स्वयं ईश्वर प्रकट हुआ है मनुष्य में

June 2001

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सृष्टि के आदि काल में विविधता कुछ भी न थी, पृथ्वी, पहाड़, जल, नभ, तारे, विद्युत वृक्ष, फल, फूल, खेत, आदि कुछ भी न था, जो कुछ इन स्थूल आँखों से देखा जा सकता है। एक परमात्मा ही तत्त्वरूप में सर्वत्र व्याप्त था। उस विश्वव्यापी सत्ता ने सृष्टि सृजन की इच्छा से तप किया। तप से अंड की उत्पत्ति और उस अंड से ही शरीर के विभिन्न अवयवों का विकास हुआ, ऐसा ऐतरेय उपनिषद् में बताया गया है।

सृजन की इस मूल प्रक्रिया का वर्णन करते हुए उपनिषद्कार आगे बताते हैं। (ऐतरेय उपनिषद् द्वितीय तृतीय खंड) कि परमात्मा ने अपनी प्राण देह से देवताओं को उत्पन्न किया। वे सब देवता समुद्र में आ गिरे। फिर उनमें भूख उत्पन्न हुई। उन्होंने परमात्मा से कहा, “हमारे लिए ऐसे शरीर का निर्माण करें, जिसमें रहकर हम अन्न आदि खा सकें।” परमात्मा ने उन्हें गाय, घोड़ा आदि शरीर दिखाए, पर वे उन्हें पसंद न आए। अंत में उन्हें मनुष्य शरीर दिखाया, वह देवताओं को पसंद आ गया और उसमें प्रवेश कर गए। अग्नि वाणी सुनकर मुख में, वायु प्राण बनकर नासिका में और सूर्य चक्षु बनकर नेत्र गोलकों में प्रविष्ट हुआ। दिशाएँ स्रोत बनकर कानों में घुसीं। औषधियों ने रोम बनकर त्वचा में वास स्थान बनाया। चंद्रमा मन बनकर हृदय में स्थित हुआ। मृत्यु अपान बनकर नाभि में और जल रेत बनकर उपस्थ में स्थित हो गया। परमात्मा ने तब क्षुधा और प्यास को भी सब देवताओं के अंशों में बाँट दिया और वे ही हवि ग्रहण करने लगीं। तदनंतर परमेश्वर ने जल को तपाया और अन्न की उत्पत्ति की। अन्न को केवल अपान वायु ही ग्रहण कर सकी और उन्हीं के द्वारा प्रत्येक देवता को वाँछित हवि मिलने लगी।

अब परमात्मा ने विचार किया कि इंद्रियों में बैठे हुए देवताओं ने अपने-अपने विषय ग्रहण कर लिए, तो फिर इनके लिए मैं कौन हुआ? यदि मैं न हुआ, तो देवताओं की शक्ति का नियंत्रण कौन करेगा? तब परमेश्वर ने मनुष्य की मूर्द्धा को चीरकर देह में प्रवेश किया। यह द्वार ‘विहति’ कहलाता है और उसे प्राप्त करने वाला आनंद का स्वामी बनता है। उस परमात्मा के तीन आश्रय हैं, हृदय प्रथम, ब्रह्मधाम दूसरा और ब्रह्मांड तीसरा। देवताओं को जब भोग से भी तृप्ति हुई, तब उनके विचार में आया कि यहाँ कौन मूल है? तब उन्होंने परमेश्वर को पहचाना और उनके दर्शन किए।

इस प्रकार शरीर में स्थित इन देव-शक्तियों को गर्भ में रहकर ऋषियों ने जाना कि ज्ञान शक्ति, आदेश शक्ति, विज्ञान- प्रज्ञान, मेधा, दृष्टि धैर्य, बुद्धि मनन शक्ति, स्मृति संकल्प, वेग, मनोरथ, कामना, भोग, प्राण शक्ति आदि सभी उस परमात्मा की सत्ता का ज्ञान कराने वाले हैं। जो परमात्मा को जान लेता है, वह इस लोक से उठकर स्वर्गलोक में ब्रह्म के साथ सभी दिव्य भोगों को पाता है। वह ज्ञानी अमृतत्व को प्राप्त होता है।

