‘सा प्रथम संस्कृतिः विश्ववारा’। जन-जीवन में व्याप्त यह सत्य अब वैज्ञानिक तथ्य बन गया है। चैन्नै के राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एन. आई. ओ. टी.) के विज्ञानियों ने तथ्यान्वेषण का यह करिश्मा किया। उन्हें गुजरात के तट से 30 किमी. दूर खम्भात की खाड़ी में समुद्र जल प्रदूषण के स्तर की जाँच करते हुए यह अद्भुत उपलब्धि हाथ लगी। सामान्य क्रम में उन्होंने समुद्र तल की ‘सोनर फोटोग्राफी’ की। कुछ महीने के बाद इन तस्वीरों का विश्लेषण करते हुए समुद्र विज्ञानियों के इस दल को यह अहसास हुआ कि वे अनजाने में ही समुद्र में 40 मीटर नीचे दबी हुई विशाल नगर सभ्यता के अवशेषों की तस्वीर उतार लाए हैं। फिर कई हफ्ते तक उस स्थल को खंगालने और तकरीबन 2,000 शिल्पकृतियों को जुटाने के बाद इन विज्ञानियों को अपने पुरातात्त्विक तथ्यान्वेषण पर पक्का भरोसा हो गया।
उन्होंने विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के सत्य का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि समुद्र के गहरे जल में एक प्राचीन नदी के किनारे 9 किमी. के दायरे में संस्कृति के पुरावशेष फैले हैं। और नदी में बाँध बनाए जाने के भी संकेत हैं। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार पानी में डूबे हुए इस शहर और सिन्धु घाटी की सभ्यता के स्थलों में जोरदार समानता है। ओलम्पिक तरणताल के बराबर आकार वाले एक ढाँचे में उतरती हुई सीढ़ियाँ बनी हैं। यह मोहनजोदड़ो के प्रसिद्ध पोखर जैसा लगता है। 200 मी. लम्बा तथा 45 मी. चौड़ा आयताकार चबूतरा वैसा ही है, जैसा कि हड़प्पा में पाया गया था। मिट्टी की मोटी दीवारों से बना 183 मी. लम्बा अन्न भण्डार जैसा एक ढाँचा पहचाना सा लगता है। इन विशाल ढाँचों से थोड़ी दूर पर कुछ और आयताकार ढाँचे हैं, जो घरों के अवशेष लगते हैं। इनमें नालियाँ तथा मिट्टी की सड़कें बनी हुई हैं। यहाँ से मिली शिल्पकृतियों में पत्थर के तराशे औजार, गहने, मिट्टी के टूटे-फूटे बर्तन, जवाहरात, हाथी दाँत और मनुष्य के जबड़े तथा दाँत के पुरावशेष हैं।
इस संस्कृति अनुसन्धान में सबसे अचरज भरे तथ्य तब सामने आए, जब इस दल ने लकड़ी के काल निर्धारण के लिए उसके नमूने लखनऊ के बीरबल साहनी इन्स्टीट्यूट ऑफ पालियो बाँटनी ( बी.एस.आई.पी.) और हैदराबाद के नेशनल जियोफीजिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट (एन.जी.आर.आई.) में भेजे। बी.एस.आई.पी. ने उसे ईसा पूर्व 5,500 साल पहले का बताया, जबकि एन.जी.आर.आई. ने इसे 7, 500 साल पुराना कहा। इन निष्कर्षों ने दुनिया भर के पुराविदों, इतिहासवेत्ताओं और संस्कृति सत्य के अनुसन्धानियों को हैरत में डाल दिया। भारतीय पुरातत्व विशेषज्ञ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहासकार दिलीप चक्रवर्ती ने तो यहाँ तक कहा, ‘ये काल गणनाएँ सही है तो विश्व के गाँव नगरों के विकास से सम्बन्धित अब तक की मान्यता में क्रान्तिकारी बदलाव आ सकता है।’
अभी तक पुराविशेषज्ञ व इतिहासवेत्ता यही मानते रहे हैं कि विश्व की पहली बड़ी नगर सभ्यता ई.पू. 4,000 से 3,500 साल पहले प्राचीन मेसापोटामिया की नदी घाटियों में जन्मी थी। इसके बाद मिश्र में नील नदी की घाटी में सभ्यता का विकास हुआ। सिन्धु घाटी सभ्यता करीब 1,000 वर्ष बाद ई. पू. 2,500 साल पहले प्रस्फुटित हुई। अब अचानक खम्भात की खाड़ी में अज्ञात शहर की खोज से यह सम्भावना बन गयी है कि सभ्यता कि प्राचीनतम ज्ञात निशान 2,000 वर्ष से भी पीछे जा सकते हैं। इतिहासविद् कहते हैं कि इससे हमारी समूची साँस्कृतिक समझ बदल सकती है। और ‘सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा’ का वैदिक सत्य एक वैज्ञानिक सत्य का रूप ले सकता है।
