चतुर्थ चरण का समापन होगासौत्रामणी याग एवं पुरुषमेध महायज्ञ द्वारा

September 2000

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आज की प्रतिकूलताओं, बढ़ती अनैतिकता-अपराधों-अराजकता को देखकर किसी का भी मन निराश हो सकता है। वह कह सकता है कि विज्ञापन के चमत्कारी आविष्कारों से भरी बीसवीं सदी के समापन की इस वेला में इक्कीसवीं से भरी बीसवीं सदी के समापन की इस वेला में इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य से भरा होने की बात कहना, सत्य को झुठलाना है, मात्रा एक यूटोपिया है, झूठा आश्वासन है, स्वप्न मात्र है। सही भी हैं। परिस्थितियों के आधार पर तो यही आकलन किया जा सकता है। ग्रामीण परिवेश से लेकर शहरों-उपनगरों तक व राष्ट्र की सीमा से नेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूरे विश्व में जहाँ देखें, अस्थिरता ही में दिखाई देती है। कहीं आशा का कोई चिह्न नहीं दिखाई देता। कोई मनीषी तंत्र ऐसा नहीं दिखाई देता, जिसे देखकर कहा जा सके कि हाँ, ऐसा आशा का संचार करने वाला कोई एक प्रकाश स्तंभ है, जो चारों दिशाओं में प्रकाश-विस्तार कर आज के निविड़ अंधकार को मिटाने में सक्षम है।

निराश-अवसाद की इन घड़ियों में भी यदि चारों ओर परिवर्तन हेतु बेचैनी है, अंदर से अकुलाहट है, जन-जन के मन में चिढ़ खीज बढ़ती जाती है। जन-आक्रोश उबलता प्रतीत होता है, तो यह एक शुभ संकेत है। यह बेचैनी सभी उपर्युक्त उद्धरण इसलिए दिया गया कि हम आश्वस्त हो सके कि नवयुग के अरुणोदय की इस वेला में सुनिश्चित रूप से प्रज्ञावतार का प्रकटीकरण होने जा रहा है। अभी का अंधकार अरुणोदय के पहले घने अंधकार का क्षणिक समय मात्र है। इसे देखकर इस अवधि से गुजरते हुए हमें तनिक भी अधीर नहीं होना चाहिए। प्रसव पीड़ा होती ही कष्टभरी है एवं जब नवयुग जन्म लेने जा रहा हो, पूरी धरती उस प्रसव-पीड़ा से गुजर रही हो, तो हममें से कोई चैन से रह भी कैसे सकता है?

जरा देखें, आज से बारह वर्ष पूर्व युगसंधि महापुरश्चरण आरंभ होते समय हमारी गुरुसत्ता ने क्या कहा था, “वर्तमान समय विश्व इतिहास में अद्भुत एवं अभूतपूर्व स्तर का है। इसमें एक ओर महाविनाशी प्रलयंकर तूफान अपनी प्रचंडता का परिचय दे रहा है, तो दूसरी ओर सतयुगी नव निर्माण की उमंगें भी उछल रही हैं।” (अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1399, पृष्ठ 42) “युग परिवर्तन की, नवसृजन की, नवसृजन की संभावना तो पूरी होने ही वाली है, क्योंकि उसके न बन पड़ने पर ‘महाप्रलय’ ही होश रह जाती है, जो कि स्पष्ट को अभी स्वीकार नहीं।” (पृष्ठ 51 अखण्ड ज्योति की अक्टूबर 1399) “सामूहिक जीवन मनुष्य की नियति है। इन दिनों सामूहिकता