ऐतरेय उपनिषद् के इन मंत्रों में मनुष्य जीवन की उत्पत्ति, विकास और उसके विज्ञान के ऐसे गूढ़ रहस्य छिपे हुए है, जिन्हें जान लेने वाला सचमुच महान ऐश्वर्य का स्वामी बन सकता है। मनुष्य शरीर देवशक्तियों का आश्रय है। देवशक्तियाँ एक ही गुणों वाली ब्रह्मांड में सन्निहित शक्तियों का स्त्रोत कही जा सकती है। वह सब इस शरीर में विद्यमान होने से मनुष्य के अभावग्रस्त और असमर्थ होने का कोई कारण नहीं है। परमात्मा की उपस्थिति के कारण तो वह स्वयं ब्रह्मरूप ही है, किंतु अज्ञानतावश वह उन शक्तियों को पहचानता नहीं और ऐसे कर्म करता है, जिससे उन देवशक्तियों का वरदान मिलने की अपेक्षा दुख दारिद्रय ही हाथ लगता है। मनुष्य अनंत शक्तियों और साधनों से संपन्न होकर पग-पग रोग, पीड़ा, कष्ट बीमारी, दुर्बलता का शिकार होता रहता है। शरीर के प्रति आसक्ति के कारण वह दीन-हीन स्थिति में पड़ा रहता है।

भारतीय दर्शन के इन उच्चादर्शों को अब लोग अनर्गल और असंगत बातें कहकर टालते है। किंतु पृथ्वी पर जीवन विकास के वर्तमान सिद्धाँत जो विद्यालयों में पढ़ाए जाते हैं और जो विज्ञान के मुख्य सूत्र हैं, उन्हें यदि तथ्य की कसौटी पर देखें, तो यह पाएँगे कि वे न तो बुद्धिसंगत हैं और न ही जीवन के आदि स्रोत को प्रभावित कर पाते हैं। विश्व-व्यवस्था की तरह पूर्ण पुरुष का प्रादुर्भाव भी ईश्वर की रहस्यपूर्ण क्रिया है।

पहल मान्यता यह थी कि मनुष्य का विकास अमीबा से हुआ है। अमीबा एक कोशीय जीव है जो जल में रहती है और उसमें प्राणधारी के सभी गुण पाए जाते है। अमीबा को काँच की स्लाइड पर रखकर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ही अच्छी तरह देखा और उसके गुणों का पता लगाया जा सकता है। अमीबा की प्रजनन क्रिया बड़ी विचित्र है। उसकी कोशिका, जो प्रोटोप्लाज्म की थैली होती है और उँगलियों की तरह अनेक दिशाओं में निकलती रहती है, जब कोई उँगली काफी आगे निकल जाती है, तो वही प्रोटोप्लाज्म निकलकर एक नया अमीबा बन जाता है। इसकी ओर विद्युत हटकर अपनी रक्षा करता है। कोई खाद्य पदार्थ रखा जाए, तो वह दो उँगलियों की तरह चिमटी सी बनाकर उसे ग्रहण कर लेता है और उसे इस तरह रस में बदल देता है कि नया प्रोटोप्लाज्म तैयार कर ले। इस तरह उसे शक्ति मिलती है। अन्य जीवों की तरह वह उत्सर्जन भी करता है। पेट के मल को वह पानी में छोड़ता रहता है। अमीबा अपनी संतति को एक से दो, दो से चार और चार से आठ के क्रम में निरंतर बढ़ाता रहता है। जीवन विकास का सिद्धाँत बाद में इसी अमीबा से माना गया और यह कहा गया कि एक कोशीय जीव ने ही अंत में बहुकोशीय जीव के रूप में अपने आपको परिणत किया।

किंतु जब मनुष्य शरीर के कोशों का अध्ययन किया गया, तो जीवन विकास की अनेक नई बातें सामने आई और विज्ञान यह मानने लगा कि अमीबा मनुष्य की विकास शृंखला का मूल घटक नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता, तो मनुष्य शरीर का सूक्ष्म कोश जो स्वयं भी प्रोटोप्लाज्म में बना होता है, निकालकर एक स्वतंत्र जीव बना दिया जाना संभव होता, जबकि नए बालक का जन्म गर्भाधान की विलक्षण प्रक्रिया से संपन्न होता है।

