आस्था संकट मिटेगा विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय से

June 2001

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पदार्थ विज्ञान आज की स्थिति तक एक लंबे संघर्ष के बाद पहुँचा है। पाश्चात्य भूमि में उपजे इस विज्ञान को अपनी वर्तमान गौरवमयी स्थिति तक पहुँचने में धर्मक्षेत्र के अंधविश्वासों एवं मूढ मान्यताओं के विरुद्ध घोर संघर्ष करना पड़ा है। अपने सर्वस्व की बाजी लगाते हुए इसने पग-पग भूमि पर अपना अधिकार जमाया है। कापर्निकस, गैलीलियो जैसे इसके सत्यान्वेषक सपूतों को इसके निमित्त अपने प्राणों की आहुति तक देनी पड़ी है।

अपनी पूर्वाग्रहरहित सत्यान्वेषक पद्धति को देकर विज्ञान में मानव जाति की एक बहुत बड़ी सेवा की है। धर्मक्षेत्र के पाखंडों, मूढ़ताओं एवं अंधविश्वास की जड़ों पर कुठाराघात कर इसने जो महत् कार्य किया है, वह सराहनीय है। इस तरह भौतिक एवं दार्शनिक स्तर पर विज्ञान की उपलब्धियों के प्रति मनुष्य जाति कृतज्ञता व्यक्त किए बिना नहीं रह सकती।

लेकिन बात यहाँ समाप्त नहीं हो जाती। इसका दूसरा पक्ष भी विचारणीय है। जहाँ एक ओर विज्ञान ने पूर्वाग्रहरहित सत्यान्वेषण की वैज्ञानिक पद्धति देकर दर्शन की सेवा की है, वही वह अपनी सीमाओं का भी अतिक्रमण कर बैठा है। इससे उपजे प्रत्यक्षवाद ने शुरुआत में ही जोर-शोर से यह कहना शुरू कर दिया था कि जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है, जो प्रत्यक्ष नहीं उसका कोई अस्तित्व नहीं। चूँकि चेतना का (आत्मा का) प्रत्यक्ष प्रमाण उसे अपनी प्रयोगशाला में नहीं मिला, अतः इसके अस्तित्व को ही नकार दिया गया। इस तरह मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़-पौधा भर बनकर रह गया। यह प्रकाराँतर से भोगवाद एवं संकीर्ण स्वार्थ वृत्ति ही का प्रतिपादन हुआ। साथ ही इससे प्रेम, त्याग, सेवा, संयम, परोपकार, नीति, मर्यादा जैसी मानवीय गरिमा की पोषक धार्मिक मान्यताएँ सर्वथा खंडित होती चली गई।

इसके अलावा इस विज्ञान से उपजे भोगवादी दर्शन ने साधनों के सदुपयोग करने की जगह दुरुपयोग ही सिखलाया। संकीर्ण स्वार्थों की अंधी दौड़ में प्रकृति का दोहन इस कदर हुआ कि प्रकृति भी भूकंप, बाढ़, दुर्भिक्ष, अकाल आदि के रूप में अपना विनाश-ताँडव करने के लिए मजबूर हो गई। यही वजह है कि आज प्राकृतिक संतुलन पूर्णतः डगमगा गया है। वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड का बढ़ना, तापमान के बढ़ने से हिमखंडों का पिघलना, प्रदूषण, तेजाबी वर्षा, परमाणु विकिरण जैसे सर्वनाशी संकट मानवीय अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाए हुए है।

इस तरह विज्ञान ने एक ओर जहाँ मनुष्य को साधन संपन्न बनाकर भौतिक सुखों के अंबार लगा दिए है, वही दूसरी ओर इससे उपजे भोगवादी दर्शन से पनपी संकीर्ण स्वार्थवृत्ति ने उसे उचित-अनुचित के निर्णय की क्षमता से च्युत कर दिया है। भोगों के आनंद में आज का इंसान अपने क्षणिक सुख में इतना लिप्त है कि विनोद-ही-विनोद में फुलझड़ी की तरह अपनी बहुमूल्य प्राण संपदा को नष्ट कर रहा है। आँतरिक रूप से वह खोखला हो गया है, बाहरी खोज में भटकते-भटकते वह स्वयं को ही भूल बैठा है। अपने अस्तित्व के केंद्र में विद्यमान शक्ति, ज्ञान एवं आनंद की दैवीय संपदा को उभारने वाले धर्म-अध्यात्म को सर्वथा भूल गया है। विज्ञान द्वारा पनपाए गए आज के विविध संकटों के मूल कारण आस्था संकट में ही है और इसका एकमात्र समाधान अध्यात्म द्वारा ही संभव है। जितना विज्ञान बाह्य प्रगति के लिए आवश्यक है उससे कही अधिक आवश्यकता आँतरिक परिष्कार एवं सुव्यवस्था के लिए धर्म की है। क्योंकि पदार्थों के नियंत्रण एवं सुसंचालन का केंद्र अंतःस्थिति चेतन तत्व ही है।

लेकिन आज धर्म के क्षेत्र में चारों ओर ऐसा कुहासा छाया हुआ है कि इसके यथार्थ स्वरूप का परिचय कहीं नहीं मिलता। धर्म आज भ्राँतियों का ऐसा जंजाल बन गया है, जिसमें एक विचारशील व्यक्ति को कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। आज की दशा में धर्म या तो अंधविश्वास, मूढ मान्यताओं से जकड़ा हुआ है या फिर ऋद्धि-सिद्धि, चमत्कारों का प्रतिपादन कर दिग्भ्राँत मानव को और भटका रहा है अथवा सामान्य मानव को अनंत जीवन, परलोक एवं स्वर्ग के सुखद स्वप्न दिखलाकर पलायनवादी बना रहा है। जिस धर्म का जीवन की यथार्थता से कोई संबंध नहीं, जिसकी न तो उपयोगिता समझ आए और न ही प्रामाणिकता दिखाई दे, उसे कोई भी विवेकशील व्यक्ति कैसे स्वीकार कर सकता है? शायद धर्म का यही स्वरूप रहा है। इसी को देखकर विचारशील प्रबुद्ध स्वयं को नास्तिक कहलाना अधिक बेहतर मानता है। इसी धर्म को लेनिन ने अफीम की गोली कहकर लताड़ा हो, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।

