“एकं सद्विप्रा बहुधा वदनित” का मर्म ही बचाएगा मानवता को

June 2001

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धर्म मानव जीवन का प्राण है, जो समस्त मानव जाति को एक सूत्र में बाँधता है, विभिन्न मनकों की माला के रूप में परिणत करता है, व्यक्ति को नए साँचे में ढालने का, उसको फिर से गढ़ने का काम आमतौर से धर्मानुशासन करता है और यह धर्मानुशासन सभी धर्मों में एक ही चर सत्य की ओर से ले जाता है। उसमें कही भी भेदभाव या टकराहट नहीं है। उस धर्मानुशासन की तकाजा है कि हम अपने को सभी बुरी प्रवृत्तियों, मानव प्रकृति की दुष्टताओं और दुर्बलताओं से स्वच्छ कर लें, अपने भीतर देखें, अपने आप का कायापलट कर डालें और अपने आपको उदात्त बनाएँ, महानता की ओर ले चलें, यह है सभी धर्मों की एकता वाला स्वरूप।

अमेरिकन बौद्धिक स्वतंत्रता के नेता वाल्ट ह्रिटमैन ने ‘साँग ऑफ माइसेल्ट’ में कहा है, “सभी धर्म सत्य हैं। जिस प्रकार विभिन्न वाद्य यंत्रों के स्वरों में भिन्नता के बावजूद उनका सम्मिलित स्वर सबको मोहित कर लेता है, उसी प्रकार संसार में विभिन्न धर्म एवं जातियों का अस्तित्व समाप्त किए बिना, उन्हें एकता के सूत्र में पिरोकर एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। स्वतंत्रता आँदोलन में हिंदू मुस्लिम- सिक्ख-ईसाई सभी ने भाई-भाई की तरह कंधे से कंधा मिलाकर अपना योगदान दिया। उस समय सबकी एक भावना थी- हम भारतीय है।” यहाँ कहा भी जाता है-

उश्रंर यत् समुद्रस्य हिमादृश्चैव दक्षिणं। वर्षतं भारतः नामः भारतीय यत्र संतति॥

अर्थात् समुद्र के उत्तर में, हिमालय के दक्षिण में स्थित भूमि गत भारत है और उसमें रहने वाले भारतीय उसकी संतान है। इसका यही आशय हुआ कि सभी भारतीय भाई-भाई हैं और भारत उनकी माँ।

वस्तुतः अपनी सुरक्षा एवं प्रगति के लिए मनुष्य खानाबदोश जीवन छोड़कर समूह में एक स्थान पर रहने लगा। इससे समाज बना, फिर राज्य और राष्ट्र। आपस में एकता एवं अनुशासन रखने के लिए धर्म का सहारा लेकर नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती थी। उद्देश्य क्या था, पर स्वार्थ लिप्त तत्वों ने उसका क्या स्वरूप बना दिया?

विभिन्न सामाजिक परिवेश एवं भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण विभिन्न धर्मों के सिद्धाँतों के प्रकटीकरण में थोड़ा अंतर है। विभिन्न धर्मों में ईश्वर के अलग-अलग नाम हैं, किंतु सबमें यही कहा गया है ईश्वर एक है तथा सबका पालनहार है।

वेदों में लिखा है, ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात् एक ही ईश्वर को विज्ञजन विभिन्न नामों से पुकारते हैं। ‘एकोऽहम् बहुस्यामि’ का ईश्वरीय उद्घोष इस ओर इंगित करता है कि संसार उसी परमात्मा का प्रारूप है। कुरान शरीफ कहता है, ‘ फाएनमा तबल्लू फसमा बज हिल्ला’ अर्थात् जिस ओर भी तुम दृष्टि फेरो, अल्लाह का जलवा नजर आएगा। सूफी मत भी यही कहता है कि ईश्वर एक तथा अनल -हक (परम सत्य एक) है तथा संसार उसका जिल्ल (वास्तविकता की अभिव्यक्ति) है। बाइबिल में वर्णन है। “ परमेश्वर एक है, जो निरंजन, निराकार और ज्योतिस्वरूप है।” यहूदी मतानुसार “ईश्वर एक, निराकार तथा संपूर्ण ब्रह्मांड का सृजेता, सृष्टि का पिता है।” पारसी धर्म में भी ईश्वर को एक तथा अहूरमज्द (सर्वशक्तिमान) बताया है।

