश्चात्य भौतिकवाद के स्थूल रंग से मुक्त और शुद्ध भारतीय भावनाओं से परिपूर्ण मन से इस विचार को लोकमानस के समक्ष प्रस्तुत किया जाय तो उसका प्रभाव अजेय होगा।
...भारत का काम संसार को प्रकाश और नव जीवन का अनन्त स्रोत देना है। जब-जब आदि तेज का ह्रास होता है और पृथ्वी जराग्रस्त और क्षीण होती है। भौतिकवाद और समाधानहीन समस्याओं से त्रस्त हो जाती है, तब-तब भारत का काम होता है, मानव जाति में यौवन का पुनः संचार और उसे अमरत्व का दान.... संसार को भारत की आवश्यकता है- स्वाधीन भारत की। अब उसे वेदान्त के सिद्धान्तों के अनुरूप जीवन को ढालना है। और विदेशी शक्ति और विदेशी सभ्यता के साए से आक्रान्त रहते हुए वह इसे कर नहीं सकता। जब तक अपने जीवन की व्यवस्था उसके अपने हाथ में न हो, तब तक वह ऐसा नहीं कर सकता। उसे अपना जीवन स्वयं जीना चाहिए, किसी विदेशी साम्राज्य के जीवन का अंग बनकर या आधीन रहकर शासित जीवन जीकर नहीं।’
3 मई 1908 के ‘वन्दे मातरम्’ के साप्ताहिक संस्करण के सम्पादकीय में महर्षि अरविन्द ने स्वतन्त्र भारत के उद्देश्य की कल्पना इन शब्दों में व्यक्त की थी। 15 अगस्त सन् 2002 में राष्ट्रीय स्वाधीनता के महापर्व पर जबकि इन विचारों को प्रकट किए हुए लगभग 95 वर्ष बीत रहे हैं, इनमें व्यक्त की गई सम्भावनाएँ आज भी सामयिक और प्रासंगिक है। श्री अरविन्द के शब्द आज भी भारत की स्वतंत्रता के लक्ष्य, उसकी पूर्णता का स्मरण कराते हैं। यह महाप्रश्न देशवासियों से है, हमसे-आपसे और हममें से प्रत्येक से है कि क्या स्वाधीन भारत इस दिशा में कहीं आगे बढ़ा? जो राष्ट्रीय आकाँक्षा स्वाधीनता के महासाधक ऋषि अरविन्द के इन माँत्रिक पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है, क्या उसकी पूर्ति के लिए कहीं प्रयत्न होता दिखाई देता है? श्री अरविन्द ने राष्ट्र जीवन की जिस व्यवस्था की चर्चा की है वह तो आज भी भारत के हाथ में नहीं है। उन्होंने संसार के लिए जिस भारत की आवश्यकता की ओर इंगित किया है, वह आज भी विदेशी सभ्यता से बुरी तरह से आक्रान्त है।
जिस समय उन्होंने ये बातें कहीं थी- उस समय फिर भी भारत देश में एक साँस्कृतिक प्रवाह सुस्पष्ट था। लेकिन आज तो आर्थिक उदारीकरण का हमला झेल रहे देश में सर्वत्र साँस्कृतिक बंजरपन ही बढ़ता दिखाई देता है। 15 अगस्त हमारी स्वतन्त्रता की जयन्ती है, तो यह शुभ दिवस महायोगी श्री अरविन्द का जन्मदिन भी है। यह शुभ संयोग दैवी योजना से घटित हुआ है। इसका कारण शायद यही है कि जब-जब हम राष्ट्रीय स्वतंत्रता का पर्व मनाए, तब-तब स्वाधीनता की साधना के महासाधक ऋषि अरविन्द के विचारों के परिप्रेक्ष्य में आत्मलोचन एवं आत्ममंथन भी करें। समस्याओं को परखें और उनके निवारण के उपाय ढूंढ़ें।
आज देश की परिस्थितियाँ चिन्ता और निराशा के कुहासे से घिरी है। राजनीतिज्ञों के चरित्र देश के भविष्य के प्रति भयास्पद सन्देह अंकुरित करना है। सभातन्त्र का भटकाव देशवासियों को राष्ट्रीय जीवन के प्रति हताश करता है। हम स्वतन्त्र भारत में लोकतन्त्र और लोक जीवन को जिस दिशा में ले गए वह किसी भी तरह से हमारे लिए ठीक नहीं था। जो राह हमने चुनी, वह हमारी राष्ट्रीय प्रकृति से मेल नहीं खाती। भारत की आत्मशक्ति के केन्द्र को समझे बिना, भारत देश के आत्मतत्व का साक्षात्कार किए बिना राजनीतिज्ञों ने, सभा पर आधिपत्य जमाने वालों ने सारे राष्ट्र को जिस ओर हाँक दिया है, वह विनाश, ह्रास, टूटन और पराजय की ओर ले जाने वाला पथ है। भारत की राष्ट्रीय भावनाओं में आध्यात्मिकता का अनुभव करने की जगह पश्चिम की चाकरी करने वाली बुद्धि एवं विचार की वजह से भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। भारत की राष्ट्रीयता को भौतिक राष्ट्रवाद बनाने की जो गलती हो रही है, उससे समूचा देश एक भयावह बियावान में भटकने लगा है। ठीक भी है जब भारत को मात्र भौतिक जड़ पदार्थों का समुच्चय मानेंगे, तो उसमें सनातन दिव्यत्व के दर्शन कैसे कर पाएँगे? भारत देश की समस्याओं का समाधान पाने के प्रयास जब पश्चिम से आयातित बुद्धिवाद से संक्रमित होंगे, तो भला इनका भारत की प्रकृति से किस तरह मेल हो पाएगा?
