सा प्रथम संस्कृति विश्ववारा

June 2001

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भारतीय संस्कृति प्राचीन समय में विश्वव्यापी थी, इसके प्रमाण समय-समय पर मिलते रहे है और अब भी यत्र-यत्र उपलब्ध होते रहते है। वहाँ के रहन-सहन, भाषा, देवी-देवताओं, स्थानों, पदवियों आदि के नामों से भी यह स्पष्ट आभास मिलता है कि किस कदर एक समय भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित थी।

मलेशिया यों तो अब एक मुस्लिम राष्ट्र है, पर वहाँ की भाषा एवं स्थानों के नामकरण में संस्कृत शब्दावली की बहुलता अब भी देखी जा सकती है। वहाँ की भाषा में ‘सिरापह’ एक ऐसा शब्द है, जो संस्कृत के ‘शाप’ और हिंदी अपभ्रंश ‘श्राप’ के समानार्थक है। किसी के अनिष्ट के संदर्भ में बोले गए वचन के लिए वहाँ इसी शब्द का प्रयोग होता है, जो संस्कृत और हिंदी के उपर्युक्त शब्दों का ही अर्थबोधक है। ‘सियार’ को संस्कृत में ‘शृंगाल’ कहते है। मलय भाषा में इसे ‘सरीगाल’ कहा जाता है। संस्कृत में ‘श्री’ सौंदर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है। मलय भाषा में इसके लिए ‘सेरी’ शब्द का प्रयोग होता है। इस तरह वहाँ का ‘सरीमुख’ संस्कृत के ‘श्रीमुख’ का ही पर्याय है। ‘संतोष’ जिसका अर्थ धैर्य है, मलय में इसे ‘संतेजा’ कहते है। ‘सरज’ दोनों में ही कमल को कहते है।

‘पुर’ प्रत्यय संस्कृत और हिंदी शब्दों के साथ मिलकर अक्सर स्थानवाचक हो जाता है, यथा-जमशेदपुर, खड़गपुर, नागपुर। इसी परिप्रेक्ष्य में ‘क्वालालंपुर’ को भी लिया जा सकता है, जो मलेशिया की राजधानी है। वहाँ का एक शहर ‘सीराम बन’ है, जो स्पष्टतः ‘श्रीराम वन’ का बिगड़ा रूप है। ‘सुँगई पट्टणी’ वहाँ का एक अन्य नगर है, जो संस्कृत शब्दावली के ‘श्रृंग‘ और ‘पट्टण’ शब्दों के मेल से बना लगता है। ‘श्रृंग पट्टण’ अर्थात् पर्वतीय नगर। मलेशिया के ‘पेतालिंग जय’ नगर में एक मस्जिद है, जो एक हिंदू मंदिर के ऊपर स्थित हैं पुरातात्त्विक अध्ययनों में इसे एक शिव मंदिर होने की संभावना प्रकट की गई है और कहा गया है कि कदाचित् इसमें कोई स्फटिक युक्त शिव मंदिर अत्यंत भव्य और पुरे नगर का गौरव होने के कारण ही शायद उस शहद का नाम ‘स्फटिक लिंग जय’ से विकृत होकर कालाँतर में ‘पेतालिंग जय’ हो गया हो, ऐसा विद्वानों का मत है।