क्−वीं और ख्वीं शताब्दी में इस संबंध में व्यापक खोजें हुई, पर वे सब अपनी अपनी तरह से एकाँगी हल ही प्रस्तुत करती है। वैज्ञानिक चेतना के अत्यंत सूक्ष्म स्वरूप का अध्ययन तो कर सके हैं, किंतु उसका विश्वव्यापी शक्ति के साथ कोई सामंजस्य नहीं बिठा सके। यदि मनुष्य अमीबा, अमीबा से मछली, मछली से सुअर, सुअर से बंदर, बंदर से गोरिल्ला और गोरिल्ला से वर्तमान मनुष्य रूप में आया होता, तो विकास की इस गति को आगे बढ़ते जाना चाहिए था और हमें लाखों वर्ष में मनुष्य योनि से आगे बढ़कर किसी और प्रकार की शरीर स्थिति में बदल जाना चाहिए था। हम इतनी लंबी अवधि तक मनुष्य ही क्यों बने रहते? किंतु उलटा हो यह रहा है कि धरती में जितने भी जीवित प्राणी हैं, उनकी शक्तियाँ घटती ही जा रही हैं। मनुष्य की शारीरिक शक्तियाँ भी धीरे-धीरे चुकती जा रही हैं। विकास की अपेक्षा जीव विनाश की दिशा में चल रहे हैं। इसीलिए विकास की थ्योरी गले नहीं उतरती।

चेतना को रसायन की देन कहा जाता, तो उसे प्रयोगशाला में बना लिया गया होता और अब जो रोबोट तथा कंप्यूटर तैयार किए जाते हैं, उनके स्थान पर मनुष्य शरीर तैयार करने वाले कारखाने चल रहे होते। मनुष्य शरीर में जो भाव विज्ञान छुपा हुआ है, उससे स्पष्ट ही है कि मनुष्य की उत्पत्ति भी उतनी ही रहस्यपूर्ण है, जितनी कि उसकी आँतरिक शक्तियाँ। भौतिक शरीर तैयार हो भी जाए, तो उसमें भावनाएँ कैसे डाली जाएँ?

अब हम अपने प्राचीन दर्शन की ओर लौटते हैं जिसमें परमात्मा की इच्छा से अंड का निर्माण, अंड से अनेक अवयवों का विकास और उसमें देवताओं की, परमात्म की प्रतिष्ठा हुई। सूर्य और चंद्रमा आदि का वर्तमान स्वरूप कुछ भी हो, पर उनका निर्माण एकाएक हुआ है। विकास या विघटन स्थूल और सूक्ष्म दोनों में चलता है, किंतु उनका आदि आविर्भाव किसी पराशक्ति का ही महान चमत्कार हो सकता है, इस बात को अब शरीर विज्ञान के पंडित भी मानने लगे हैं। आकाल्ट एनाटॉमी के मूर्द्धन्य विद्वान एरिक एरिक्शन ने उपर्युक्त भारतीय दर्शन के संबंध में जो शब्द कहे हैं, वह प्रकाराँतर से पौर्वात्य मान्यताओं को ही पुष्ट करता है। वे कहते हैं, “यदि हम इतने बुद्धिमान होते कि विश्व व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लेते, तो यह देखते कि सूर्य, चंद्रमा एवं अन्य ग्रहों का शरीर के समस्त अवयवों तथा उनके कार्यों पर कितना हस्तक्षेप है।”

‘दो मस्तिष्क प्रणाली एवं उनका आत्मिक उत्थान से संबंध’ नामक पुस्तक के रचनाकार डॉ. कोरिन हेलिन ने शरीर की जटिल प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने के बाद लिखा है, यह बड़े आश्चर्य ही बात है कि सारी-की सारी प्राकृतिक कला और ज्ञान नक्षत्रों द्वारा मनुष्य समाज को मिला हैं। इस दृष्टि से नक्षत्र गुरु और सारे बुद्धिजीवी प्राणी शिष्य हुए। आकाल्ट एनाटॉमी यह मानती है कि मनुष्य के दो शरीर हैं, एक पंच तत्वों से बना हुआ है स्थूल। दूसरा सूक्ष्म है, जो नक्षत्रों से (नक्षत्रों का अर्थ स्पष्टतः उन देवशक्तियों से ही है, जिनका वर्णन ऐतरेय उपनिषद् में किया है) बना है।