स्वतन्त्रता के बाद देश कैसा होगा? इस प्रश्न का जो उत्तर श्री अरविन्द ने प्रस्तुत किया था, उसमें एक दिव्य संस्पर्श था। उन्होंने जिस भावी भव्य भारत का चित्र रेखाँकित किया था, वह आध्यात्मिक था। उन्होंने स्वतंत्रता को ईश्वरीय योजना के क्रियान्वयन का महत्वपूर्ण उपकरण माना था। अपने एक सन्देश में उन्होंने कहा था- ‘स्वराज्य औपनिवेशिक प्रशासन या शासन का कोई अन्य रूप नहीं है। यह तो हमारे राष्ट्रीय जीवन की सिद्धि है। हम उसी की खोज में लगे हैं। ईश्वर ने हमें संसार में इसलिए भेजा है कि हम अपने वैयक्तिक जीवन में, परिवार में, समाज में, राष्ट्र में और मानव जाति में अपने निर्धारित काम करके भगवान् के प्रति खरे साबित हो सकें। इसी के लिए उसने हमें संसार में भेजा है। यही हमारा अभीष्ट है। क्योंकि पूर्णता ही जीवन है और उसका अभाव ही मृत्यु।’
लेकिन आज विश्व परिदृश्य में भारत की स्थिति देखकर यह कोई कैसे माने कि भारत को ईश्वर के प्रति खरा उतरने के लिए कुछ विशेष कार्यों को पूर्ण करना है। श्री अरविन्द ने जीवन की जिस पूर्णता को उपलब्ध किया, वह भला आज किस तरह हमारे पास आए? क्योंकि हमारे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को तो चारों ओर चरित्रहीनता, अनैतिकता एवं मूल्यों का घोर संकट घेरे है। जब राजनीतिज्ञों की राष्ट्र के प्रति प्रामाणिकता ही सन्देह के घेरे में हो, जब देश का संचालन करने वाली नीतियाँ क्षुद्र स्वार्थ और अदूरदृष्टि से ग्रस्त हों तो स्वतंत्रता दिवस के उल्लास में पूर्णता आए भी तो कहाँ से? देश का आम आदमी अपने लिए आदर्श ढूंढ़ता है, जिसका वह अनुकरण कर सके। वह देश में चल रही विभिन्न धाराओं और अन्यान्य आन्दोलनों से मार्गदर्शन खोजता है।
परन्तु कालप्रश्न यह है कि मात्र भौतिक विचारों वाली, राष्ट्र की स्थूल संकल्पना को लेकर चलने वाली धाराएँ सच्चे भारत का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है? भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र है। यहाँ के राष्ट्रीय जीवन की समस्याओं का समाधान, भावी चुनौतियों का उत्तर आध्यात्मिक आन्दोलनों से ही निकलेगा। आध्यात्मिक जागरण भारत में राष्ट्रीय जागरण की पहली और अनिवार्य शर्त है। भारतीय समाज का सामूहिक मन आध्यात्मिकता में ही रचता-बसता है। स्वतन्त्रता संग्राम के संघर्ष में जूझने-मरने वाले अनेक क्रान्तिकारियों और सत्याग्रहियों की प्रेरणा अध्यात्म ही था। लोकमान्य तिलक का जेल में बैठकर भगवद्गीता का भाष्य करना, खुदीराम बोस का भगवद्गीता को लेकर फाँसी के फंदे पर झूलना, युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा का जेल की कोठरी में बैठकर जप-ध्यान करना आध्यात्मिक जीवन न होकर और क्या है? श्री अरविन्द ने स्वयं भी पूर्ण स्वातन्त्र्य और स्वराज्य का वर्णन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम को एक आध्यात्मिक सोपान पर अधिष्ठित किया है।
आज भारत की वर्तमान परिस्थिति को देखकर अर्जुन की तरह भ्रम-भय और मोह का व्यापना सहज है। अपनों के विरुद्ध ही एक निर्णायक संग्राम लड़ना हमारी परिस्थिति की नियति है। ऐसी परिस्थिति में भारत के भविष्य के लिए वही लड़ सकते हैं, जो अर्जुन की तरह से अपने मोह को नष्ट करके, अपने सम्पूर्ण कर्मों से अहम् को निकालकर उन्हें ईश्वर को ही अर्पित करते हुए समराँगण में उतरेंगे। शान्तिकुञ्ज ऋषि अरविन्द के इन्हीं उद्देश्यों के प्रति संकल्पित-समर्पित आध्यात्मिक राष्ट्रीय जागरण का दैदीप्यमान केन्द्र है। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव ने इसे राष्ट्र के आध्यात्मिक जागरण हेतु ही अपने प्रचण्ड तप से ऊर्जावान बनाया है।
