माँसाहार है आसुरी संस्कृति का प्रतीक

June 2001

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अपने सुख एवं स्वार्थ लिप्सा की अंधी दौड़ में मनुष्य अपनी मनुष्यता खो बैठा है। माँसाहार का बढ़ता प्रचलन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। स्वभाव से मनुष्य एक शाकाहारी प्राणी है। उसके दाँत, लंबी आँत, पसीने वाली त्वचा, नाखून आदि सभी शारीरिक लक्षण उसकी शाकाहारी नैसर्गिकता को प्रकट करते है। जहाँ एक ओर मनुष्येत्तर शाकाहारी जीव भोजन न मिलने पर प्राण त्याग देते है, वही मनुष्य अपने शौक, व्यवसाय एवं स्वाद के लिए पशु-पक्षियों के प्रति की गई नृशंस हत्या करने से नहीं चूकता। दूसरे प्राणियों के प्रति की गई नृशंस क्रूरता उसके अपने जीवन में एक अभिशाप बनकर आती है और उसके शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शाँति (पारिवारिक सौहार्द्र) एवं सामाजिक संतुलन व्यवस्था की जड़ों को हिला देती है।

पौष्टिकता की दृष्टि से माँसाहार किसी भी तरह समग्र आहार नहीं है। संतुलित भोजन के लिए मनुष्य के आहार में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन व खनिज लवण का उचित मात्रा में होना अनिवार्य है। माँस- प्रोटीन एवं वसा प्रधान आहार है। इसमें कार्बोहाइड्रेट, रेशे, विटामिन-सी एवं विटामिन-के का सर्वथा अभाव पाया जाता है।

माँस में कोलेस्ट्रॉल व हानिकारक सेचूरेटिड फेटी एसिड के अतिरिक्त अन्य विषाक्त तत्व भी पाए जाते है। माँस उत्पादन को बढ़ाने के लिए उपयुक्त हार्मोन व कीटनाशक दवाइयों के कारण भी माँस अभक्ष्य हो जाता है। ऐसे हार्मोस में डी. इ. एस. (क्ण् म्ण् ण्) व एम. जी. ए. (डण् ळण् ।ण्) और कीटनाशक दवाइयों में डी. डी. टी, पी. सी. वी, पी. वी. वी. आदि प्रमुख है। अमेरिका की जनरल एकाउंटिंग आफिस रिपोर्ट के अनुसार माँस में क्ब्फ् रसायन तत्व निर्धारित मात्रा से अधिक पाए गए, जिनमें ब्स्त्र कैंसर कारक थे व ख्म् जन्म संबंधी विकृति से जुडे थे।

दूसरा माँसाहार के संदर्भ में यह धारणा प्रचलित है कि यह बलवर्द्धक होता है। उक्त धारणा आधे-अधूरे तथ्यों पर आधारित है। माँस में विद्यमान चर्बी हृदय रोग, रक्तचाप, मधुमेह जैसे रोग पैदा करती है। ऊर्जा का आदर्श स्त्रोत है कार्बोहाइड्रेट, जो माँस में होता ही नहीं। प्रोटीन का प्रधान कार्य माँसपेशियों के ऊतकों का निर्माण है। दूसरा माँसीय प्रोटीन में विद्यमान युरिक एसिड, लकोमीन, क्रेरियन जैसे विषाक्त पदार्थ माँसाहारी के शरीर के इकट्ठे हो जाते है, जिससे कई तरह के विकार पैदा होते है। माँसाहार शक्तिवर्द्धक की बजाय रोग व शक्ति क्षय का कारण बनता है। माँस में विद्यमान विषाक्त तत्व जो उत्तेजना पैदा करते है, वह शक्ति का भ्रम हो सकता है, वस्तुतः माँस शक्तिवर्द्धक नहीं है।

