युगगीता-ख्ब् - कर्म, अकर्म तथा विकर्म

June 2001

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(गीता के चतुर्थ अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग की युगानुकूल व्याख्या की छठी कड़ी)

विगत अंक में बताया गया था कि चाहे कोई भी उपासना-पद्धति हो। सभी साधनाएँ एक ही लक्ष्य-आनंद स्वरूप तत्त्वरूप परमात्मा की ओर ही ले जाती हैं। प्रत्येक को अपने आह्वान की तीव्रता के अनुपात में अपने कार्य-क्षेत्र में सफलता मिलती है। यह तभी हो पाता है, जब मनुष्य आसक्ति, भय और क्रोध को त्यागकर स्थिर मन से परमात्मा के अनंत सौंदर्य की उपासना करे। "ये यथा माँ प्रपद्यन्ते" श्लोक की विस्तृत व्याख्या विगत अंक में की गई। इसकी पुष्टि हेतु ठाकुर श्रीरामकृष्ण देव एवं परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के माध्यम से व्याख्या की गई। यह भी बताया गया कि साँसारिकता के लौकिक लाभ फल की आकाँक्षा से पूजने वाले लोगों को मिल जाते हैं, किंतु ये अल्पकालिक एवं अस्थाई होने के कारण तुच्छ होते है। निष्काम कर्म की अपनी महत्ता है। "कर्मंणाँ सिद्धिं यजन्त" की व्याख्या करते हुए भगवान कहते हैं कि आकाँक्षारहित होकर जीवनयापन किया जाना चाहिए।

प्रस्तुत अंक में आगे जो व्याख्या की जा रही हैं, उसका पूर्वार्द्ध तेरहवें श्लोक के माध्यम से विगत अंक में दिया गया था। जिसमें भगवान चार वर्णों की व्याख्या करते हैं एवं कहते हैं कि इनका स्पष्ट होते हुए भी मुझे अविकारी-अकर्ता ही मानना। इसी व्याख्या को आगे प्रभु समझाते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता का चौदहवाँ श्लोक है-

न माँ कर्माणि लिम्पन्ति न में कर्मफले स्पृहा। ठति माँ योअभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥

"न मुझे कर्म लिप्त करते हैं, न ही मुझे कर्मफल की लालसा है। जो मुझे इस प्रकार तत्व से जान लेता है, वह कर्मों के बंधन को प्राप्त नहीं होता।"

भगवान् यहाँ कह रहे हैं, कर्म तभी उचित सिद्ध हो पाते हैं जब भावना शुद्ध होती है। यदि अंदर की भावना इंद्रिय तुष्टि की है, तो उससे अधिकाधिक मानसिक बंधन ही उत्पन्न होंगे। निस्वार्थ समर्पित कर्म वासनाओं के क्षय का कारण होते हैं। ऐसे कर्म करने वाले व्यक्तित्व मुक्त होकर अनंत आत्मा की स्वतंत्रता और विस्तार को प्राप्त होते हैं। कर्मों में यज्ञीय भाव कैसे बनाया जाए, इस पर भगवान् समझाते हुए कहते हैं, "कर्मफल की लालसा मत रखो एवं उनमें लिप्त मत होओ।" भगवान स्वयं अपने बारे में कहते हैं कि मुझे कभी भी प्रकार की कर्मफल की लालसा नहीं है। (न में कर्मफले स्पृहा)।