वर्तमान इतिहास हमें बताता है कि ई.पू. 7,500 से 5,000 तक का समय, जो खम्भात सभ्यता का समय है, सामाजिक संक्रान्ति का काल था। पुरातत्ववेत्ता इसे नव पाषाण काल कहते हैं। इसी दौरान लोगों ने शिकार वगैरह छोड़कर हल की खोज की। इन्हीं दिनों कृषि में क्रान्ति आयी। अनाज की अतिरिक्त उपज हुई, जिससे बड़ी बस्तियाँ बनी, साँस्कृतिक प्रभात बेला आयी और सभ्यता विकसित हुई। इस बेहद रचनाशील समय में विभिन्न समाजों में कई तरह के शिल्प पैदा हुए। इनमें मिट्टी के बर्तन बनाना, पत्थर के तराशे औजारों का प्रयोग और जानवरों को पालतू बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। प्रौद्योगिकी चक्र घूमने लगा। तो अनुसन्धानों का सिलसिला शुरू हुआ। इस युग के दौरान सिन्धु घाटी सभ्यता सहित पहली सभ्यताएँ विकसित हुई। इसके बाद राजनैतिक चेतना, लेखन कला और शहरी बस्तियों का विकास हुआ।
भारतीय उपमहाद्वीप में ई. पू. 7,500 में कृषि कार्य में लगी बड़ी बस्तियों के सबूत सिर्फ बलूचिस्तान में बोलान नदी की घाटी में मेहरगढ़ में मिले हैं। लेकिन भारत के सबसे अनुभवी समुद्र भूतत्त्वशास्त्री एस. राव सौराष्ट्र क्षेत्र में समानान्तर विकास की सम्भावनाओं को नकारते हुए भी खम्भात के इन पुरावशेषों को एक प्रागैतिहासिक स्थल के रूप में स्वीकार करते हैं। श्री राव को एन. आई. ओ. टी. के दल ने शिल्पकृतियों की समीक्षा के लिए बुलाया था। उनका यह मानना है कि खम्भात कम से कम भारत में तो प्राचीनतम ज्ञात मानव बस्ती हो सकती है।
दूसरे विशेषज्ञों का मानना है कि इस खोज को अगर मान्यता मिल गयी तो यह भ्रान्ति दूर हो सकती है कि भारतीय इतिहास बनाया गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय की इतिहासकार नयनजोत लाहिड़ी सम्भावनाओं से उत्साहित हैं, उनका कहना है कि इससे सभ्यता के सिद्धान्त में फेरबदल हो सकती है। अभी तक यही माना जाता रहा है कि नगर सभ्यता पश्चिम एशिया से सिन्धुघाटी और शेष भारत की ओर फैली। खम्भात की खोज से यह अर्थ स्पष्ट होगा कि प्राचीन भारतीय नकलची नहीं थे। भारत देश में सभ्यता यहाँ के लोगों की प्रतिभा और जीवन प्रक्रिया से उपजी थी। हालाँकि इतिहासविद् लाहिड़ी के अनुसार अभी इस सभ्यता की पर्याप्त खोज-बीन जरूरी है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान के पूर्व महानिदेशक श्री जगतपति जोशी लाहिड़ी की इन बातों से इत्तफाक रखते हैं। उनका भी यही मानना है कि ऐसी खोज बीन से ‘वह गुप्त सूत्र’ मिल सकता है, जिसको लेकर इतिहासकार वर्षों से माथापच्ची कर रहे हैं। अभी तक इतिहासकारों के पास यह बताने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं है कि भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुखतः कृषि प्रधान समाज में कैसे यह उछाल आया कि सिन्धुकाल में विश्व के कुछ बेहद सुनियोजित शहर बसाए जा सके। खम्भात नवपाषाण कालीन भारत की प्रारम्भिक मानव बस्तियों के बारे में नए क्षितिज की तरह है। अभी तक की जानकारी यह है कि ये बस्तियाँ पश्चिम एशिया में ही थी और इन्हीं से परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई। अब इस जानकारी में भारी फेर-बदल होने की अनेकों सम्भावनाएँ झाँकने लगी है।
