रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए (Kahani)

August 2002

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देवर्षि नारद को परिभ्रमण काल में एक वयोवृद्ध धनवान मिला। वो पूजा बहुत करता था, भक्त लगता था। उसकी ढलती आयु को देखकर नारद बोले, परिवार समर्थ हो गया, अब घर से निकलकर वानप्रस्थ लेना चाहिए और लोकसेवा में लगना चाहिए। बात धनवान के गले न उतरी। उसने कहा, अभी तो परिवार को संपन्न बनाना है, फिर कभी समय होगा, तो चलेंगे। बहुत वर्ष बाद नारद उधर से फिर निकले। धनी भक्त की याद आ गई। उसके घर पहुँचे, तो मालूम हुआ, वे कुछ समय पूर्व मर गए। नारद ने दिव्य दृष्टि से देखा, तो प्रतीत हुआ, वह मरकर बैल बन गया है और हल में चलता है। समीप जाकर नारद ने पूर्व जन्म की बात स्मरण दिलाई और कहा, अभी भी समय है, हमारे साथ चलो। बैल को पूर्व जन्म स्मरण हो आया। फिर भी उसने सिर हिलाया परिवार को कमाई करके खिलाता हूँ। मरे चल पड़ने से इन लोगों की कठिनाई बढ़ेगी। नारद चले गए।

कई वर्ष बाद फिर आना हुआ। बैल का समाचार पूछने गए, तो ज्ञात हुआ कि वह भी मर चुका। अब वह कुत्ता बन बैठा था उसी घर में। नारद बोले, कुत्ते की स्थिति में पड़े रहने से क्या लाभ? चलो विश्वकल्याण का कुछ काम करें। कुत्ता सहमत न हुआ। उसने कहा, विश्वकल्याण से क्या? परिवार कल्याण ही बहुत है। मैं चल पड़ूं, तो चोरों की रखवाली कौन करेगा? नारद चले गए फिर तीसरी बार उसी प्रकार लौटना हुआ और नारदजी ने इस बार भी पहले की तरह पूछताछ की। मालूम पड़ा कुत्ता मर गया। देखा तो वह साँप बना वहीं एक बिल में सिर चमका रहा था। नारद उसके समीप पहुँचे। ऐसी दुर्गति से क्या लाभ? अब तो इन लोगों की कोई सहायता भी नहीं बन पड़ती। चलो न? सर्प ने असहमति सूचक सिर हिलाया और कहा, घर में चूहे बहुत हैं। इन्हें निगलने और डराने का काम क्या कम है? परिवार का मोह कैसे छोड़ूँ? नारद इस बार भी चले गए। एक दिन साँप बिल से निकला ही था कि घरवालों ने उसकी डंडे से खबर ली और सिर कुचल दिया। ऐसी दुर्गति न हो, इसलिए आत्मीयजनों के प्रति अनावश्यक अतिशय मोह छोड़कर स्वयं को सत्प्रवृत्ति हेतु समाज रूपी रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए।


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