सूर्य प्रकाशित होता है तो दोनों को ही प्रकाश देता है, गंदे जल वाले तालाब को और निर्मल पावन गंगा के शुद्ध जल को। प्रकाशक सूर्य न तो तालाब की गंदगी से और न ही नदी की दैदीप्यमान पवित्रता से ही प्रभावित होता है। प्रकाशिक सूर्य प्रकाशन में हमेशा पृथक और अलिप्त बना रहता है। इसी प्रकार शुद्ध-अनंत चैतनरूप भौतिक उपाधियों कमरे से लिप्त नहीं होता। सड़क पर दौड़ रही गाड़ियाँ लैंप पोस्ट से प्रकाशित प्रकाश से मार्गदर्शन पा दौड़ती रहती है, गंतव्य तक पहुँचती हैं। वाहनों में बैठे हम ही है, जो गंतव्य स्थानों तक पहुँचते हैं, बिना किसी उत्सुकता के लैंप पोस्ट हमारी भागदौड़ को प्रकाशित करते रहते हैं।

यदि यह ज्ञान हमें हो सके कि हमारी आत्मसत्ता सभी क्रियाओं का केंद्र अवष्सय है, पर उसके परिणामों से अलिप्त है, तो संसार की सभी गतिविधियों का संचालन करते हुए भी हम आत्मा में ही स्थित रहते हैं एवं भगवत् कार्य करते हुए जीवन को सार्थक ढंग से जीते हैं। भगवान कहते हैं "जो मुझे इस तरह से जानता है (कर्मभिः न स बध्यते)।" कितना सुंदर स्पष्टीकरण है। जीवन जीने की कला का अनुपम शिक्षण है। भगवान् को जानना है, तो हमें इस तरह तत्व रूप में जानना चाहिए। फिर हमारे सभी कर्म यज्ञीय भाव में होते रहेंगे।

परमपूज्य गुरुदेव जीवनभर यही कहते रहे कि हम हर व्यक्ति को निष्काम कर्म में लिप्त कर ब्राह्मण बनाना चाहते हैं। जीवनभर उनकी साधना इसी निमित्त नियोजित होती रही। ब्राह्मण वह जिसका चिंतन ऐसा हो जो ऊपर बताया गया। ब्राह्मण वह जो ब्रह्म में विचरण करे, जो कर्मों के बंधन से ऊपर चले।

कम वास्तव में हमारे व्यक्तित्व को अपने पीछे छोड़ी हुई वासनाओं की हथकड़ियों से बाँधते हैं। नए कर्म नई वासनाएँ उत्पन्न करते हैं, हमारे विचार करने को और कर्म करने की स्वतंत्रता जकड़ जाती है। फिर हम अपने ही द्वारा विगतकाल में किए गए कर्मों का एक मकड़जाल मात्र बनकर रह जाते हैं। इसमें हमारे लिए स्वतंत्र रूप से कर्म करने का कोई अवसर नहीं बच रहता। कई लोग आदतों के गुलाम होते हैं एवं बार-बार कहते हैं कि मैं असहाय हूँ, इनसे मुक्त होना चाहता हूँ, पर हो नहीं पा रहा हूँ। आदत चाहे वह झूठ बोलने की हो, कडुआ बोलने की हो या शराब पीने की हो, पड़ तो सहज भाव से जाती हैं, पर उनकी दासता से छुटकारा पाना अत्यंत कठिन है।

यह ज्ञान की उपलब्धि कि मनुष्य आत्मा में स्थित है, वह अपने शरीर के कर्मों से लिपायमान नहीं होता, वह मात्र एक साक्षी के रूप में जीवन जी रहा है, मनुष्य के अहंकार को परिष्कृत कर देता है। तब कर्म बिना कर्त्ता भाव से किए जाते हैं। कर्त्ताभाव अर्थात् अहंकार। इस भाव के किए गए कर्म फिर वासनाओं को जन्म नहीं देते, हमारे अहंभाव को नहीं बढ़ाते। ऐसे दिव्य कर्मों से मनुष्य बंधनों को नहीं प्राप्त होता। दिव्य कर्म आत्मा से उद्भूत होते हैं और केवल आत्मा के प्रकाश में ही पहचाने जाते हैं।

अगले श्लोक में भगवान् इसी बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं-

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूवैरंपि मुमुक्षुभिः। कुरु कमैव तस्मात्वं पूवैः पूर्वतंर कृतम्॥