जानने योग्य तथ्य यह है कि कुछ दशक पूर्व ‘सुँगई पट्टणी’ में खुदाई के दौरान एक अत्यंत प्राचीन शिव मंदिर का अवशेष प्राप्त हुआ था। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन हिंदू जाति विश्व में जहाँ-जहाँ गई, वहाँ-वहाँ उपासनास्थल के रूप में अन्य देवी-देवताओं के साथ-साथ शिवालय भी बनवाए। इसी क्रम में विश्व के अनेक मुस्लिम और ईसाई शासित राष्ट्रों में भी शिवलिंग पाए गए है, जो अब या तो संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे है या यत्र-तत्र उनकी विधिवत् पूजा होती है। वेटिकन सिटी के एटरुस्कन संग्रहालय में ऐसा ही एक अत्यंत पुराना शिवलिंग है, जो कहीं उत्खनन के दौरान पाया गया था। ऐसी मान्यता है कि पुराकाल में जब इटली में हिंदुओं का आधिपत्य था, तब वे इसकी पूजा किया करते थे। तुर्किस्तान के एक प्रमुख नगर बाँबीलन में एक हजार दो सौ फुट का एक विशाल शिवलिंग अब भी मौजूद है। इतना वृहत् लिंग समस्त विश्व में अन्यत्र कही नहीं है। मक्का में मक्केश्वरनाथ आज भी विराजमान है। ‘संगे असवद’ के नाम से इस्लाम धर्म में प्रसिद्ध यह हिंदू प्रतीक वास्तव में एक शिवलिंग है जिसका आलिंगन और चुँबन लिए बिना हजयात्रियों का हज पूरा नहीं होता। मक्का के जमजम कुएँ में भी एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा खजूर की पत्तियों से की जाती है। मिस्र में ‘मेफिस’ और ‘अशीरिस’ नामक स्थानों में नन्दी पर आसीन त्रिशूलहस्त तथा व्याघ्रचर्मधारी शिव की कई मूर्तियाँ है, जो वहाँ के लोगों द्वारा पूजित है। ब्राजील में अगणित प्राचीन शिवलिंग इन दिनों भी देखे जा सकते है। वहाँ के काँरिथ नगर में एक पुराना पार्वती मंदिर है। स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में भी एक स्वर्णमंडित शिवलिंग है। फिजियन के एटिस नगर में ‘एबीर’ नामक शिवलिंग आज भी विद्यमान है। इजरायल में भी शिवलिंग काफी पाए गए है। हेड्रोपोलिस नगर के एक प्राचीन शिवालय में तीन सौ फुट जितना विशाल शिवलिंग है। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान के काबुल, बलख, बुखारा, चित्राल आदि स्थानों में कितने ही शिवलिंग देखे जा सकते है। इन्हें स्थानीय लोग ‘पंजशेर’ या ‘पंजबीर’ के नाम से पुकारते है।

शिवलिंग के उल्लेख से मलय और संस्कृत शब्दावलियों के तुलनात्मक अध्ययन में किंचित भटकाव आ उपस्थित हुआ। उसे दूर करते हुए अब पुनः उसी में प्रवेश करते है।

मलेशिया के रजवाड़े अब भी ‘महाराजा’ की उपाधि से विभूषित है, पर अब मुस्लिम संस्कृति के अनुरूप वे स्वयं की उपाधि ‘सुलतान’ रखने लगे है। यह परंपरा बहुत बाद में शुरू हुई। इसका प्रमाण सन् क्क्ब्फ्-ब्भ् में जोहोर के सुलतान द्वारा दिए गए एक भोज के अवसर पर तब देखने को मिला, जब उनके पटल वस्त्रों पर ‘जोहोर के महाराजा’ शब्द अंकित देखे गए।

जोहोर के सुलतान की अनेक पुत्रियाँ थी। उनमें से एक का नाम ‘विद्याधारी’ था। यह स्पष्ट संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ विदुषी, ज्ञानवान है। जब सिंगापुर जोहोर के अधीनस्थ था, तब वहाँ की एक बस्ती का नाम भी उसी के नाम पर रखा गया था।

मलेशिया में महाराजाओं के राजमहल अभी भी अपने संस्कृत नाम ‘आस्थान’ को सुशोभित कर रहे है। राजकुमार और राजकुमारियाँ आज भी वहाँ ‘पुत्र-पुत्री’ नाम से पुकारे जाते है। मलय कन्याओं का सम्मानसूचक संबोधक ‘महादेवी’ है। यदि किसी कन्या का नाम ‘रजिया’ है, तो रक्त परंपरा के अनुसार उसका संबोधन ‘पुत्री महादेवी रजिया’ होगा। इससे वहाँ की वर्तमान संस्कृति में भारतीय संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

