आत्मकल्याण का उद्देश्य (kahani)

June 2001

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एक व्यक्ति के पास रेशम का थान था, धागे आपस में लड़ने लगे। अलग-अलग रहने की सबने ठानी। दर्जी ने उनके टुकड़े काट दिए।

एक जगह खजूर की पत्तियाँ थी। सूखी और बिखरी पड़ी थी। उन्होंने मिल जुल कर रहने का निश्चय किया। माली ने इकट्ठी करके उनकी चटाई बुन दी।

रेशम की धज्जियाँ दुकान दुकान पर मारी-मारी फिरीं, किसी ने नजर उठाकर भी उन्हें नहीं देखा, जबकि चटाई का गट्ठा हाथों हाथ बिक गया।

अलग होने और शामिल रहने का अंतर दोनों ने समझा और भविष्य के लिए सही रास्ता अपनाया।

राहगीर को काशी जाना था, सो रास्ता चलते समय उसकी दृष्टि मील के पत्थर पर पड़ी। काशी की दूरी और दिशा का संकेत उस पत्थर पर खुदा था। राहगीर रुककर वही बैठ गया, कहने लगा, “अंकन गलत नहीं हो सकता। प्रमाणिक लोगों ने लिखा है। काशी आ गई। अब आगे जाने की क्या जरूरत रही?” कोई समझदार उधर से निकला और पत्थर के पास आसन जमाकर बैठने का कारण जाना, तो कहा, “पत्थर पर संकेत भर है। काशी पहुँचना है, तो पैरों से चलकर दूरी पार करनी होगी।” भोले व्यक्ति ने अपनी भूल मानी और बिस्तर समेटकर चल पड़ा, पर समझदारों को समझाया जाना अत्यंत कठिन है। वे शास्त्र पढ़ते और सुनते रहते हैं और सोचते रहते हैं, इतने भर से धर्म-धारणा का, आत्मकल्याण का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।

दार्शनिक हिक्री उन दिनों तुँबा में रहते थे कई लोग उनसे उलझी गुत्थियाँ सुलझाने संबंधी परामर्श करने आते। एक दिन एक व्यक्ति अपनी पत्नी समेत उनके पास पहुँचा और उसके आलस्य तथा कंजूसी की बुराई करने लगा। सचमुच यह दोनों बुराइयाँ उसमें थी भी। हिक्री ने उस औरत को अपने पास बुलाया। एक हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसके सामने की और पूछा, “ यदि यह ऐसे ही सदा रहा करे, तो क्या परिणाम होगा, बताओ तो लड़की।” औरत सिटपिटाई तो, पर हिम्मत समेटकर बोली, “यदि सदा यह मुट्ठी ऐसी ही बंधी रही, तो हाथ अकड़कर निकम्मा हो जाएगा।”

हिक्री इस उत्तर को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे हाथ की हथेली बिल्कुल खुली रखकर फिर पूछा, “ यदि यह हाथ ऐसे ही खुला रहे, तो फिर इस हाथ का क्या हाल होगा, जरा बताओ तो।” औरत ने कहा, “ऐसी हालत में यह भी अकड़कर बेकार हो जाएगा। हिक्री ने उस औरत की भरपूर प्रशंसा की और कहा, “यह तो बुद्धिमान भी है और दूरदर्शी भी। मुट्ठी बँधी रहने और हाथ सीधा रहने के नुकसान को यह अच्छी तरह जानती है।” पति पत्नी नमस्कार करके चले गए। औरत रास्ते भर संत के प्रश्नों पर बराबर गौर करती रही और घर जाकर पति की सहायता करके अधिक कमाना और बचत को खुले हाथ से दान करना आरंभ कर दिया।


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