"पूर्वकाल में भी इसी तत्वदर्शन को जानकर प्राचीन मुमुक्षुओं ने कर्म किए हैं। तुम भी जैसे पूर्वकाल में पूर्वजों ने किया, ऐसे ही कर्मों का संपादन करो।"

भगवान् ने यही नमूना सामने रख दिया है। वे स्पष्ट कह रहे हैं कि किस तरह कर्म करना, इसमें कहीं किसी प्रकार के भ्रम में-असमंजस में पड़ने की जरूरत नहीं है। पूर्वकाल के मुमुक्ष तथा जनक आदि एवं पूर्वजों-ऋषिगणों की जीवनचर्या से शिक्षण लो।"एवं ज्ञात्वा" जहाँ प्रभु ने कहा है, वहाँ वे कह रहे हैं कि यह जानकर कि वास्तविक आत्मा ही हमारे भीतर चैतन्य रूप से विद्यमान है, उसे न किसी भी प्रकार के कर्मफल की लालसा है एवं वह न ही किसी से लिप्त है, प्राचीन मुमुक्षुओं ने कर्मों का संपादन किया एवं समाजोपयोगी जीवन जिया है। कृतं कर्म पूवैंरपि मुमुक्षुभिः। ऐसे में अर्जुन को कोई बनावटी जिंदगी नहीं जीनी है। वे तो एक शास्त्रविहित मार्ग बता रहे हैं, जिसका पूर्व मुमुक्षुओं ने श्रद्धापूर्वक अनुसरण किया है। यह एक जाना माना पथ है, परीक्षित मार्ग है एक ऐसा राजमार्ग पर चलकर बदुतो न अपनी मानसिक आसक्तियों से भवबंधनों से छुटकारा पाया है। ऐसे अनुकरणीय जीवन को चाहे वह भगीरथ का हो, विश्वामित्र का हो अथवा श्रीराम का, लक्ष्मण जी का अथवा हनुमान जी का, जनक का अथवा अष्टावक्र का जीवन जीकर वह अपने कर्मों का संपादन कर सकता है। ऐसे क्षणों को जब हम जीते हैं, तो हम अहंभाव से ऊपर उठकर कृष्ण चैतन्य में निवास करने लगते हैं, साथ ही ऐसे कर्म ही वास्तव में कर्मरहित कर्म की उपाधि पाते हैं, जिनसे व्यक्ति शुद्ध आध्यात्मिक जीवन की सहज स्थिति में पहुँच जाता है। विस्तार से इसकी व्याख्या अगले दो श्लोकों में है, जिन्हें कर्मयोग की धुरी कहा जाता है। इससे पूर्व हम परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का इस संबंध में मत देखना चाहेंगे। वे अखण्ड ज्योति के वर्ष ब्ख्, अंक स्त्र के पृष्ठ क् पर लिखते हैं, "मनुष्य का जीवन एक खेत हैं, जिसमें कर्म बोए जाते हैं और उन्हीं के अच्छे-बुरे फल पाता है। बुरे कर्म करने वाला बुराई समेटता है। कहावत है, आम बोएगा वह आम खाएगा, बबूल बोएगा वह काँटे पाएगा। बबूल बोकर आम प्राप्त करना जिस प्रकार प्रकृति का सत्य नहीं उसी प्रकार बुराई के बीज बोकर भलाई पा लेने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।" कैसे कर्म करें, इस संबंध में बाद सही मार्गदर्शन है।