धर्म के आधार पर मतभेद का कोई आधार नहीं है। कुरान कहता हैं, “अल्लाह के अलावा जिन दूसरे इष्ट देवों को लोक पूजते हैं, उनका तुम तिरस्कार मत करो, अन्यथा अज्ञानता के कारण द्वेषवश वे लोग अल्लाह का तिरस्कार करने लगेंगे। यह पुण्य नहीं है कि अपने मुँह को पूरब या पश्चिम की ओर कर लो पुण्य तो मृत्यु दिन, परमेश्वर,पैगंबरों ग्रंथों पर श्रद्धा करने में हैं। साथ ही प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव रखना तथा सदैव ईमानदार बने रहना परम धर्म है।” सच्चे सूफी का ध्येय है, “ अहं विनाश तथा उत्कट प्रेम का प्रकटीकरण।” रुमी ने लिखा है, “जहाँ इकाइयों (विभेदों) का अस्तित्व नष्ट हो जाता है, वही एकत्व स्थापित होता है। व्यक्तिगत अहंकार नष्ट होने पर सिर्फ ईश्वर रह जाता है और तब सर्वव्यापक प्रेम का उद्भव (भक्तियोग) होता है”

श्रीमद्भागवत में भी कहा है कि जैसे विभिन्न ज्ञानेंद्रियाँ एक ही वस्तु में अलग-अलग गुण अनुभव करती है, उसी प्रकार विभिन्न धर्मशास्त्र एक परमेश्वर के अनेक पक्षों की ओर इंगित करते हैं।

चीन में कन्फ्यूशियसवाद, ताओवाद और बौद्ध धर्म के अनुयायी जब परस्पर मिलकर अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं, तब गोष्ठी के अंत में वे यह सहगान करते हैं-

धर्म अनेक हैं, पर तर्कना एक है, हम सभी भाई-भाई हैं। जेन्द-ए-अवेस्ता में कहा गया है “आर्य देशों, तूरानी देशों, मलय देशों, सीरियाई आदि सभी देशों के धर्म प्राण आस्तिक लोगों का हम समादर करते हैं।” महात्मा जरथुस्त्र कहते हैं, हम संसार के नीतिपरायण प्राचीन धर्मों की पूजा करते हैं।”

मुहम्मद साहब कहते हैं, “हर कौम के लिए हमने इबादत के तरीके मुकर्रर किए हैं।”

प्रोफेसर आर्नल्ड टायनबी लिखते है, “यह मेरा निजी विश्वास है कि जिस युग मैं जी रहा हूँ, उस युग में प्रचलित चार श्रेष्ठ धर्मों का मूल कथ्य एक है। वे एक ही बात को अलग -अलग ढंग से कहत हैं। यदि विश्व के इस स्वर्गिक संगीत का चार अवयवों को कोई एक ही साथ समान स्पष्टता से अपने दोनों कानों से सुन सके, तो उसे यह जानकर प्रसन्नता होगी कि वह कोई विसंवादी स्वर नहीं, प्रत्युत प्रसंवादी स्वर ही सुन रहा था।”

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि धर्म का प्रयोजन है इस विभक्त चेतना वाले जगत् से जिसमें विभेद है, द्वित्व है, समर समय, स्वातंत्र्य एवं प्रेममय जीवन में विकसित होने से हमारी मदद करना। सारे धर्म ग्रंथ भी ईश्वर प्रेरित हैं, अतः उपदेश करने, भर्त्सना करने, सुधार करने और ईमानदारी का प्रशिक्षण देने में लिए इनकी उपादेयता है। धर्म ग्रंथों का उद्देश्य यही है कि ईश्वरीय जनों की हर अच्छे कार्य में स्वयं को, समाज को सक्षम बनाने के लिए आवश्यक सहायताएँ ली जाएँ।

