हृदय द्रवित हो उठा (kahani)

September 2000

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एक साधु अपने शिष्यों के साथ मेले का भ्रमण कर रहे थे। एक स्थापन पर एक बाबा माला फेर रहे थे, लेकिन बार-बार आँख खोलकर देख लेते कि लोगों ने कितने पैसे दान में दिए हैं। साधु हँसे व आगे बढ़े। आगे एक पंडित जी भागवत कह रहे थे, पर उनका चेहरा यंत्रवत् था-शब्द भी भावों से कोई संगति नहीं खा रहे थे, चेलों की जमात बैठी थी। उन्हें भी देखकर साधु खिल-खिलाकर हँस पड़े। इससे आगे बढ़ने कर साधु जी ने एक चिकित्सक रोगी की परिचर्या करता मिला। वह घावों को धोकर मरहम-पट्टी करता जाता। अपनी मधुर वाणी से उसे बराबर साँत्वना दे रहा था। यह देखकर साधु की आँखों में आँसू आ गए।

आश्रम पर लौटते ही शिष्यों ने पहले दो स्थानों पर हँसने व फिर रोने का कारण पूछा तो वे बोले-बेटा! पहले दो स्थानों पर तो मात्र आडंबर था, पर भगवान् के नाम के लिए आकुल एक ही व्यक्ति दीखा-वह चिकित्सक! उसकी सेवाभावना देखकर अंदर से हृदय द्रवित हो उठा। न जाने कब जनमानस धर्म के सच्चे स्वरूप को समझेगा।


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