मलय भाषा में उत्तराधिकारी राजकुमार को ‘टुँकू मुकुट’ कहकर पुकारा जाता है। संस्कृत में इसकी पर्यायवाची शब्दावली ‘टोक मुकुट’ है। ‘टोक’ अर्थात् शिशु और मुकुट अर्थात् ‘ताज’। संस्कृत-हिंदी के ‘भाषा’ शब्द के लिए मलय शब्द लगभग वही है। सिर्फ उच्चारण में मामूली अंतर के साथ उसे ‘भासा’ कहा-लिखा जाता है। यह ध्वन्यात्मक दृष्टि से हिंदी के ‘साँझ’ शब्द में अति समीप है।

शुद्ध और पवित्र के लिए संस्कृत में ‘शुचि’ शब्द का इस्तेमाल होता है। मलयवासी इसका उच्चारण ‘सुचि’ करते है। इस प्रकार मलय भाषा में ‘महासुचि’ ईश्वर-बोधक है, जिसका अर्थ संस्कृत की ही भाँति वहाँ भी ‘अति शुद्ध’ होता है। ‘स्वामी’ को वहाँ ‘सुआमी’ बोला जाता है। वहाँ की उच्चारण परंपरा में ‘स्वर’ (ध्वनि) ‘सवर’ है और ‘स्वर्ग’ के लिए ‘शुर्ग’ या ‘सोर्ग’ उच्चारण किया जाता है। शेर अथवा सिंह को वहाँ ‘सिंग‘ बोला जाता है। इस प्रकार इस संस्कृत उपसर्ग से व्युत्पन्न शब्द ‘सिंहासन’ है। मलयवासी इसे ‘सिंगासन’ कहते है। अर्थ दोनों का समान है। ‘सेतिया’ सत्य का अर्थबोधक है। इसी से ‘सेतियावान’ अर्थात् सत्वान बना है। ‘मृगसत्व’ संस्कृत शब्द है। मलेशिया में इसके लिए ‘मृगसेतुवा’ शब्द है, जिसका प्रयोग वहाँ सामान्य पशुओं के लिए किया जाता है। संस्कृत का ‘सर्व’ उपसर्ग वहाँ ‘सेरु’ बन गया, पर अर्थ यथावत् है। वहाँ का ‘सेरु सेमेस्ता’ संस्कृत का सर्वसमस्त अर्थ में प्रयुक्त होता है। ‘संकलियान’ संस्कृत का ‘साकल्य’ है।

मलेशिया के ग्रामीण अंचलों में ऋषि को आज भी ‘रेसि’ कहा जाता है। संस्कृत का ‘रथ” अब वहाँ ‘रत’ बन गया है, पर अर्थ की अभिन्नता ज्यों-का-त्यों सँजोए हुए है। ‘रस’ जिसका अर्थ संस्कृत में आनंद, स्वाद, अनुभूति है, वह आज भी अपने इस स्वरूप को मलय भाषा में यथावत् बनाए हुए है। ‘सेना’ शब्द वहाँ भी ‘फौज’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है। दंडबोधक संस्कृत का ‘शिक्षा’ शब्द अब ‘सिक्सा’ के रूप में परिवर्तित हो गया। इस ‘सिक्सा’ में प्रताड़ना और कठिनाई भी सम्मिलित है। ‘श्लोक’ को ‘सिलोक’, ‘सहोदर’ का ‘सौदर’ कहा जाता है, पर ‘रोम’ अर्थात् कोमल बाल अपने मूल रूप को अब भी अविकल बनाए हुए है। यही बात ‘रूप’ के साथ है। वह शब्द के साथ -साथ अर्थ की मौलिकता को भी अविच्छिन्न रूप से धारण किए हुए है। वर्ण, जिसका अर्थ ‘रंग‘ होता है, बिगड़कर वर्तमान में ‘रोण’ हो गया है। इस प्रकार ‘पंचवर्ण’ को वहाँ ‘अंचरोण’ कहते है।