स्वयं अपने जीवन में गुरुदेव ने बड़े विलक्षण प्रयोग किए। ‘हमने जीवन भर बोया एवं काटा’ शीर्षक से उनका एक प्रवचन हैं, जो ‘गुरुवर की धरोहर’ पुस्तक के भाग एक के ब्स्त्रवें से भ्ब्वें पृष्ठ में प्रकाशित है। वे लिखते हैं कि “हमारे गुरु ने हमें गायत्री के चौबीस महापुरश्चरणों की विधि बताने के बाद कहा, तुम्हारे पास जो कुछ हैं, उसे भगवान् के खेत में बोना शुरू करो, वह सौ गुना होकर फिर मिल जाएगा। उन्होंने कहा, श्रम और समय भगवान् के खेत में, जो चारों ओर समाज के रूप में तुम्हारे आसपास विद्यमान हैं, बो डालो। दूसरा बुद्धि की सारी सामर्थ्य भगवान् के निमित्त लगा दो। तीसरी चीज है भावनाएँ। भगवान् के खेत में इन्हें बो दो, तुम्हें प्रत्युत्तर में सौ गुना मिलेंगी। धन जो भी तुम्हारे पास हैं, भगवान् के खेत में बो दो, यह सौगुना होकर तुम्हें मिलेगा।” इसके पश्चात् पूज्यवर लिखते हैं, “मैंने यही किया एवं तब से बराबर ऋद्धि-सिद्धियों के लाभ पा रहा हूँ।” यही उस कर्म का सिद्धाँत है, जिसे योगेश्वर कृष्ण ने पंद्रहवें श्लोक में बताया है। अब अति महत्वपूर्ण अगले दो श्लोकों पर चलते हैं, जहाँ से दिव्य कर्म को भगवान् परिभाषित करते हैं एवं कर्म की गति को अति गहन बताते हुए कर्म रहस्य का वह मर्म प्रकाशित कर देते हैं, जो गीता के तत्वदर्शन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात्॥

कर्मणो हृापि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणष्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥ -ष्लोक क्म्-क्स्त्र चतुर्थ अध्याय

“यह निर्णय करने में बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी भ्रमित हैं कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसीलिए वह कर्मतत्व मैं तुम्हें भलीभाँति समझाकर बताऊँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से अर्थात् कर्मबंधन से मुक्त हो जाओ।”

“हे अर्जुन! तुम्हें भलीभाँति जानना चाहिए कि कर्म का स्वरूप क्या है? निषिद्ध कर्म क्या है तथा अकर्म क्या है? यह जानना इसलिए जरूरी है कि कर्म की गति बड़ी गहन हैं।”

गीता एक प्रकार से मानव जीवन के प्रति सूक्ष्म दृष्टि के विवेचन की दृष्टि से लिखा गया ग्रंथ है। गीताकार ने चिरपुरातन शोध के वैज्ञानिक साधनों की सूक्ष्म अवलोकन-अध्ययन विधि का प्रयोग किया है। यहाँ भगवान् कह रहे हैं कि यह जान पाना आसान नहीं एवं बड़े-बड़े बुद्धिमान ज्ञानी लोग भी इस विषय में बड़े भ्रम में हैं कि कर्म क्या हैं, और अकर्म क्या है? इसी कारण वे अर्जुन को इनकी व्याख्या समझाना चाह रहे हैं।

कर्मों का वर्गीकरण-भगवान् स्वीकार कर रहे हैं कि हमारे शास्त्रों के गहन विचारक-चिंतक-महर्षि भी इस समस्या के विषय में बड़े भ्रमित से प्रतीत होते हैं कि कर्म क्या है, अकर्म क्या है, विकर्म क्या हैं? (किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽपि अत्रमोहिताः)। यहाँ कवि से तात्पर्य ऋषि-मुनिगणों से है। इसलिए वह कहते हैं कि तुम्हें पहले बताऊँगा कि कर्म क्या है। वास्तविक कर्म समझ में आ जाने पर हम अशुभ के-अशिव के मार्ग पर पर जाने से स्वयं को बचा सकेंगे।