वनस्पति से उपलब्ध कार्बोहाइड्रेट, चिकनाई व चीनी, माँस प्रोटीन की अपेक्षा अधिक बलदायक है। शक्ति का असली स्त्रोत है शाकाहार। खिलाड़ियों की शक्ति पर आहार के प्रभाव की हुई शोध से यह तथ्य प्रमाणित हुआ है। एक डेनिश शोधकर्त्ता के अनुसार तीन दिन में मिश्रित आहार से- माँस, अंडे प्रधान आहार लेने पर खिलाड़ियों की शक्ति में आधी कमी देखी गई व पूर्णतः शाकाहारी भोजन लेने पर इसमें भ् प्रतिशत वृद्धि पाई गई। विश्व के श्रेष्ठतम तैराक मूर्रे रोज व जोनी वेसमतर पूर्णतः शाकाहारी थे। इसके अतिरिक्त फुटबाल, भारोत्तोलन जैसे शक्ति प्रधान खेल में भी शाकाहारी खिलाड़ी अपना वर्चस्व जमाते देखे गए है।

मनुष्येत्तर प्राणियों में घोड़ा शाकाहार की शक्ति का आदर्श उदाहरण है। उसकी शक्ति को देखते हुए ही शक्ति की मापन इकाई हार्सपावर रखा गया है। उसकी शक्ति, स्फूर्ति व सूझ-बूझ शाकाहार का परिणाम है। इस ग्रह का प्रथम जीवधारी डायनोसौर भी शाकाहारी जीव था। हाथी-शेर की लड़ाई में हाथी ही अंत तक डटा रहता है। शेर जैसा माँसाहारी जीव चाहे अधिक हिंसक एवं खूँखार हो सकता है, लेकिन शक्ति व क्षमता में शाकाहारी हाथी से पीछे रह जाता है। गाय, ऊँट, भेड़, बकरी, खरगोश, हिरन जैसे शाकाहारी जीव अपने अजस्र अनुदानों द्वारा हमें अनुग्रहीत कर रहे हैं।

माँस उत्पादन व्यवसाय विश्व की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। इसके कारण विश्व का खाद्य संकट गहराता जा रहा है व कई तरह की पर्यावरण संबंधी समस्याएँ भी पैदा हो गई है। एक अध्ययन के अनुसार ख्ब् लाख टन प्रोटीन माँस उत्पादन के लिए ख् करोड़ टन वानस्पतिक प्रोटीन पशुओं को दिया जाता है अर्थात् क् प्रतिशत प्रोटीन संसाधन प्रक्रिया में ही नष्ट हो जाता है। ख्क् पौंड वनस्पति प्रोटीन से मात्र क् पौंड माँसीय प्रोटीन तैयार हो पाता है। अमेरिका के अन्न उत्पादन का स्त्र प्रतिशत पशुओं को खिलाया जाता है। अमेरिका में यदि माँस भक्षण बंद हो जाता है, तो विश्व की क् प्रतिशत प्रोटीन की कमी पूरी हो जाए। कुछ अन्य देश भी यदि माँस छोड़ दे, तो सारे विश्व में भूखे पेटो को भरपेट भोजन मिल जाए। ज्ञातव्य हो कि आज विश्व के एक अरब लोग भूख व अधूरे पोषण से पीड़ित है। इनमें से चार करोड़, जिनमें अधिकाँशतः बच्चे है, भूख एवं कुपोषण के कारण प्रतिवर्ष मौत से मुंह में चले जाते है।

माँस उत्पादन के व्यवसाय से वर्षा वन उजड़ रहे है। एक अमेरिकी अर्थशास्त्री के अनुसार ब् ओंस वजनी हेमवर्गर के पोषण में भ्भ् वर्ग फुट वर्षा वन नष्ट हो जाते है। एक अन्य अध्ययन के अनुसार जितना शाकाहारी भोजन एक हेक्टेयर भूमि में उत्पन्न होता है, उतना ही माँस उत्पादन में स्त्र हेक्टेयर भूमि लगती है अर्थात् माँस उत्पादन में भूमि का सात गुना अधिक उपयोग होता है।

