युधिष्ठिर पाँडवों में सबसे बड़े थे। वे सदा अपने से बड़ों पर भरपूर सम्मान करते थे यहाँ तक कि महाभारत युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व भी वे युद्ध स्थल में भीष्म पितामह और गुरु द्रोण को प्रणाम करने, आज्ञा लेने गए। उनके आचरण का प्रभाव पाँडवों पर यह पड़ा कि उन्होंने कभी स्वप्न में भी अपने अग्रज युधिष्ठिर की आज्ञा भंग नहीं की। इसी सामंजस्य के कारण वे एक रह सके और अजेय बने रहे।
महाभारत एक दूसरे को सम्मान न दे पाने की ही भीषण प्रतिक्रिया के रूप में उभरा था। बचपन में दुर्योधन राजमद में पांडवों को सम्मान न दे सका। भीम सहज प्रतिक्रिया के रूप में अपने बल का उपयोग करके उन्हें अपमानित तिरस्कृत करने लगे।
द्रौपदी सहज परिहास में भूल गई कि दुर्योधन को ‘अंधों के अंधे’ संबोधन से अपमान का अनुभव हो सकता है। दुर्योधन द्वेषवश नारी के शील का ही महत्व भूल गया तथा द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करने पर उतारू हो गया।
यही सब कारण जुड़ते गए तथा छोटी-छोटी शिष्टाचार की त्रुटियों की चिनगारियाँ भीषण ज्वाला बन गई। यदि परस्पर सम्मान का ध्यान रखा जा सका होता, अशिष्टता पर अंकुश रखा जा सका होता, तो स्नेह बनाए रखने में कोई कठिनाई न होती। भीष्म पितामह और वासुदेव जैसे युग पुरुषों के प्रभाव का लाभ मिल जाता ।
कैकेयी मंथरा के बहकावे में आ गई। भरत को राज्य तथा राम को वनवास माँग बैठी। राम वनवास पर दशरथ जी ने शरीर त्याग दिया। भरत जी को वैराग्य हो गया। कौशल्या पर तो दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा। परंतु ऐसी स्थिति में भी किसी ने किसी के सम्मान पर चोट नहीं की। कौशल्या राम को छोड़ना नहीं चाहती थी, परंतु अन्य माताओं के सम्मान का उन्हें पूरा ध्यान था। अतः उन्होंने राम को वन जाने की अनुमति दे दी।
जनक ने सुना, जानकी भी साथ गई हैं। उन्होंने दूतों द्वारा सही स्थिति का पता लगाया और तदनुसार भरत का समर्थन करने चित्रकूट पहुँच गए। भरत के कारण राम-सीता को वनवास हुआ। इस नाते उनको अपमानित करने का भूलकर भी प्रयास नहीं किया।
ऐसे एक-दूसरे के सम्मान के भाव ने विकट परिस्थितियों में भी अयोध्या का संतुलन बनाए रखा। भूल सिर्फ भूल रह गई, उससे परस्पर स्नेहों में कोई फर्क नहीं पड़ा। राम की अनुपस्थिति में भी और राम के आने पर भी पारिवारिक सद्भाव स्वर्गीय सुख देता रहा।