यम नियम- क् (ईश्वर प्राणिधान) - अपने आपको चैतन्य स्वरूप मानें

June 2001

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क्. प्रातः−सायं दोनों समय संध्यावंदन और गायत्री का मंत्र जप करना।

ख्. कम से कम आधा घंटा प्रतिदिन जप के साथ अपने इष्ट का ध्यान करना। उन्हें हर घड़ी याद रखने की कोशिश करना।

प्रसिद्ध विचारक टेल हार्ड द कारडियन ने मनुष्य के अस्तित्व और अनुभूति के संबंध में लिखा है, “हम कोई मनुष्य नहीं हैं, जिसे आध्यात्मिक अनुभव हो रहे हों, बल्कि हमारा स्वरूप ही अध्यात्म है, अध्यात्म चेतना जो मनुष्य होने के अनुभव से गुजर रही है।” यह उक्त अध्यात्म मार्ग पर चल रहे साधकों के लिए है बहुत उपयोगी। चिंतन किया जाए, तो इसकी प्रेरणा साधक की दिशाधारा ही बदल देती हैं। शास्त्रों और तत्वदर्शियों ने भी अपने ढंग से यही बात कही है। उनका सार मनुष्य को महत्व नहीं देता। वह दूसरे प्राणियों की तरह ही है। सृष्टि परिवार की करोड़ों अरबों प्रजातियों में से एक है। उसमें विशेषता सिर्फ यह है कि वह आत्मसत्ता का अनुभव कर सकता है। इस तथ्य को ज्यादा स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार कहा गया है कि आत्मसत्ता या आत्मचेतना मनुष्य होने की लीला कर रही है। अगर वह अनुभव करती है तो मानवीय करने पर जोर है कि हम अपने आपको मनुष्य रूप में नहीं चेतन सत्ता के रूप में अनुभव करें। सिर्फ सिद्धाँत रूप में ही नहीं, वस्तुस्थिति या तात्विक दृष्टि से भी अनुभव करें कि हमारा स्वरूप मूलतः चेतना है। हाड़ माँस का यह काय-कलेवर नहीं। मनुष्य यदि अपने आपको चेतना की अभिव्यक्ति के स्थान पर उसको अनुभव करने वाला समझने लगे, तो इस विपर्यय से यहाँ दुर्घटना ही होगी। उस दुर्घटना के परिणाम रोग, शोक, विक्षेप, कलह और द्वंद्व के रूप में देखे जाएंगे। साधना से दूर और जीवन के प्रति विधायक दृष्टिकोण नहीं रखने वालों के जीवन में यह स्थितियाँ देखी ही जाती है।

विधायक दृष्टि क्या है? आत्मचेतना या ईश्वर की सत्ता ही मूल स्वरूप है। मनुष्य उसकी एक तरंग मात्र है। किरण सूर्य की ऊर्जा का एक प्रक्षेप है, किरणें मुख्य नहीं है, जो मिलकर सूर्य का निर्माण करते हैं। ईश्वर प्रणिधान कलेवर में ज्यादातर स्वतंत्र और व्यक्त हो पा रही है। श्री अरविंद ने चेतना के एक और स्वरूप की कल्पना की है, जो भविष्य में साकार होनी है। उनके अनुसार चेतना का वह स्वरूप अतिमानस होगा। इस स्तर पर पहुँची चेतन सत्ता मनुष्य से हजार गुना समर्थ, मुख और प्राँजल होगी।