हिंदुओं के देवी-देवता वहाँ अब भी पूज्य है और न्यूनाधिक अपने मूल उच्चारण को बनाए हुए है। यहाँ के ‘श्री राम’ संप्रति ‘सेरि राम’ हो गए है। ‘अर्जुन’ अपना प्रथम अक्षर खोकर ‘रंजुन’ बन गया है, पर ‘अप्सरा’ ‘शिव’, ‘विष्णु’ ‘मंत्री, ‘महाराजा’ जैसे शब्द, रूप और अर्थ दोनों ही दृष्टियों से अब तक अपरिवर्तित है। ‘प्रकृति’ अर्थात् स्वभाव ने अब ‘पेकर्ती’ का रूप धारण कर लिया है। मलय भाषा का ‘पूजी-पूजियान’ हिंदी के ‘परमपूज्य’ के अर्थ का द्योतक है। ‘पूजा’ वहाँ अपने आदि रूप में ही प्रतिष्ठित है। ‘पृथ्वी’ वहाँ ‘पर्तवी’ हो गई है, पर अपना देवी स्वरूप अक्षुण्ण रूप से बनाए हुए है। इस प्रकार श्रद्धा से उसे ‘देवी पर्तवी’ कहा जाता है। पूर्णिमा, परीक्षा, प्रधान जैसे संस्कृत शब्द कतिपय परिवर्तन के साथ ‘परणामा’ ‘पेटेक्सा’ ‘परदान’ बन गए है, पर संस्कृत का अपना स्वाभाविक अर्थ आज भी सँजोए हुए है।

मलेशिया के ‘इपोह’ शहर के निकट एक गरम जल की सरिता है। अति प्राचीन संस्कृत का ‘पुँडरीक स्तोत्र’ खुदाई में वही प्राप्त हुआ था। वहाँ एक स्तंभ भी खड़ा है, जिसमें इसी स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ संगमरमर फलक पर खुदी हुई है। यह भी इस बात का द्योतक है कि अभी मलेशिया में भारतीय संस्कृति की ही पताका लहराती थी।

ऐसा उल्लेख मिलता है कि ब्रुनेई के एक बंदरगाह का नाम वहाँ के स्वर्गीय शासक की पदवी की स्मृति में ‘सेरी भगवान्’ रख दिया गया था। इतिहासकारों का मत है कि कभी वहाँ हिंदू शासन था। बाद में जब अरब आक्राँताओं ने उस पर आक्रमण किए और वहाँ के मूल निवासियों का धर्म परिवर्तन बलपूर्वक किया जाने लगा, तो उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार तो लिया, पर अपनी हिंदू पदवियों को अक्षुण्ण बनाए रखा।

‘ईरान’ एक संस्कृत शब्द है। इसका अर्थ संस्कृत भाषा में ‘लवणयुक्त, निर्जल प्रदेश’ है। ईरान वस्तुतः यही तो है। यूगोस्लाविया और चैकोस्लोवाकिया में स्लाव लोग बसते है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन स्लाव हिंदू परंपरा वाले थे। वे लोग भी इंद्र, वरुण, यम और सूर्य जैसे देवों की पूजा करते थे। चैकोस्लोवाकिया की राजधानी ‘प्राग‘ है। यह हिंदी संस्कृत का ही एक उपसर्ग है, जैसे- प्रागैतिहासिक। लातविया यूरोप का एक छोटा राष्ट्र है। उसकी राजधानी ‘ऋग्’ है। यह एक संस्कृत धातु है, यथा, ऋग्वेद। ऐसे कितने ही नामों का उल्लेख किया जा सकता है, जो हिंदी संस्कृत से व्युत्पन्न है, उदाहरण के लिए ‘राम सर’ अर्थात् भगवान् राम का तालाब तुर्की में, ‘निशापुर’ ईरान में, ‘नव बहार’ (नव विहार) इराक में, ‘मक्का’ (यज्ञाग्नि ‘मखा’ से) अरब में, ‘नगर हार’ अफगानिस्तान में और ‘रामथा’ (राम का स्थान), ‘रामल्ला’ जोर्डन में। यह सभी नाम प्राचीन समय में विश्वव्यापी भारतीय संस्कृति को ही सिद्ध करते है।

