संस्कृति की ओर यात्रा ही बचाएगी हमें

June 2001

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प्राचीन भारत केवल आध्यात्मिक एवं साँस्कृतिक दृष्टि से ही उन्नत नहीं था, वरन् राजनीतिक क्षेत्र में भी उसने बहुत उन्नति कर ली थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रकाशन के बाद विदेशी विद्वान भी मानने लगे कि भारत की राजनीतिक प्रौढ़ता बहुत प्राचीन है। यहाँ के दंड विधान केवल जनता के लिए ही नहीं, वरन् राजा के लिए भी थे। सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्री युत काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने ग्रंथ ‘हिंदू पोलिटी’ में यह सिद्ध किया है कि चाणक्य के अर्थशास्त्र के पहले भी ऋग्वेद काल में राजनीतिक शासन प्रचलित था। राजा चुने जाते थे। राज्य व्यवस्था पर जनता का पूरा अधिकार था, निष्पक्ष कार्य न करने पर वह राजा को हटा सकती थी, इसके अतिरिक्त कितने ही जनतंत्र थे, जिसका शासन गाँव वाले सभा और समितियों के माध्यम से चलाते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, सुप्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ-मण्ज्ञिम निकाय एवं पाणिनी के अष्टाध्यायी ग्रंथ में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

श्री अविनाश चंद्र दास ने अपने खोजपूर्ण ग्रंथ ‘ऋग्वैदिक कल्चर’ में उस समय की सभा-समितियों का वर्णन करते हुए लिखा है कि वैदिक कार्यों में जनतंत्रीय प्रवृत्तियाँ थी। सार्वजनिक तथा निजी कार्यों को सभा में रखा जाता था। नेता का चुनाव भी सभा में ही होता था। प्रत्येक वयस्क ग्रामवासी बिना किसी वर्ग-भेद के इसमें भाग ले सकता था। कृष्ण-यजुर्वेद में उल्लेख है कि बड़े पैमाने पर इस सभा में स्त्रियाँ भी भाग लेती थी। किसी को भी अपना मत प्रकट करने से रोका नहीं जा सकता था। ऋग्वेद में अनेकों ऐसे मंत्र है, जिनसे स्पष्ट है कि समितियों की बैठकें नगरों में होती थीं और इसमें राजा का चुनाव योग्यता के आधार पर होता था और वह जनता की भलाई के कार्य करने तक ही पद बना रह सकता था। अथर्ववेद में राजा चुने जाने का स्पष्ट उल्लेख है-

इन्द्रेन्द्र मनुष्याफः परेहि सं ह्वज्ञास्थ वरुणै संविदानः। स त्वायमह्नत् स्वे सधस्थे स देवान् यक्षत् स उ कल्पवाद् विशः।

अर्थात् हे राजन्! आप आम जनता के सामने आइए और आप अपने निर्वाचन करने वालों के अनुकूल हो। इस पुरोहित ने आपके योग्य स्थान पर यह कहकर बुलाया है कि आप इस देश में स्तुत्य हों और जाति को भी अपने सन्मार्ग पर चलने दें। एक अन्य मंत्र है-

त्वाँ विशों वृणताँ राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पंच देवीः। वर्ष्मन् राष्ट्रस्य ककुदि श्रयज्ञव ततो न उग्रो विभजा वसूनि।

अच्छ त्वा यन्तु हविनः सजाता अग्निदूतो अजिरः सं चरातै। जायाः पुत्राः सुमनसो भवन्तु बहु बलिं प्रति पश्यासा उग्रः।

अर्थात् हे राजन्! राजकाज कराने के लिए प्रजा तुझे निर्वाचित करे। राजा के श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठकर तू हम लोगों में उग्र होते हुए भी धन बाँट दिया कर। तेरे अपने देशवासी तुझे बुलाते हुए तेरे पास आवें। तेरे साथ एक चतुर तेजयुक्त दूत हो। राष्ट्र में जितनी स्त्रियाँ और उनके पुत्र हों, वे तरी ओर मित्रभाव से देखें और तू तभी उग्र होकर बाहुबली बनेगा।

इसी तरह के अनेक मंत्र अथर्ववेद में भी है, जिनमें राजा के निर्वाचन का उल्लेख है। राज्याधिकारी प्राप्त करते समय राजा को पुरोहित के सामने निम्न प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी-

“मैं नियमानुसार शासन करूंगा। यदि नहीं करूं तो आप मुझे सभी प्रकार के दंड दे सकते है। मेरी निंदा-प्रशंसा, पुत्र, कलत्र एवं जीवन तक आपके हाथ में है। राज्य को हानि पहुँचाऊँ या उसके प्रति द्रोह करूं, तो मुझे परिजनों से अलग कर बंदीगृह में डाल सकते है।”

प्रतिज्ञा याद रहे, इसके लिए राजपुरोहित राजा की पीठ पर सात डंडे लगाता था।

कोई राजा यदि निर्वाचन के बाद अपनी प्रतिज्ञा भूल जाता व अन्याय पर उतर आता, तो इसके लिए अनेक प्रकार की दंड व्यवस्था थी। इसका विस्तृत वर्ण मनुस्मृति, शुक्रनीति, चाणक्य नीति और विदुर नीति में किया गया है। शुक्राचार्य के अनुसार-

गुणनीतिबलद्वेषी कुलभूतोऽयधार्मिकः। प्रकृत्यनुमतिं कृत्वा स्थापयेद्राज्यगुप्यते।

अर्थात् जो राजा मूर्खता एवं मोहवश होकर अपनी प्रजा को सताता हो, वह शीघ्र ही राज्य से हटा दिया जाना चाहिए। वह निश्चित ही बंधु-बाँधवों समेत मृत्युलोक को प्राप्त होगा।

इसी प्रकार राजा को अपने अपराधों के प्रायश्चित के लिए अनेक विधि-विधान भी बने हुए थे। उस समय राजा व राजपुरुष इतने संवेदनशील होते थे कि स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर अपने आपके लिए दंड निर्धारण करते थे। शुक्रनीति के अनुसार साधारण व्यक्ति से राजा को अधिक दंड देने का प्रावधान था।

कार्षापणं भवेद्दण्डयो यत्रान्यः प्राकृतो जनः। तत्र राजा भवेद्दण्डयः सहस्त्रमिति धारणा।

अर्थात् जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दंड होता था, उसी अपराध पर राजा को सहस्र पैसा दंड देना पड़ता था।

हिंदू धर्मशास्त्र में अत्याचारी शासकों को अपने पद से हटाने के अनेक उदाहरण मिलते है। अधिक उद्दंड होने पर उसका वध तक कर दिया जाता था। महाभारत में राजा वैन का वध कर उसके स्थान पर पृथु को राजा बनाने का स्पष्ट उल्लेख है।

प्राचीन समय में जब राजतंत्र तक में भी शासक का कार्य जनानुकूल होता था, तब यह कितना हास्यास्पद है कि आज लोकताँत्रिक शासक अपराधीकरण की ओर बढ़ रहे हैं? ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि वे अपने गौरवपूर्ण प्राचीन परंपरा एवं उत्कृष्ट मूल्यों को भुला बैठे है। नष्ट हुई संवेदनशीलता के कारण ही आज उनकी यह दशा है।

आज के दौर में उपयुक्त यही है कि राजतंत्र के लिए एक निश्चित आचार-संहिता हो और जिसका आधार भारतीय शास्त्रों पर आधारित हों। उसका पालन सभी लोग मन, वचन, कर्म की पवित्रता के साथ करे। उसका अनुगमन अन्य सभी करेंगे, तो पुनः हम अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करेंगे।


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