मिथिला के पंडित गंगाधर शास्त्री एक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनका लड़का गोविंद भी उसी में पढ़ता था। गोविंद भी पिता की तरह बड़ा शिष्ट और अनुशासनप्रिय था। सहपाठी उसे बहुत स्नेह और सम्मान देते थे एक दिन शास्त्री जी के साथ गोविंद विद्यालय नहीं पहुँचा। स्कूल बंद करके जब वे चलने लगे, तो विद्यार्थियों ने पूछा, गोविंद आज क्यों नहीं आया? शास्त्री जी ने भारी मन से कहा, गोविंद को अचानक दौरा पड़ा और वह वहाँ चला गया, जहाँ से फिर कोई नहीं लौटता। विद्यार्थी स्तब्ध रह गए। साथी के निधन का भारी दुख हुआ। साथ ही इस बात का आश्चर्य भी कि ऐसी दुर्घटना होने पर भी शास्त्री जी पढ़ाने कैसे आ सके और बिना माथे पर शिकन लाए किस प्रकार रोज जैसी कक्षा चलाते रहें अपना असमंजस लड़कों ने शास्त्री जी के सामने व्यक्त भी किया। पंडित जी ने उत्तर दिया, “बच्चों! पिता के हृदय से गुरु का कर्तव्य बड़ा होता है।”
पति-पत्नी में अनबन हो गई। एक दूसरे को कटु शब्द बोल गए। मनो को चोट पहुँची और बोलचाल बंद हो गई। उनका एक सात वर्षीय बालक था। वह कही से गीत के बोल सुन आया, “मुख से कड़वे बोल न बोल।” बालक को स्वर रुचा। वह उसे पिता के कमरे में बैठकर गुनगुनाने लगा। पिता का उस पर ध्यान गया, तो चौंके, मन में खीझे, क्या मैं ही कड़वा बोलता हूँ? बच्चे से बोले, “बेटा जा, अपनी मम्मी के कमरे में जाकर गा।” भोला बालक वही गीत माँ के कमरे में जाकर गाने लगा। माँ ने सुना, तो खीझ भी आई और हँसी भी। वह भी बोली, “ बेटा जा, अपने पिताजी के पास बैठकर गा।” बालक फिर पिता जी के कमरे में जाकर गाने लगा, तो डाँट पड़ गई। बेचारा क्या करता? दोनों कमरों के बीच बरामदे में बैठकर गाने लगा, ‘मुख से कड़वे बोल न बोल’। आवाज सुनकर माता-पिता दोनों अपने कमरे से निकले, बच्चे को रोकते, पर एक दूसरे को देखकर चुप रह गए। बालक ने दोनों को देखा, भाव पढ़े और बोला, “आप दोनों को यह गाना अच्छा नहीं लगता, तो अलग बैठकर गा रहा हूँ। अब क्या शिकायत है?” पति-पत्नी ने एक दूसरे को देखा एवं अपनी भूल समझी। दोनों बालक के पास गए, बोले, “अच्छा भाई हमें भी अच्छा लगता है। अब हमारे सामने गा लो। तुमने वस्तुतः हमें अपनी गलती का बोध करा दिया।” सद्विचार कही से भी उभरें, ग्राहय हैं।