माँस उत्पादन में पानी की खपत बहुत ज्यादा होती है, जिसके कारण जलाभाव की समस्या खड़ी हो रही है। कैलिफोर्निया में एक अध्ययन के अनुसार एक पौंड के उत्पादन में होने वाले जल की गौलन लागत इस तरह से है, साग-सब्जी ख् गैलन, गेहूँ ख्ब् गैलन, सेब ब्क् गैलन, संतरा म्भ् गैलन, अंगूर स्त्र गैलन, दूध क्फ् गैलन, अंडा भ् गैलन, सुअर क्फ् गैलन, गौमाँस भ्ख्क्क् गैलन। एक पौंड माँस उत्पादन में खरच होने वाले जल से एक सामान्य परिवार के एक महीने की जल आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है।

वर्ल्ड वॉच इन्स्टीट्यूट की क्क्क्क् की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण संतुलन के लिए अमीरों को माँस खपत कम करनी होगी व पशु-कृषि के कारण उत्पन्न आर्थिक एवं पर्यावरणजन्य समस्याओं पर पुनर्विचार करना होगा।

माँसोत्पादन के साथ एक गंभीर समस्या पर्यावरण प्रदूषण की जुड़ी हुई है। भारत में इस समय फ्त्त्ख्क् कत्लखाने है। यहाँ से निकलने वाली गंदगी रोगाणुओं का प्रसूतिगृह है। कत्लखानों से प्रतिवर्ष क्क् लाख म् हजार टन गंदगी निकलती है, जो पर्यावरण को प्रदूषित कर रही है। दिल्ली के एक वैज्ञानिक समूह के अनुसार प्लेग आदि महामारियाँ फैलने का प्रमुख कारण कत्लखाने है।

माँसाहार का आत्महत्या जैसी आत्महनन की हेय कृति से सीधा संबंध है। जिस समाज में जितना अधिक माँसाहार होता है, वहाँ उतनी ही अधिक आत्महत्याएँ होती है। केरल प्राँत इसका ज्वलंत उदाहरण है। यहाँ इस समय स्त्रक्भ् कत्लखाने है, जो देश में सर्वाधिक है। यहाँ आत्महत्या का औसत भी प्रति लाख व्यक्ति सर्वाधिक ख्स्त्र.फ् है, जबकि राष्ट्रीय औसत क्.ख् है। यह स्पष्ट करता है कि माँसाहार प्रधान समाज में व्यक्ति अधिक तनाव में रहता है।

माँसाहार का युद्ध से भी सीधा संबंध है। जार्ज बर्नार्ड शाँ जो माँसभक्षण की अपेक्षा मरना पसंद करते थे, कहा करते थे, “माँसाहार क्रूरता को जन्म देता है। क्रूरता युद्ध की जननी है।” ‘मेनज फूड’ के लेखक एल. जोनसन के अनुसार, पुरातत्ववेत्ताओं ने खोज की है कि प्रागैतिहासिक यूरोप में युद्ध का दौर तब बढ़ा जब मनुष्य ने माँस के लिए पशुओं के झुँड को रखना शुरू किया। इस आधार पर कह सकते है कि माँसभक्षण से शाँत एवं अनाक्रमण मानव हिंसा, शत्रुता व लड़ाई की ओर झुक गया।