विज्ञान जगत् में कुछ भी निश्चित व अन्तिम नहीं है। पुरातत्व विज्ञान के क्षेत्र में भी यही वैज्ञानिक सिद्धान्त लागू होता है। पुराइतिहास के क्षेत्र में पहले यह माना जाता था कि काँच की चूड़ियाँ पहले पहल ईस्वी सन् की पहली सदी में भारत-रोम सम्बन्धों का नतीजा थीं। फिर हस्तिनापुर पुरास्थल के पुरातात्त्विक उत्खनन में पायी गयीं। जिनका काल ई. पू. 7 आँका गया। इन चूड़ियों की काल गणना तब और पीछे गयी जब ये हाल ही में ई. पू. 2000 के हड़प्पा में पायी गयीं। इन तथ्यों के पीछे निहित सत्य को स्वीकारते हुए इंडियन आर्कियोलॉजिकल सोसायटी के अध्यक्ष एस.पी. गुप्ता का कहना है, वैज्ञानिक अनुसन्धान में कुछ भी स्थायी नहीं है। नई खोजों से काल गणना लगातार बदलती रहती है। उदाहरण के लिए गुजरात के धौलावीरा में हड़प्पाकालीन स्थल की खोज से हमारी सारी काल गणना 1,000 साल पीछे चली गयी।
एन. आइ. ओ. टी. की खोज ने विश्व भर के प्रमुख इतिहासकारों में दिलचस्पी जगायी है और कई प्रश्न सामने आए हैं। दक्षिण एशिया के पुरातत्व विशेषज्ञ हार्वर्ड विश्वविद्यालय के इतिहासकार रिचर्ड मीगे का मानना है कि खम्भात में नवपाषाणकालीन स्थल की खोज उस काल की मेहरगढ़ और पश्चिमी एशिया की घटनाओं के क्रम में है। हालाँकि इस सत्य को स्थापित करने के लिए अभी पर्याप्त अनुसन्धान करने की आवश्यकता है। मीगे का कहना है कि इस खोज को काफी महत्वपूर्ण मानकर इस क्षेत्र में अभी और भी शोध प्रयास करने होंगे। रिचर्ड मीगे का कथन है कि यह खोज इतनी महत्वपूर्ण है कि इस पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक अध्ययन करने की आवश्यकता है। ये अध्ययन कुछ वैसे ही होने चाहिए जैसे कि टाइटैनिक के रहस्य को जानने के लिए किए गए थे।
खम्भात संस्कृति की आज से 9,000 वर्ष प्राचीन सच्चाई को जानने के लिए विशेषज्ञों ने एक बहुआयामी राष्ट्रीय परियोजना शुरू की है। इसमें आर्कियोलॉजिक सर्वे ऑफ इण्डिया, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, अहमदाबाद की भौतिक प्रयोगशाला के अलावा एन. जी. आर. आई., बी.एस.आई.पी. और देश भर के अनेकों प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय एन.आई.ओ.टी. की इस कार्य में मदद करेंगे। विशेषज्ञ इस प्रसंग में जिन प्रश्नों की विशेष तौर पर छान-बीन कर रहे हैं, उनमें से एक है यह खोज करना कि यह शहर किस तरह जलमग्न हुआ। और किस भाँति तट से 30 कि.मी. दूर चला गया। समुद्र विकास विभाग के सचिव और जाने-माने भूगर्भ विज्ञानी हर्ष गुप्त का मानना है कि सम्भवतः भारी भूकम्प इस तबाही का कारण बना होगा। वैसे भी यह क्षेत्र भूकम्प की आशंका वाले क्षेत्र में है। अभी पिछले सालों में भुज में आए भूकम्प ने यह बता दिया है कि यह राज्य कितनी आसानी से भूकम्प के चपेट में आ सकता है।
प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिए शोध प्रयास तो चलते रहेंगे। फिर भी शोध की वर्तमान उपलब्धि कम सन्तोषजनक नहीं है। इसने भारतीय संस्कृति के विश्व में सर्वाधिक प्रथम एवं प्राचीनतम होने का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं व आयामों के अन्वेषण के लिए किए जाने वाले इन अनुसंधानों से निश्चित रूप से राष्ट्रीय गौरव की अभिवृद्धि होगी। इस क्रम में शान्तिकुञ्ज भी प्रयत्नशील है। यहाँ नव स्थापित देव संस्कृति विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित अनेक पाठ्यक्रम एवं परियोजनाएँ संचालित करने की शुरुआत हो रही है। ताकि ऋषियों की पुरातन संस्कृति, सत्यों एवं सूत्रों से राष्ट्रीय जीवन की विश्व वसुधा को परिचित कराया जा सके। खम्भात सभ्यता के वैज्ञानिक तथ्यों से इसमें और भी नए आयामों को जोड़ पाना सम्भव हो सकेगा।