परंतु धर्म की यह बाह्य विकृति कैसी भी क्यों न हों, इसके परिष्कृत स्वरूप की आवश्यकता अपरिहार्य है। इसी संदर्भ में विज्ञान जगत् के शिरोमणि सर आइन्स्टाइन ने कहा था कि विज्ञान मनुष्य को वस्तुपरक ज्ञान की पराकाष्ठा तक ले जाकर अपनी सीमाओं का बोध करवाता है व आगे के चेतनात्मक ज्ञान का संकेत देता है, जहाँ इसकी पहुँच नहीं, यह कार्य धर्मक्षेत्र का है। उनका कहना था कि धर्म और विज्ञान के परस्पर सहयोग एवं समन्वय से ही मनुष्य जाति आगे बढ़ सकेगी। उनकी यह उक्ति चिर-परिचित है कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है व विज्ञान के बिना धर्म अंधा।

वैज्ञानिक प्रगति से उपजे इस आस्था संकट की विषम वेला में धर्म को अपनी उपयोगिता एवं प्रामाणिकता सिद्ध करनी होगी। समाधान इससे कम में नहीं हो सकता। विज्ञान की सफलता के मूल कारण ये ही दो तत्व रहे है। इसने अपनी उपयोगिता व प्रामाणिकता जनसामान्य के सामने प्रस्तुत की है। विज्ञान का कार्यक्षेत्र भौतिक जगत् रहा है। इसने भौतिक जगत् के संबंध में जो सिद्धाँत दिए है, वे विश्व के हर कोने में लागू होते है। अपनी उपयोगिता उपलब्ध भौतिक सुख-साधनों के रूप में सामने प्रत्यक्ष की है।

धर्म-अध्यात्म का क्षेत्र जो अब तक शास्त्र प्रमाण या महापुरुष वचन के रूप में मात्र श्रद्धा का विषय रहा है, क्या इसमें भी विज्ञान की अन्वेषण विधि लागू की जा सकती है? क्या आध्यात्मिक सिद्धाँतों को तर्क, तथ्य एवं प्रमाण के आधार पर प्रस्तुत किया जा सकता है? इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद ने लगभग सौ वर्ष पूर्व कहा था, “मेरे विचार में विज्ञान की विधि अध्यात्म पर भी लागू होनी चाहिए। यह जितनी जल्दी किया जाए उतना ही अच्छा रहेगा। इस प्रक्रिया में यदि कोई धर्म नष्ट भी हो जाए, तो उसे नष्ट होने दें। क्योंकि जो नष्ट होता है, वह इसका अनावश्यक अंश होगा व जो बचेगा वह धर्म का उज्ज्वल स्वरूप होगा।”

इक्कीसवीं सदी की दुनिया के लिए यह आवश्यक है कि अध्यात्म अपने दर्शन का विज्ञान की आधुनिक शाखाओं के प्रकाश में उपयोगी प्रतिपादन करें। लेकिन काम इतने भर से चलने वाला नहीं। एकाकी विज्ञान की बैसाखियों के सहारे चलकर धर्म अपना वर्चस्व सिद्ध न कर पाएगा। विज्ञान ने स्वयं को प्रमाणित करने के लिए अध्यात्म या विज्ञान की किसी अन्य शाखा का सहारा नहीं लिया है। इसने स्वयं को अपने अंदर से सिद्ध किया है। धर्म को भी उसी कसौटी में स्वयं को खरा सिद्ध करना होगा।

आज के आस्था संकट के दौर में समाधान मात्र अध्यात्म सिद्धाँतों को विज्ञान द्वारा सिद्ध करने से नहीं होगा, न ही इनकी दार्शनिक व्याख्या करने भय से होगा। न ही इसकी उपयोगिता आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि साधना-उपचारों के उपकरणों द्वारा सिद्ध होगी।

अध्यात्म क्षेत्र के सिद्धाँतों की उपयोगिता एवं वैज्ञानिकता तभी प्रमाणित मानी जाएगी जब यह अपने कार्यक्षेत्र अर्थात् अंतर्जगत् से इनको सिद्ध करे। अर्थात् धर्म के सिद्धाँतों को अपने जीवनरूपी प्रयोगशाला में प्रयुक्त करना होगा व आत्मचेतना के अस्तित्व की अभिव्यक्ति जीवन के हर अंग में करनी होगी। इसका यथार्थ प्रमाण व्यक्तित्व में उत्कृष्ट चिंतन, उदात्त भावना एवं आदर्श चरित्र के रूप में परिलक्षित करना होगा। जितने अंश में यह अध्यात्म व्यक्तित्व के अंदर घटित होता जाएगा, उतना ही उसमें देवत्व बढ़ता जाएगा। ऐसे ब्रह्मवर्चस संपन्न महामानवों का बाहुल्य ही भोगवादी दर्शन से उपजी भ्राँतियों का सर्वसमर्थ निराकरण करेगा और तभी समाज में वे परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी, जिन्हें स्वर्गोपम कहा जा सकेगा।


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