ऋषियों ने चेतनसत्ता की इन लीलाओं को ईश्वर कहकर व्यक्त किया है। ईश्वर सिर्फ मनुष्य में ही नहीं जीवन के विविध रूपों में प्रकट हुआ है। वह जड़ के रूप में व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। मुक्त हुई आत्माओं और मनीषियों की चिंता रही है कि मनुष्य इस सत्य को जीवन में अधिक से अधिक धारण कर सकें और अपने लक्ष्य तक पहुँचे, उसकी दिशाधारा अपने मूलस्वरूप की ओर हो। यम नियम और योग साधना के अगले लक्षण ऋषिसत्ताओं की उसी चिंता और अनुग्रह के प्रसाद हैं। अंतिम नियम ईश्वर प्रणिधान में इस तथ्य को गहराई से अपने भीतर धारण में इस तथ्य को गहराई से अनुभव करने का आधार बनता है। भारतीय धर्म परंपरा के अनुयायियों के लिए दो अभ्यास सुगम कराए गए हैं। एक प्रातः -साँय दोनों समय संध्यावंदन और गायत्री मंत्र का जप करना। दूसरे कम से कम आधार घंटा ध्यान रखना। आरंभ से ही और भारतीय मनीषा के अनुसार, अनादिकाल से संध्या गायत्री को अनिवार्य साधन के रूप में अपनाया गया है। अनादिकाल से इसलिए कि काल का कोई अंत नहीं दिखाई देता। अंत का पता नहीं है, इसलिए आरंभ की कल्पना भी नहीं बनती। अर्थ में संध्या गायत्री को सनातन साधना के रूप में भी समझाया गया है।

संध्या गायत्री के अर्थ, उद्देश्य और स्वरूप को समझाने के लिए विपुल शास्त्र, प्रवचन- विवेचन उपलब्ध है। संक्षेप में यह कि संध्यावंदन गायत्री मंत्र के जप का पूर्व और उत्तर पक्ष है। जप के लिए जिस मानसिक या प्राणिक स्थिति की आवश्यकता होती है, उसकी तैयारी संध्या उपचारों में की जाती है। संध्या का आशय दिन और रात के संधिकाल से तो हैं, उसका सूक्ष्म अर्थ मनुष्य का अपनी मूल चेतना से सम्मिलन भी है। जिस भावभूमि में यह मिलन होता है, वहाँ किरण अपने स्त्रोत से जुड़ने की स्थिति में आती है। इस संधि संयोग के कारण भी गायत्री जप से पूर्व उत्तर में होने वाले उपचारों को संध्यावंदन कहते हैं। संध्यावंदन के मंत्रों में पवित्रता से आरंभ कर प्राणऊर्जा जगाने, जाने अनजाने हुए दुष्कृत्यों से मुक्त होने, दृश्य जगत् में ईश्वरीय सत्ता के सबसे बड़े प्रतीक सूर्य के सामने खड़े होकर पानी की तरह तरल होकर, अपने क्षुद्र अहं को विसर्जित करने और अपनी लौकिक सत्ता को बार-बार परिमार्जित करने की प्रक्रियाएँ संपन्न होती है।

अपने मूल स्वरूप से जुड़ने के लिए प्रार्थना और ध्यान धारणा का अगला चरण गायत्री जप के रूप में पूरा किया जाता है। मूल साधना यही है। आँतरिक स्तर पाकर एक स्थिति में पहुँच जाने के बाद कई साधकों के लिए संध्यावंदन के उपचार आवश्यक नहीं रह जाते। लेकिन उस स्थिति में भी उन्हें करते रहने के निर्देशन दिए गए है। सिद्ध हो जाने पर भी साधनाक्रम चलता रहे। साधकों को समझाया जाता है कि उनका लक्ष्य मिल जाए, तो भी संध्या गायत्री का त्याग नहीं करें। अनुग्रह मानने और धन्यवाद देने के भाव से ही सही, यह क्रम चलता रहे। यह निर्देश किसी भी स्थिति में व्यतिरेक नहीं आने देने के लिए है।