एक प्रकार से अनिवार्य हो गई है। अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने वाले यह नहीं समझते कि गूलर के एक फल को आँच आने पर उसके भीतर रहने वाले सभी भुनगे अपनी जान गँवा बैठते हैं।” (पृष्ठ 52 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1399) “पूर्वार्ध और पाश्चात्य दिव्यदर्शियों ने ऐसी भविष्य वाणियाँ की है, जिनसे प्रतीत होता है कि कुसमय का अंत आते-आते कहर बरपेगा, किंतु इसके बाद ऐसा समय आएगा, जिसमें पिछले समस्त घाटे की पूर्ति हो जाएगी।” (अखण्ड ज्योति नवंबर 1399, पृष्ठ 51) “सूक्ष्म जगत् के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने (हेतु एक दिव्य उपासना है यह बारह वर्षीय महापुरश्चरण। इसका उद्देश्य है, मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव बनाने के लिए सामूहिक महासाधना का नियोजन। इसे नाम दिया गया है युगसंधि महापुरश्चरण। यह आयोजन शाँतिकुँज हरिद्वार के अंतर्गत बारह वर्ष तक सन् 2000 तक चलता रहेगा। इक्कीसवीं सदी के आरंभ के साथ ही इसकी महापूर्णाहुति होगी।” अखण्ड ज्योति नवंबर 1399, पृष्ठ 61 बाद में परमपूज्य गुरुदेव ने फरवरी 133 की अखण्ड ज्योति में सभी को संबोधित करते हुए कहा, “एक ही व्रष्सेजप के लिए, एक ही सूत्र में संबद्ध होकर, एक ही दिन में एकरूपता वाली साधना चलती है, तो उससे बिखराव वाली अस्तव्यस्तता की तुलना में अनेक गुना सत्परिणाम हस्तगत होता है। प्रस्तुत युगसंधि महापुरश्चरण को उसी स्तर का, जिसमें देवताओं की बिखरी शक्ति से प्रजापति द्वारा महाकाली का सृजन किया गया था, एक सामयिक प्रयोग समझा जा सकता है।” (पृष्ठ 25)

बड़ा स्पष्ट परिस्थिति का विवेचन है। दिवंगत दस वर्षों में धरती ने बहुत झेले, विभीषिकाएं आईं, दैवी प्रकोप बरसे तो साथ-ही-साथ विज्ञान के आविष्कार भी विकास की चरम स्थिति में पहुँचे, प्रतिभाओं का एक विराट् परिकर उभरकर आता दिखाई पड़ा एवं अब एक बड़े व्यापक स्तर पर बेचैनी के रूप में परिवर्तन की आँधी आती दिखाई पड़ती है। ऐसी ही वेला में गायत्री परिवार द्वारा एक विराट् श्रद्धाँजलि समारोह, एक भूपति संकल्प समारोह, भारत व विदेश में सत्ताईस आश्वमेधिक विराट् आयोजन, एक वाजपेय स्तर का विराट् महायज्ञ तथा 400 से अधिक संस्कार महोत्सव पूरे देश व विदेश की धरती पर संपन्न हुए। प्रखर साधना वर्ष (1333) आते-आते इस विराट् महापुरश्चरण की परिधि बड़ी व्यापक हो गई एवं प्रायः चौबीस हजार करोड़ का गायत्री जप प्रतिवर्ष संपन्न होने लगा है। विगत वर्ष दिसंबर में विकलांगता निवारण दिवस से आरम्भ हुई, इस विराट् अनुष्ठान की महापूर्णाहुति अब चौथे चरण में जा पहुँची, जहाँ दो आयोजन सम्पन्न होने है। पहला विभूति महायज्ञ, जो नई दिल्ली में आठ अक्टूबर रविवार को सायं 5 से 6 की अवधि में संपन्न हो रहा है तथा सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ जो नवम्बर माह में देवोत्थान एकादशी (9 नवंबर) से आरम्भ होकर कार्तिक पूर्णिमा (11 नवंबर) को समाप्त हो रहा है। पहले की व्याख्या विगत लेख में कि जा चुकी अब समझें कि यह नवंबर का अनुष्ठान किसी स्तर का है।

सृजन हेतु संकल्प लिए जाने के लिए विभूतियों के माध्यम से यह महायज्ञ संपन्न हो रहा है। दो लाख प्राणवान् नियोजकों के द्वारा राष्ट्र को दो करोड़ विभूतियों के अर्पण के रूप में यह एक विराटतम प्रयोग-उपचार है। राष्ट्र का नवसृजन, विश्व का नवनिर्माण, साँस्कृतिक जागरण एक विराट् संकल्प प्रधान महायज्ञ द्वारा ही सम्भव है, जो अभूतपूर्व स्तर का हो, इस युग में पहले कही भी सम्पन्न नहीं हुआ हो।