राष्ट्र को अलौकिक दिव्यता तक ले जाने वाला यह जागरण जिस राष्ट्रवाद को, राष्ट्रीयता के जिस प्रवाह को प्रवाहित कर रहा है, उनमें अहंकार और उन्माद का कोई स्थान नहीं है। कट्टरता, संकीर्णता, घृणा के तत्व इससे पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिए गए हैं। यह तो विश्वगुरु भारत की प्रतिष्ठ और उसकी सनातन प्रकृति और प्रवृत्ति अनुसार उदात्त, भव्य, दिव्य मानवतावादी, प्रेम से ओत-प्रोत और सर्वकल्याण इस सत्य का उद्घोष है कि भारत नारों और प्रस्तावों से अखण्ड नहीं होगा। भारत की अखण्डता राजनीतिक घोषणाओं और प्रदर्शनों से नहीं होगी। यह तो आध्यात्मिकता के भाव प्रवाह से ही सम्भव है। ऋषियों की संस्कृति साधना की डगर पर चल कर ही राष्ट्र की अखण्डता एवं एकता अक्षुण्ण रह सकती है।
राष्ट्रीय अखण्डता एवं एकता के साथ विभाजित होने का दर्द भी है। 15 अगस्त को मिली स्वाधीनता के साथ भारत ने यह असह्य पीड़ा भी झेली थी। नियति और ईश्वरीय संकल्प इस विभाजन को एक दिन अवश्य मिटाएँगे। श्री अरविन्द ने 15 अगस्त 1947 को दिए गए अपने सन्देश में विभाजन के बारे में स्पष्ट कहा था, इस तय किए गए विभाजन को पत्थर की लकीर नहीं मान लिया जाएगा..... क्योंकि यदि वह बना रहे तो भारत भयानक रूप से दुर्बल हो सकता है। उसमें गृह कलह की सम्भावना सदा ही सम्भव बनी रह सकती है। भारत की आन्तरिक उन्नति एवं समृद्धि रुक सकती है.....। यह नहीं होना चाहिए। देश का विभाजन दूर होना चाहिए। महायोगी श्री अरविन्द के जन्मोत्सव और राष्ट्रीय स्वाधीनता के प्रकाश पर्व पर देशवासियों को यह सन्देश ग्रहण करना चाहिए। हमारी मातृभूमि को इसी सन्देश की आवश्यकता है।
आज जबकि पश्चिमी देश अपनी भौतिक शक्ति के बल पर पुनः विविध प्रावधानों से गुलामी की डगर पर घसीटने में जुटें हैं, तब ऐसे में भारत को अपने आध्यात्मिक बल में अभिवृद्धि करनी चाहिए। भारत देश में पूरे वेग से आध्यात्मिक राष्ट्र जागरण का महान् कार्य होना चाहिए। इस जागरण की कल्पना करते हुए श्री अरविन्द ने भारत के जागरण को महिषासुर मर्दिनी के अवतरण से जोड़ा था। मातृभूमि के रूप में भारत में अलौकिकता के दर्शन को श्री अरविन्द ने अपनी भावपूर्ण रचना ‘भवानी मन्दिर’ में शब्दबद्ध करते हुए लिखा है- ‘हमारी मातृभूमि क्या है? वह एक भूमि का टुकड़ा ही तो नहीं है, न वाणी का एक अलंकार है और न मस्तिष्क की कल्पना की एक उड़ान मात्र है।’
‘वह एक महान् शक्ति है, जिसका निर्माण उन करोड़ों एककों की शक्तियों को मिलाकर हुआ है, जो राष्ट्र का निर्माण करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे सारे करोड़ों-देवताओं की शक्ति को एकत्र कर एक बल राशि संचित की गयी और उस परस्पर जोड़ पर एकता स्थापित की गयी। जिसमें से भवानी महिषासुर मर्दिनी प्रकट हुई। वह शक्ति जिसे हम भारतीय भवानी भारतमाता कहकर पुकारते हैं। करोड़ों लोगों की शक्तियों की जीती जागती एकता है।’ 15 अगस्त के स्वाधीनता पर्व पर स्वाधीनता के मंत्रद्रष्टा ऋषि श्री अरविन्द की इसी संकल्पना को साकार करने की आवश्यकता है। तभी भारत माता का सनातन सौंदर्य प्रकट होगा।