हमारे शरीर का स्थूल भाग, जो दृश्य और स्पृश्य है, पृथ्वी से बना है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि अन्य लोकों में तथा चंद्रमा सूर्य बुध वृहस्पति आदि में जो ठोस तत्व है, वह पृथ्वी की देन है। पृथ्वी भी अपने अणुओं को उसी प्रकार बिखेरती है, जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा आदि बिखेरते रहते हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अपनी-अपनी शक्तिधाराओं द्वारा नक्षत्रों ने पृथ्वी को आच्छादित कर रखा है, पृथ्वी भी सभी नक्षत्रों पर छाई हुई है। सब अन्योन्याश्रित है।

इस जटिल प्रक्रिया को मनुष्य शरीर में दो मस्तिष्क प्रणाली को समझकर अनुभव किया जा सकता है। मस्तिष्क कोष दो पर्तों का बना होता है, सफेद (व्हाइट) एवं भूरा (ग्रे) श्वेत तत्व नसें बनाता है और भूरा नसों में ग्रंथियाँ (गैंग्लियन) गैंग्लियन में न्यूक्लियस वाली नसें पाई जाती हैं, जो प्रोटोप्लाज्म के भीतर तक धँसी होती है और फास्फोरस तत्व से युक्त होती हैं। फास्फोरस अग्नि तत्व है और वह जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शरीर में अग्नि की मंदता ही अपच, अजीर्णता, काँतिहीनता, दुर्बलता और रोगों का कारण होती है। अग्नि न हो, तो मनुष्य निर्बल और कमजोर पड़ जाए। यह अग्नि तत्व सूर्य नक्षत्र का अदृश्य भाग ही है। फास्फोरस तत्व शरीर में आहार प्रक्रिया पर उतना आधारित नहीं है, जितना कि मस्तिष्क की उत्थान प्रक्रिया से। भौतिक विज्ञान अभी केवल स्थूल संरचना को देखती है, पर आने वाले समय में फिजिक्स और मेटाफिजिक्स के आपसी समन्वय से विज्ञजन यह समझ सकेंगे कि ब्रह्मांड व्यापी ऊर्जा शारीरिक तत्वों में कैसे बदलती हैं और उसे शक्ति के साथ ही बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा किस प्रकार प्रदान करती हैं।

शरीर में हाथ, पाँव, रक्त, माँस, मज्जा को स्थूल पदार्थों की रासायनिक क्रिया कह सकते हैं। मन, बुद्धि, प्राण, इच्छा, ज्ञान इन सूक्ष्म गुणों को पदार्थ नहीं कह सकते, जबकि मनुष्य का जीवन इन्हीं से सधा हुआ है। जिस दिन आदमी मरता है, लाश पड़ी रहती है तो भी वह गति नहीं कर सकता। गति और क्रियाशीलता प्रकाश का गुण है, भले ही वह किसी भी आकृति प्रकृति का क्यों न हो। यदि अन्न से ही मन, प्राण, बुद्धि, चित्त, अहंकार का निर्माण होता है, तो यह उसके स्थूल दृश्य न होकर न्यूक्लियाई ही होगी और वह ‘न्यूक्लियाई’ आच्छादित आकाश के किसी नक्षत्र द्वारा आकर्षित शक्तिकण ही हो सकते हैं। वह शरीर में पहुँचकर अपना -अपना स्थान ग्रहण करते हैं। मन को चंद्रमा की तेजस् शक्ति कहते हैं। चंद्रमा किस प्रकार वनस्पति और वनस्पति ही मन का निर्माण करती है, इस संबंध में शास्त्रों में विशद चर्चा है। यहाँ इसका उल्लेख इसलिए अभीष्ट समझा गया, ताकि शरीरस्थ देवताओं पर प्रकाश पड़ सके। यह वह निष्कर्ष है, जिसे वैज्ञानिक जान चुके हैं। अन्य देवताओं की स्थिति काया में कहाँ और किस प्रकार है, यह तब पता चलेगा, जब विज्ञान का प्रवेश मस्तिष्क से फैलने वाले नाड़ी जाल और उसके भीतर की रहस्यमय प्रक्रिया में होगा। अभी तक जितना भी समझा जा सका है, यह अति गंभीर और भारतीय दर्शन की ही पुष्टि करने वाला है।