अपनी यह महापूर्णाहुति जिस वेला विशेष में आई है, स्वयं बड़ी अद्भुत है। जप एवं यज्ञ का युग माना जाता है। बारह वर्षीय युग संधि महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ के रूप में एक विराट् यज्ञशाला में संकल्पित प्रतिभावो के द्वारा अपने क्षेत्र की जिम्मेदारी उठाने से लेकर स्वयं के परिष्कार के राष्ट्र के उत्थान-नवोन्मेष हेतु आहुतियों सहित की जानी है। प्रतिभावो की सिद्धि का महायज्ञ है। जब इसे श्रैतयज्ञों की परिपाटी का शास्त्रोक्त संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया गया, तो कई अद्भुत संयोग सामने आए। परमपूज्य गुरुदेव के रूप में द्रष्टा स्तर की अवतारी ने जिस समय विशेष में विकेंद्रित सम्भागीय पूर्णाहुतियों के बाद इक्कीसवीं सदी के आगमन की वेला में एक विराट् महापूर्णाहुति की बात कही है, वह समय यही है, जो नवंबर माह, 2 के प्रथम पखवाड़े में आ रहा है। देवोत्थान एकादशी (7 नवंबर 2) से लेकर कार्तिक पूर्णिमा (11 नवंबर 2000) तक का समय एक विशिष्ट समय है, परिजनों को स्मरण होगा की ऐतिहासिक 1359 का सहस्र कुँडीय महायज्ञ भी इसी माह इसी वेला में आयोजित हुआ था। 37 वर्षों बाद 1335 में आंवलखेड़ा में संपन्न विराट् स्तर पर प्रथम पूर्णाहुति भी 6 से 4 नवंबर, किंतु इन्हीं तिथियों में संपन्न हुई। आप अपना यह अनुष्ठान 7 से 11 नवंबर में इन्हीं तिथियों में आया है।

भारतीय संस्कृति के इतिहास पर नजर डालते हैं, तो जानकारी मिलती है कि ऐसे प्रयोग सौत्रामणी प्रयोग विधान के रूप में जाने जाते रहे, जिसमें विशिष्ट उद्देश्य को लेकर एक विराट् स्तर पर यज्ञ महायज्ञ एवं आश्वमेधिक पराक्रम सम्पन्न हुए हों। सौत्रामणी प्रयोग के विषय में महर्षि दयानंद का मत है कि स्वाध्याय रूपी यज्ञ में जो यज्ञोपवीत आदि सूत्र, मणी, ग्रंथि आदि के सहित शिष्य द्वारा धारण कराया जाता है, वही सौत्रामणी यज्ञ है

सूत्रणी यज्ञोपवितदिनी मणीना ग्रंथिना भूवानि धियन्ते यस्मिन् इति सौत्रमणी। ‘सूत्रात’ शब्द का अर्थ होता है, बुराइयों से बचाना। इस प्रकार सुत्रात शब्द सौत्रामणि शब्द बन गया।

यजुर्वेद के 13 वें 21 वें अध्याय, शतपथ ब्राह्मण एवं कात्यायन श्रौतसूत्र में भी इसका वर्णन मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में सौत्रामणी याग को यज्ञ शरीर का आत्मा कहा गया है।

आत्यम वै यज्ञस्य सौत्रामणी बाहू ऐन्द्रश्च वयोधाश्य। (शतपथ-12॰4॰5॰26) यदि यज्ञ के विराट् अर्थ को हम समझा सकें, तो सौत्रामणी उसकी आत्मा है, यह व्याख्या ऋषिगणों ने की है। यह यज्ञ राष्ट्र के ब्रह्मणत्व की वृद्धि हेतु किया जाने वाला एक विराट् अनुष्ठान है। ऋषि कहते हैं-

जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम नई दिल्ली में होने जा रहे ‘विभूति ज्ञान यज्ञ’ में मात्रा नब्बे हजार से एक लाख व्यक्ति भागीदारी कर सकेंगे। उन्नीस हजार कुर्सियों पर दस दरवाजों द्वारा तथा प्रायः 75 हजार व्यक्ति सीमेंट की बनी सीढ़ियों पर छप्पन दरवाजों द्वारा प्रवेश कर सकेंगे। पाठक-परिजन सुनिश्चित कर ले कि कौन कितनी संख्या में भागीदारी करेंगे। आमंत्रण पत्र जिनमें गेट संख्या व उसकी स्थिति अंकित होगी, शांतिकुंज से भेजे जा रहे हैं।

सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ अब निकट आ पहुँचा तब तस्मादेष ब्राह्मण यज्ञ एवं यव्सौत्रामणी। यहाँ ब्राह्मण शब्द का अर्थ परोपकार की वृति का विकास करने वाले प्रतिभावानों से है। ज्ञान का अर्जन कर वितरण करने वाले दैवी शक्तिसंपन्नों से। परमपूज्य गुरुदेव ने कहा कि गायत्री ब्राह्मणत्व का अभिवर्द्धन कर व्यक्ति को दैवी अनुदानों- परिष्कृत व्यक्तित्व रूपी वरदान हेतु सुपात्र बना देती है। इसी अर्थ में यहाँ ब्राह्मण शब्द आया है। सौत्रामणी याग में इंद्र संकल्प के देवता के रूप में, अश्विनी कुमार स्वास्थ्य संरक्षण के निमित्त प्रतीक, संकटों से बचाने वाले तथा सरस्वती मेधा-प्रतिभा की देवी के रूप में पूजे जाते हैं। इसमें ‘इंद्र’ इसके प्रधान देवता है। इस यज्ञ से गायत्री छंद के जुड़ने पर आत्मा को तेज, बल एवं आयु प्राप्त होते हैं, ऐसा शास्त्रों का मत हैं शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, पाप से अच्छी प्रकार रक्षा करने कारण ही इस याग को सौत्रामणी याग कहते हैं।

