संसार के माने हुए वैज्ञानिक आइन्स्टीन, बचपन में बड़े फिसड्डी थे। साथी लड़के उनका हमेशा मजाक उड़ाते थे। एक दिन अत्यंत गंभीरतापूर्ण उन्होंने अध्यापक से पूछा,"क्या मैं किसी प्रकार सुयोग्य बन सकता हूँ ?" अध्यापक ने उन्हें संक्षेप में एक ही उत्तर दिया,"दिलचस्पी और एकाग्रतापूर्वक अभ्यास, यही एक गुरुमंत्र है, विद्वान् बनने का।" आइन्स्टीन ने वह बात गिरह बाँध ली और विषयों के अध्ययन में तन्मय हो गए। परिणाम स्पष्ट है, वे संसार में अणु विज्ञान के पारंगत और सापेक्षवाद के जनक माने गए। उनकी वह पुरानी बुद्ध कहलाने वाली बुद्धि हजार गुनी होकर विकसित हुई।
साबरमती आश्रम में भोजन बंद के उपराँत कई अतिथि आए, उनमें पं. मोतीलाल नेहरू भी थे। कुछ भोजन बनाने की आवश्यकता पड़ी। बा उसी समय थककर लेटी थीं। उनकी आँख लग गई। आश्रम में एक ट्रावनकोर का लड़का काम करता था। एक लड़की कुसुम भी भोजन में सहायता करती थी। गाँधी जी ने इन दोनों बच्चों से कहा, “कुछ भोजन बना डालो।” वे जुट गए और प्रबंध हो गया। बा जगीं, तो उन्हें दुख हुआ। बोलीं, ‘मुझे क्यों नहीं जगाया? इन बच्चों को भी तो आराम की आवश्यकता थी।” पति-पत्नि की इसी परदुःख कातरता ने, सेवा के प्रति निष्ठा ने उन्हें विश्ववंद्य बना दिया।