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन दो भागों में बाँटा जा सकता हैं, क्रिया यानि कर्म, अक्रिया यानि अकर्म। क्रिया या कर्म को भगवान् पुनः दो भागों में बाँटते हैं, कर्म जीवन की वह क्रिया हैं, जो हमें करनी चाहिए, जिसे श्रीकृष्ण ने स्वधर्म कहा है या निष्काम कर्म नाम दिया है। विकर्म जीवन की वह क्रिया हैं, जो हमें नहीं करनी चाहिए। जो निषिद्ध हैं, जो नैतिक शास्त्र के सिद्धाँतों के अनुरूप नहीं है। जिन्हें करने से मनुष्य पाप को प्राप्त होता है। मानवी गरिमा को लाँछन लगाने वाले सभी कर्म निषिद्ध कर्म या विकर्म बताए गए हैं। पहले विकर्म को समझ लें तो कर्म एवं अकर्म को समझाना आसान हो जाएगा, अशुभ से भी मुक्ति मिलेगी।

विकर्म वे हैं जिनके बारे में समाज और शास्त्रों ने निषिद्ध किया है। इसकी व्याख्या हेतु हमें नीतिशास्त्र का सहारा लेना पड़ता हैं। नीतिशास्त्र चार बातों पर आधारित हैं, भौगोलिक परिस्थिति पर, आपकी आयु पर, आपकी योग्यता पर तथा चौथा सामाजिक परिस्थिति विशेष पर। कुछ नियम हैं तथा नहा-धोकर दोनों समय संध्या करनी चाहिए। यह नियम मध्य और दक्षिणी भारत में लागू हो सकता हैं, परंतु यही बात हिमाचल, उत्तराँचल और ठंडे क्षेत्रों पर लागू की जाए, तो संभव है कि सही न बैठे। हो सकता है कि नहा-धोकर न कर पाएं। मन की पवित्रता धारण कर ली, संध्या कर ली तो बहुत बड़ी बात है। रोज नहीं नहा पाए, तीन दिन में एक बार नहा लिया। जैसी भौगोलिक परिस्थितियाँ हैं, वैसा कार्य कर लिया। गंगोत्री-गोमुख में बैठकर वह नियम नहीं सध सकते, जो मैदानी क्षेत्र में सध सकते हैं। कुछ नैतिक नियम हैं कि महिलाओं से दूर से बात करनी चाहिए। तो यह आपकी आयु पर निर्भर करता है। छोटा बच्चा जाकर माँ को पकड़ भी लेता है व उससे चिपक भी जाता है। किंतु यही काम कोई बड़ा व्यक्ति सार्वजनिक रूप से करें, तो इसे निषिद्ध कर्म माना जाएगा।

तीसरी बात है योग्यता। आप कहाँ तक पढ़े-लिखे हैं। कहाँ तक आपकी सामाजिक उपलब्धि है। एक डॉक्टर के लिए इमरजेंसी आने पर कार से भी जाना पड़ सकता है या किसी तेज वाहन से भी। एक प्रचारक के लिए, उद्बोधन कर्ता के लिए जरूरी है कि कहीं साइकिल से भी जाना पड़े, कहीं रेल से भी व कहीं प्लेन से भी। अनिवार्य कर्म के नाते वह सब करना पड़ सकता है, जिससे समय बचे अधिक काम हो सकें। परंतु एक विद्यार्थी के लिए जिसके पास पर्याप्त समय हैं, कोई बहुत जरूरी काम नहीं है, कार का उपयोग करना, विमान का उपयोग करना विलासिता है। चौथा है सामाजिक परिस्थिति विशेष। जैन मुनियों के लिए रात्रि को करवट बदलना भी निषिद्ध है। वे करवट इसलिए नहीं बदलते कि करवट के नीचे कहीं कोई चींटी-जीव-जंतु न आ जाए। अहिंसा का अतिवाद है। जैन धर्म के अनुयायी पैदल चलते हैं, मुँह पर पट्टी बाँधते हैं। तीर्थंकर महावीर इस सिद्धि को प्राप्त कर चुके थे, इसलिए उन्होंने वे नियम बना दिए। पर यह जरूरी नहीं कि हर सामाजिक वर्ग पर ये नियम लागू हों।