सुत्राम् इयं सौत्रामणी, सुत्रामा शब्द का अर्थ इंद्र। जिस यज्ञ का प्रधान देवता इंद्र हो, जो चारों दिशाओं को प्रकाशित करे, वही सौत्रामणी याग कहलाता है। लौकिक-पारलौकिक दोनों ही दृष्टि से इस याग का बड़ा महत्व है, क्योंकि यह यवन करने वाले को यश प्रदान करता है, धन-संपत्ति के अयन खोल राष्ट्र को ऐश्वर्यशाली बनाता है। प्रतिभावानों को उभारकर उन्हें नेतृत्व सँभालने योगाय बनाता है। पराक्रम की अभिवृद्धि कर यह राष्ट्र को दिग्विजयी बनाता है। शास्त्र के अनुसार, इस यज्ञ को चार दिन में संपन्न किया जाता है, शुक्ल पक्ष की द्वादशी से पूर्णिमा तक ।

सौत्रामणी प्रयोग के साथ दक्षिण के क्रम में गौ का वत्स दिया जाता है। प्रतीकात्मक रूप से इसे ऐसे समझा जा सकता है कि गौ संवर्द्धन हेतु संकल्पित हुआ जाता है गायत्री परिवार के गौरक्षा अभियान, गौ केंद्रित ग्राम व्यवस्था आँदोलन को इस सौत्रामणी प्रयोग से जोड़ा जाए, तो लगता है कि यह पूर्व निर्धारित एक उपक्रम है, जो अभी महापूर्णाहुति के साथ संपन्न होने जा रहा है।

श्रौत यज्ञों के इस विलक्षण प्रयोग के अंतर्गत ही प्रस्तुत महापूर्णाहुति के सृजन संकल्प महायज्ञ को पुरुषमेध महायज्ञ के रूप में संपन्न किया जा रहा है। पुरुषमेध इस सौत्रामणी प्रयोग का ही एक अंग है, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मण में बड़े विस्तार से आया है। पुरुषमेध का अर्थ यह नहीं कि किसी की बलि दी जाती हो अथवा वध किया जाता हो। अश्वमेध संपन्न करने वाले हमारे पाठक-परिजन 1332 के नवंबर माह की अखण्ड ज्योति विशेषांक में मेध शब्द की व्याख्या से पूर्णतः परिचित हैं। यहाँ मेध शब्द का अर्थ है परस्पर मिलना, संगति करना, जोड़ता, परस्पर प्रेमभाव बढ़ाना। पुरुष शब्द का अर्थ स्त्री-पुरुष, मानव जाति है। शतपथ ब्राह्मण में इस संदर्भ में बड़ा सुँदर वर्णन मिलता है। अध्याय 3 वे 31 में इस संदर्भ में विस्तार से पढ़ने को मिलता है। पुरुषमेध का प्राकट्य कैसे हुआ, इस संबंध में उल्लेख है,

पुरुषो हे नारायणोऽकायमत। भतितिष्ठे यथ सर्वाणि भूतान्यहमेवेदथ सर्वथ स्यामिति सं एतं पुरुषमेधं पंजरात्रंयज्ञक्रतुमपश्यत, माहरतेनायजत तेनेष्ट्वत्यतिष्ठत्सर्वाणि भूतानीद था सर्वमभवदतितिष्ठित सर्वाणि भूतानीद था सर्वं भवति य एवं विद्वान्पुरुषमेधेपन यपते यो वैतदेवं वेद। (शतपथ 13॰6॰1॰1)

पुरुष नारायण ने चाहा कि मैं जीवों में सर्वोपरि हो जाऊँ। मैं ही सब कुछ हो जाऊँ। उन्होंने इस पुरुषमेध पंचरात्र यज्ञक्र्रतु को देख। उसको ले लिया। उससे यवन किया। उस यज्ञ को करके जीवों में सर्वोपरि हो गया और उस संसार में वही सब कुछ हो गया। जो मनुष्य इस रहस्य को समझता है या समझकर पुरुषमेध यज्ञ करता है, व है सब जीवों में बड़ा तथा सब कुछ हो जाता है।