गायत्री मंत्र मानवीय चेतना को, उसके मल विक्षेपों में सन गई सत्ता को धो पोंछकर और जला तपाकर मूल रूप में निखारने वाला अनुष्ठान है। सामान्य जप से गहरे जाकर मंत्र जब अपना प्रभाव दिखाने लगता है, तो ये भ्राँतियाँ जल भुनकर राख होने लगती है कि अपना कोई स्वतंत्र स्वच्छंद अस्तित्व है। कोई विलक्षण सत्ता है। व्यक्ति की यह आस्था निरस्त होने लगती है कि यह सारा संसार वैभव, सत्ता और सुख उसी के लिए हैं। अपनी गतिविधियों, आदतों और भावनाओं की समीक्षा करके देखें तो सही, कि साधक का चिंतन इस तरह का नहीं है? ईमानदारी से पूछें तो लगभग सभी लोग अपने आपको केंद्र में रखकर देखते हैं। गायत्री मंत्र का जप आत्मिक जगत् में जो भी विलक्षण प्रभाव उत्पन्न करता है, उसका पहला संस्कार व्यक्ति की इन अनास्था या विकृत चिंतन को तोड़ता है कि वह संसार का केंद्र है। आसपास के जगत् में जो कुछ भी होता है, उसके अनुरूप और अनुकूल ही होना चाहिए। तीनों लोक विराट् ब्रह्मांड, अस्तित्व का तेजस्वी प्रचंड और महासूर्य जैसा स्वरूप, उस स्वरूप में अपनी अकिंचन स्थिति और महाऊर्जा की एक सूक्ष्म किरण से चलती हुई अपनी सत्ता। इन अनुभूतियों से गुजरने के बाद किस साधक को यह भ्रम रह जाएगा कि वह महान है और यह समूचा वैभव उसी के लिए पसरा हुआ है।

संध्यावंदन के साथ आधा घंटा प्रतिदिन ध्यान करने का निर्देश भी पतंजलि के व्याख्याकारों ने दिए हैं। यह जप-ध्यान से अलग है। संध्यावंदन के बाद भी ध्यान किया जा सकता है और आगे पीछे भी। सुबह उठने के बाद और रात को सोने से पहले किया जाए, तो भी ध्यान उत्तम। कोई भी समय चुन लें, लेकिन नियमितता अवश्य रखें। यह नहीं कि आज आठ बजे कर लिया और कल दस-ग्यारह बजे अथवा कभी सुबह किया, तो कभी शाम या दोपहर को। परिस्थितिगत विवशता के कारण कभी कभार चूक हो जाए, तो अलग बात है, अन्यथा समय ओर नियमितता का निर्वाह सभी स्थितियों में किया जाना चाहिए। साधना की नियमितता में चूक आध्यात्मिक अपराध है। अगर प्रमाद से वह हो जाए, तो प्रायश्चित भी किया जाना चाहिए। महात्मा गाँधी का यह प्रसंग बहुतों ने सुना होगा कि साबरमती आश्रम में किसी बैठक में बहुत व्यस्त होने के कारण वे संध्या समय की प्रार्थना नहीं कर पाए थे। प्रार्थना के संबंध में वे इतने नियमित और दृढ़ थे कि उसका समय हो जाता, कोई काम कितना ही महत्वपूर्ण हो, उसे छोड़कर भजन साधन में लगते। उस दिन चूक हो गई और गाँधी जी को ध्यान आया कि नियमित प्रार्थना नहीं हो सकी हैं, तो उन्होंने ग्लानि अनुभव की। सार्वजनिक रूप से अपनी भूल को स्वीकार किया और प्रायश्चित के रूप में उपवास भी किया। साधना उपासना के क्षेत्र में इसी तरह की तत्परता और निष्ठा होनी चाहिए।

हम मनुष्य हैं, मनुष्य हैं इसलिए ईश्वर को प्राप्त करना हमारा लक्ष्य हैं, उसे प्राप्त कर लिया जाए, ता हम संसार के सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हो जाएँगे। साधना उपासना इस आध्यात्मिक दर्प से छुटकारा दिलाती है। वह इस विनम्र बोध में ले जाती है कि ईश्वर हैं, उसकी सत्ता कण-कण में व्याप्त है। इस कार्य कलेवर में उसी की एक चिंगारी व्यक्त हुई है। वह अब भी उसी महाज्वाला का अंश है और बुझ जाएगी तब भी उसी ज्योति में लीन हो जाएंगी अपना क्षुद्र अहं मात्र एक भ्राँति है। ईश्वर ही नियंता, व्यापक और अस्तित्वज्ञान है। उसका प्रणिधान साधक को निरंतर प्रवहमान रखता है।


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