कौन-सा कर्म निषिद्ध हैं, कौन-सा करने योग्य, यह निर्धारण नीति शास्त्र पर ही हो सकता हैं एवं ऊपर बताई गई चार बातों के आधार पर ही। विकर्म वह है जिन्हें करने से नैतिकता का उल्लंघन होता है। सारे विपरीत कर्म विकर्म कहे गए हैं।

दूसरा शब्द हैं कर्म। हर क्रिया कर्म नहीं है। भोजन करना, अंगों का संचालन होना, पशुओं द्वारा सहज कार्य किया जाना कर्म नहीं हैं। तब तो चट्टानों के फिसलने पर भी यह कहा जा सकता है कि जड़ पदार्थ भी कर्म करते हैं। जब हमारा संकल्प और इच्छा क्रिया के साथ जुड़ जाते हैं, साथ ही उद्देश्य भी निर्धारित हो जाते हैं, तो वह कर्म बनता है। बिना संकल्प के कर्म में प्राण नहीं आता। कर्म में मूल तत्व हैं, उसका प्राण हैं संकल्प। संकल्पित कर्म ही हमारे प्रारब्ध का निर्माण करते हैं। यदि हमने संकल्पित कर्म नहीं किए हैं, तो हमने फिर कर्मयोग का संपादन नहीं किया है।

इसी कारण भगवान् कहते हैं कि तुम्हें जानना चाहिए कि कर्म क्या हैं? नहीं जानने से डर है कि कहीं कोई निषिद्ध कर्म को, सहज-स्वाभाविक कर्म को ही कर्म समझ बैठो। कुछ ऐसे श्रेष्ठ कर्म होते हैं, जो शास्त्रविहित हैं, जिनका परिपालन गौरवपूर्ण ढंग से उच्च कर्तव्यों के रूप में किया जाना चाहिए। कुछ ऐसे कर्म हैं जिनकी शास्त्रों द्वारा निंदा की गई हैं, उनकी उत्पत्ति हमारी निम्न प्रवृत्तियों से होती हैं, वे हमारे अहंभाव तथा दुर्वासनाओं से प्रेरित होते हैं, ऐसे कर्म विकर्म कहलाते हैं। उनसे बचना चाहिए।

अकर्म क्या हैं? अकर्म आलस्य की अवस्था को नहीं कहते। संकल्परहित कर्म ही अकर्म हैं। ईश्वर की इच्छा ही जब हमारी इच्छा बन जाती हैं, तो यह अकर्म बन जाता है, जो स्वचालित ढंग से संचालित होता रहता है। जो ईश्वर चाहते हैं, जैसा चाहते हैं, वे ही संकल्प हमारे द्वारा मूर्त होने लगें, हमारे व्यक्तित्व के माध्यम से झरने लगें, तो ऐसी उच्चस्तरीय स्थिति को अकर्म कहते हैं। अकर्म में व्यक्ति ब्राह्मी स्थिति में पहुँच सकता हैं, अतः इसे समझना बहुत जरूरी है।

अभी तो इन दोनों श्लोकों के कुछ शब्दों के अर्थों को कुछ अंश तक समझा पाने में ही सफलता मिली है। परंतु वास्तव में इनके शाब्दिक अर्थों के साथ-साथ जुड़ी अभिव्यंजनाएँ ही समझा पाएंगी कि हम कितना इस अर्थ को समझ पाए। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म, अकर्म तथा विकर्म बड़ी पेचीदा बातें हैं। कर्म से अकर्म तथा विकर्म एवं अकर्म में कर्म तथा विकर्म आ मिलते हैं। मनुष्य को इसमें कैसे निष्काम कर्म में प्रवृत्त होना हैं, इसकी व्याख्या और विस्तार के साथ अगले अंक में।


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