इसके अतिरिक्त खुदाई के दौरान प्राप्त वस्तुएँ भी इसी धारणा को सुदृढ़ करती है। लाओस के दक्षिणी प्राँत ‘सवन्नाखते’ में क्ब् अगस्त को एक भ्म् से. मी. व्यास का तीन हजार वर्ष पुराना काँसे का घंटा प्राप्त हुआ। यह तपोड्गन (तपाँगण) मंदिर के समीप उत्खनन में मिला। मंदिर के नाम से ही भासता है कि यह एक हिंदू धर्म पीठ रहा होगा, जहाँ तप और योग की शिक्षा दी जाती होगी।

ऐसे ही सन् क्क्त्त्क् में फिलीपीन्स के ‘लुबाड्’ नदी के मुहाने पर नदी तल से सन् क् का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। इस ताम्रपत्र ने फिलीपीन्स के इतिहास को त्त्ख्क् वर्ष पीछे धकेल दिया। उक्त अभिलेख ने ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत किए है, जो इस द्वीप समूह को हिंदू प्रभुसत्ता का अंग सिद्ध करते है।

ताम्रपत्र में कविलिपि में खुदे अभिलेख में श्रीमती अंगकैटान नामक एक महिला की चर्चा है, जिसे पुलिराम नामक मंत्री की उपस्थिति में ऋण मुक्त करने की घोषणा संबंधी यह दस्तावेज है। यह आज भी फिलीपीन्स के राष्ट्रीय संग्रहालय में ‘डि लागुना काँपर प्लेट इन्स्क्रप्शन’ के नाम से सुरक्षित है।

उल्लेखनीय है कि फिलीपीन्स में अब भी वहाँ के मुसलमान रामायण कथा का मंचन करते है, जबकि वहाँ के ईसाइयों ने राष्ट्रीय संसद भवन के प्राँगण में वैदिक विधि निर्माता ‘मनु’ की प्रतिमा स्थापित कर रखी है। यह सब प्रमाणित करते है कि पुराकाल में वहाँ हिंदू संस्कृति थी। धर्मांतरण तो बाद में हुआ। इसके अतिरिक्त सुमात्रा में ‘श्रीविजय’ जावा में ‘मज्जपहित’, वियतनाम में ‘चंपा’, कंपूचिया में ‘अंगकोर’, यह सभी हिंदू वर्चस्व वाले राज्य थे, जो क्वीं शताब्दी के पूर्व तक अस्तित्व में बने रहे। इसके बाद धीरे-धीरे वे मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए, पर हिंदू प्रतीक, भवन, मंदिर, मूर्ति आज भी ध्वंसावशेष के रूप में विद्यमान है।

हिंदू परंपरा वाले अवशेष विश्वभर में सर्वत्र पाए गए है, कहीं स्थानवाचक नामों के रूप में तो कहीं देवी-देवताओं, पूजास्थलों, शिलालेखों के रूप में। यह सब इस बात को सिद्ध करते है कि कभी भारतीय संस्कृति का संपूर्ण विश्व में वर्चस्व था। आज वह जितनी सीमित और छोटी प्रतीत होती है, विगत में वह उतनी ही व्यापक थी, इस धारणा को आने वाले दिनों में बल मिलेगा, ऐसा विद्वानों का मत है।


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