अपनी अपूर्णता का अहसास होने पर ही मानव ईश्वर से एकाकार होने के लिए आतुर हो उठता है। परम सत्ता से संपर्क होने के पश्चात वह पुनः मानव जाति की सेवा के लिए तत्पर हो जाता है। आध्यात्मिक व्यक्तित्व संपन्न ऐसे महामानस के श्रद्धापात्र बनते हैं। इन महात्माओं के अपने’-अपने धर्मों एवं पंथों के अधिकाँश अनुयायियों में परस्पर जितनी समानता नहीं पाई जाती, उससे कही अधिक समानता इन महात्माओं के बीच पाई जाती है।

अशोक ने अपने बारहवें शिलालेख में घोषणा की थी, जो मनुष्य अपने धार्मिक संप्रदाय के मोह में पड़कर उसकी गौरव वृद्धि की इच्छा से दूसरे धर्म संप्रदायों की निंदा करता है। और अपने धर्म संप्रदाय के प्रति समादर प्रकट करता है, वह वास्तव में अपने इस आचरण से अपने ही संप्रदाय को भारी क्षति पहुँचाता है। इसलिए विभिन्न संप्रदायों के बीच मेल मिलाप पैदा करना ही उचित है अर्थात् दूसरे लोगों द्वारा स्वीकृत, पावित्र्य एवं धर्मनिष्ठा के विधि नियम के प्रति स्वेच्छया सद्भाव रखना सराहनीय है। आज संसार हठधर्मिता, अतिबद्धता और असहिष्णुता के रोग से पीड़ित है और इतिहास साक्षी है कि इन्हीं कारणों से मानव जाति खून के आँसू बहा चुकी है। धर्मों और आधुनिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के सम्बन्ध में जो अनुभव सारी दुनिया में हुए हैं, उनके प्रभाव के कारण सारी मानव जाति एकजुट हो समाज में बदलती जा रही है। अब यह संभव नहीं कि विभिन्न सभ्यताएँ आपस में मतभेद रहते हुए टिक पाएँ।

भौतिक साधन, बौद्धिक क्षमता अथवा कुशलता का अभाव तो हमारे मध्य विभेद उत्पन्न नहीं कर रहे। इसका मुख्य कारण तो मानव स्वभाव का लोभ, पद, प्रतिष्ठा, हठवादिता, घमंड इत्यादि है। आज जब पूर्व और पश्चिम के महान विचारकों ने विज्ञान और आध्यात्मिक जीवन दोनों की आवश्यकता महसूस की है तब दुर्भाग्यवश दुनिया के धर्म स्वयं आलोचना के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में आवश्यकता है एक ऐसी धार्मिक आस्था की, जिसको मनुष्य समझ सके, जो तर्क एवं विवेक की कसौटी पर कसी जा सके।

रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है, भारी मुश्किलों के बावजूद भारत ने सभी धर्मों व जातियों के सामंजस्य का प्रयत्न किया है। उनके बीच को वास्तविक भिन्नता को स्वीकार करते हुए एकता के कुछ आधार तलाशे हैं। वैज्ञानिक उपादानों के चलते सारा विश्व एक देश में तब्दील हो रहा है और वह समय आ गया है, जबकि आपको एकता का एक ऐसा आधार भी तलाशना होगा, जो गैर राजनीतिक हो। अगर भारत दुनिया को अपना समाधान दे सका, तो यह मानवता को एक मूल्यवान योगदान होगा।

जिन लोगों में उदात्त शक्ति की कमी है और जो परस्पर साहचर्य से नहीं रह पाते या तो नष्ट हो जाते है या अपकर्ष की स्थिति में जीवित रहते हैं। सिर्फ वे लोग जिनमें सहयोग की मजबूत भावना रहती है, स्वयं जीवित रहते हैं और सभ्यता की उन्नति करते हैं।

वर्तमान सदी में हममें से प्रत्येक को अपने अंदर छिपी असामान्यता को पहचानकर विश्व समाज के एक नागरिक भावनाओं को अपनाते हुए संकीर्णता से विशालता की ओर अग्रसर होना है। तभी हमारे अवतारों, महामानवों, पैगंबरों एवं नबियों का स्वप्न कि सारा राष्ट्र ही नहीं समूचा विश्व मिल जुलकर काम करे, चरितार्थ होगा।


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