वरदान का अभाव (kahani)

June 2001

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उत्तरकाल पर परमार्थपरायण जीवन जीने वालों की मनःस्थिति सदैव उपवन के गुलाब की तरह होती है। प्रातःकाल की पवन लहरी आई और गुलाब को स्पर्श कर चली गई। पत्ते ने हँसते गुलाब को देखा, तो आग-बबूला हो गया। बोला, यह भी कोई जीवन है, माली आता है और असमय में ही तुम्हारी जीवन-लीला समाप्त कर देता है, इतने अल्प जीवन में भी क्या आनंद? मैं रोज देखता हूँ, कितने फूल खिलते हैं और मुरझा जाते है। गुलाब ने बड़े शाँत स्वर में उत्तर दिया, भाई! जीवन का अर्थ है-सच्ची सुगंध। इस प्रकार चारों ओर सुगंध को फैलाते हुए आमंत्रित मृत्यु ही जीवन और अमरता है।

रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदामणि जब युवा हो गई, तब अपने पति के पास दक्षिणेश्वर मंदिर आई। परमहंस जी ने उन्हें पूरे स्नेह और सम्मान के साथ रखा। साथ ही अपना लक्ष्य भी उनके सामने रखा कि वे ब्रह्मचर्यपूर्वक आध्यात्मिक क्रिया-कलापों में संलग्न रहना चाहते है। यदि वे आज्ञा दें, तो इस व्रत को न तोड़े।

शारदामणि ने सहर्ष सहमति दे दी और वे पति के साथ रहते हुए भी, आजीवन ब्रह्मचारिणी रही। जितने पति के शिष्य-भक्त आते थे, उन्हें वे अपनी संतान की तरह स्नेह देती थी।

उन दिनों बंगाल में सती प्रथा का प्रचलन था। वे भी सती होना चाहती थी। पर मरते समय परमहंस जी ने आदेश दिया, “आत्महत्या से कोई लाभ नहीं। तुम मेरा छोड़ा काम पूरा करो।” उन्होंने आदेश पाला और जब तक जीवित रही, भक्तजनों को ज्ञान तथा वरदान का अभाव नहीं खटकने दिया।


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