इस तरह माँसभक्षण किसी भी स्तर पर मनुष्य व उसके समाज के हित में नहीं है। ‘ट्रांजीशन टू वेजीटेरिएनिज्म’ पुस्तक के लेखक डॉ. रुडोल्फ वेलेन्टाइन के अनुसार माँस के दुष्परिणामों को देखते हुए आज अमेरिका जैसे विकसित देश शाकाहार की ओर मुड़ रहे है। अमेरिका में पिछले पाँच वर्ष की तुलना में आज क्क् प्रतिशत अधिक शाकाहारी है। अमेरिका कृषि के विभाग के अनुसार दो-तिहाई अमेरिकावासी स्वास्थ्य या पौष्टिकता की दृष्टि से शाकाहार प्रधान भोजन का चुनाव कर रहे है, लेकिन अपने भारत देश में स्थिति इसके विपरीत है। यहाँ माँसाहार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, जबकि देश, समाज एवं संस्कृति का भविष्य शाकाहार जीवनशैली से जुड़ा हुआ है। यह नैतिकता की सर्वसमर्थक शैली है। यह दया, प्रेम, सहिष्णुता, क्षमा, सहृदयता जैसे सद्भावों पर आधारित है। यह सृजनात्मक तत्वों से ओतप्रोत है।

पौष्टिकता की दृष्टि से भी शाकाहार अधिक श्रेष्ठ एवं सहज है। सभी दालें, सोयाबीन, मेवे, मूँगफली, प्रोटीन के समृद्ध भंडार है। शाकाहार में प्रोटीन सहजता से उपलब्ध है व अधिक सुपाच्य एवं बलवर्द्धक है। आवश्यकता के अनुरूप उपर्युक्त चिकनाई दूध व मेवों में सहजता से उपलब्ध रहती है। शाक सब्जियों में विटामिन एवं खनिक तत्वों का विपुल भंडारण रहता है। कार्बोहाइड्रेट सभी अन्न, आलूकंद में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहता है। लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य शरीर स्वयं ही इसे संश्लिष्ट एवं संपादित करने में समर्थ हैं।

अब शोध द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि हृदय रोग, रक्त चाप, मधुमेह जैसे रोगों में शाकाहार आश्चर्यजनक सुधार कर देता है।

शाकाहार का सर्वोपरि महत्व इसके आध्यात्मिक मूल्य में हैं। मनः चेतना पर इसका सात्विक प्रभाव पड़ता है। छाँदोग्य उपनिषद् में कहा गया है, ‘आहार शुद्धौ सत्व शुद्धि’ अर्थात् सात्विक आहार से शरीर, मन एवं बुद्धि हलके एवं पवित्र बनते हैं।

विश्व के सभी अवतारों, धर्मप्रवर्तकों एवं महापुरुषों ने इसे स्वीकारा एवं सराहा है। पाइथागोरस, न्यूटन से लेकर आइसस्टाइन तक के महान वैज्ञानिकों नियोनादों द विंसी, जार्ज बर्नार्ड शाँ जैसे कलाकार एवं महान विभूतियाँ जीवनपर्यंत शाकाहारी बने रहे। गाँधी जी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, शास्त्री जी, पटेल जैसे देशभक्त एवं सुभाष, भगतसिंह एवं चंद्रशेखर जैसे क्राँतिकारी सभी शाकाहार के पक्षधर थे।

शाकाहार हर दृष्टि से श्रेष्ठ एवं वरेण्य है। मनुष्य के सर्वांगीण विकास की संभावनाएँ इसमें विद्यमान हैं। यह मनुष्यता के विकास की सर्वोच्च कक्षा है। इसके पीछे मनुष्य का अन्य जीव प्रकृति से प्रेम और विश्व बंधुत्व का दर्शन छिपा है, समझदारी का तकाजा यही है कि हम समय रहते आसुरी संस्कृति के प्रतीक माँस भक्षण को त्यागें व शाकाहार को अपनाएँ।

शाकाहार हर दृष्टि से श्रेष्ठ एवं वरेण्य है। मनुष्य के सर्वांगीण विकास की संभावनाएँ इसमें विद्यमान हैं। यह मनुष्यता के विकास की सर्वोच्च कक्षा है। इसके पीछे मनुष्य का अन्य जीव प्रकृति से प्रेम और विश्व बंधुत्व का दर्शन छिपा है, समझदारी का तकाजा यही है कि हम समय रहते आसुरी संस्कृति के प्रतीक माँस भक्षण को त्यागें व शाकाहार को अपनाएँ।


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