मस्तिष्क का अध्ययन करने वाले डॉ. और वैज्ञानिक यह मानते है कि शरीर में दो प्रकार की नसों का जाल बिछा हुआ है, (क्) सिम्पैथेटिक नसें, यह शरीरगत भाग की नसें है। उनसे पाचन क्रिया चलती है। खाद्य से शक्ति चूषण और रक्त परिभ्रमण का कार्य भी यही नसें करती हैं। ग्रंथियों से होने वाले स्राव को यह नसें ही नियंत्रित करती है। शरीर की टूट-फूट को जोड़ना और मल-मूत्र बाहर निकालने में इन नसों का ही योग रहता है। जब मस्तिष्क की सुषुम्ना प्रणाली की नसें विश्राम करती हैं, तब यह सिम्पैथेटिक प्रणाली टूट-फूट जोड़ती, माँस पेशी और अन्य शरीर कोशों में जो क्षति हुई होती है, उसे सुधारती रहती है। दूसरी प्रकार की नसों की पैरासिम्पैथेटिक कहते हैं। यह शरीर मन में स्थिरता, प्रसन्नता, शाँति पैदा करती है और ऐसे रस रसायनों को प्रोत्साहित करती है, जो शरीर मन को विश्राँति दे सकें। नसों की यह जटिलता मनुष्य शरीर में ही है, पशुओं के शरीर में नहीं।

इन नसों के मूल स्त्रोत और शक्ति का पता लगाते हुए शरीरशास्त्री जब मस्तिष्क में पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि नसें मात्र इच्छा प्रवाह है और आगे चलकर वह जटिल और स्थूल रूप ले लेती हैं, इसलिए शरीरशास्त्रियों का एक वर्ग मनोविज्ञान का हिमायती हो गया और यह मानने एवं कहने लगा कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को स्वस्थ, पवित्र एवं सृजनात्मक बनाकर अपने स्वास्थ्य को स्थिर रख सकता है। अधोगामी विचारों और कुप्रवृत्तियों से अपने आपको बचाकर स्वास्थ्य भी बचाए रख सकता है।

मनोविज्ञान का यह सिद्धाँत जितना विकसित हुआ, उतनी ही महत्वपूर्ण मन और मानवीय चेतना के गुणों संबंधी बातें सामने आई। शरीरविज्ञानी अब यह भी मानते हैं कि इच्छाशक्ति धाराओं और रंगों के रूप में मस्तिष्क प्रणाली के कोशों में बहती देखी जा सकती हैं।

पैरासिम्पैथेटिक मस्तिष्क प्रणाली स्त्री स्वभाव (निगेटिव) की है। नसों का एक बड़ा झुँड हृदय के निकट से फूटता है। भावनाओं का , मन का इसी स्थान से संबंध है, इसलिए मानवीय इच्छाओं, अनुभूतियों और शरीर विज्ञान सभी दृष्टि से इनका मूल्य महत्व बढ़ जाता है। इनके व्यापक और सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता भी उतनी ही अधिक है।

शरीर, हृदय या मन के कष्ट मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं, इसलिए जब तक मस्तिष्क और भावनाएँ भी मनुष्य को सुख एवं आत्मिक शाँति प्रदान नहीं कर सकती। अब वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि मस्तिष्क आध्यात्मिक ब्रह्माँड से प्रभावित है। और जीवन सुधार के लिए उसकी जानकारी निताँत आवश्यक है।

मस्तिष्क के इस भाग को अवचेतन मन कहते हैं और वह जिन नसों से शेष शरीर के साथ संबंध स्थापित करता है, उन्हें रेशों का पुरकुँज कहा जा सकता है। वही शरीर की तन्मात्राएं ग्रहण करते हैं और सुषुम्ना प्रवाह से लेकर रीढ़ की हड्डी के सारे भाग में छाए रहते हैं। मन से यह संबंध स्थापित कर उसे शक्ति देते हैं। यदि मन को विकसित कर दिया जाए और सुषुम्ना प्रवाह में निवास करने वाली इन शक्तिधाराओं को ऊर्ध्वगामी बना लिया जाए, तो मनुष्य आकाश स्थित अदृश्य शक्तियों की महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक जानकारियाँ तथा रहस्य प्राप्त कर सकता है। देवताओं का संबंध भी नाड़ी तंत्र से है। इसे ही ‘विहति द्वार’ कह सकते हैं ।अभी उसकी विस्तृत जानकारी नहीं हो पाई है, पर यदि विज्ञान किसी तरह इसे नियंत्रित कर सका, तो अंतरिक्षीय ज्ञान अत्यंत सुलभ हो जाने की संभावनाएँ हैं।


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