अथ यस्मात्पुरुषमेधो नाम। इमै वै लोकाः पूरयमेव पुरुषो योऽयपवतेसोऽस्याँ पुरिशेते तस्मात्पुरुषस्तस्य यदेषु लोकेष्वन्नं तदस्यान्नं मेधस्तद्यदस्यैतदत्रंमेधैस्तस्मात्पुरुषमेधोऽथो यदस्मिन्मेध्यानपुरुश्षानलालभ्तेतस्माद्देव पुरुषमेधः। (शतपथ॰ 13॰6॰2॰1)

इसका पुरुषमेध नाम इसलिए पड़ा कि ये लोक पुरुषमेध नाम इसलिए पड़ा कि ये लोक ‘पुर’ हैं और पुरुष वह है, जो बहता है (वायु)। वह इस पुर में लेटा है, इसलिए वह पुरुष है। इन लोकों में जो अंत है, वह इसका मेध है, इसलिए इसका नाम पुरुषमेध है। चूँकि इसमें मेध पुरुष का आलंभन होता है, इसलिए भी इसका नाम ‘पुरुषमेध’ है।

पुरुषमेध यज्ञ का विस्तृत विवरण तो विस्तार से पाठक अगले अंक में पढ़ सकेंगे, परंतु यहाँ यही लिखना पर्याप्त होगा कि अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिभावानों के एकत्रीकरण द्वारा राष्ट्र को श्रेष्ठतम ऊँचाई तक पहुँचाई तक पहुँचा सकने के लिए सामूहिक शव में प्रतिभाओं को संकल्पित कर उन्हें समाज, राष्ट्र विश्व के कल्याण हेतु नियोजित करने के लिए सौत्रामणी प्रयोग के अंतर्गत इस पुरुषमेध याग की व्यवस्था ऋषियों ने बनाई है। प्राचीनकाल में सामूहिक वानप्रस्थ, वेद-संन्यास का कर्म भी इस यज्ञ के साथ संपन्न होता था।

कुछ ऐसा ही क्रम प्रस्तुत महापूर्णाहुति में होने जा रहा है, जब राष्ट्र के साँस्कृतिक नवजागरण के लिए बड़े स्तर पर मनुष्य, प्रतिभावान् इस संस्कार दीक्षा में भागीदारी करें। भागीदारी करेंगे। आशक्ति व पूर्ण समय दे सकने वाले अनेक लोकसेवी राष्ट्र-स्तर की स्थापना ही इस लक्ष्य के साथ की जा रही है कि आने वाले दिनों में केंद्रीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर इसका एक अंग बनकर वे कार्य करने हेतु संकल्पित हों। यदि अश्वमेध संस्कार महोत्सव इस सौत्रामणी प्रयोग के समान थे, तो अनुयाज रूप में प्रतिभा परिष्कार की सत्र शृंखला चलेगी, जो अनुयाज रूप में 2001 के अखण्ड दीपक एवं युगचेतना के अवतरण के हीरक जयंती वर्ष में सम्पन्न होगी।

आज की परिस्थितियों में युगसंधि महापुरश्चरण रूपी विराट् अनुष्ठान की महापूर्णाहुति हेतु इससे श्रेष्ठ और क्या हो सकता था कि राष्ट्र की चुनी हुई विभूतियाँ उसके उत्कर्ष के लिए सृजनात्मक संकल्प लें। यही है हमारा नवंबर माह का ऐतिहासिक आयोजन।

तृतीय अध्याय के कर्मयोग की युगानुकूल विवेचना का क्रम इस स्तंभ के अंतर्गत विगत कई अंकों से चल रहा है। इस अति महत्वपूर्ण तीसरे अध्याय के हर श्लोक में बड़ा गूढ़ शिक्षण छिपा पड़ा है। अगस्त 2000 की अखण्ड ज्योति में श्लोक क्रमाँक 16 से 20 तक की व्याख्या विस्तार से प्रस्तुत की गई थी। इसमें भगवान् श्री कृष्ण राजा जनक का उदाहरण देते हुए, आसक्ति रहित कर्म कैसे किए जाने चाहिए, यह अर्जुन को समझाते हैं। भगवान् कहते हैं कि लोकशिक्षण-मार्गदर्शन (लोकसंग्रह) को देखते हुए भी (ध्यान में रखकर भी) तुझे कर्म करना चाहिए। जनक के साथ भगवान् आदि शब्द का प्रयोग करते हुए प्रहाद, अंबरीश, इक्ष्वाकु, अश्वपति आदि को भी शामिल करते हुए उनके द्वारा जिए गए जीवन का अनुसरण करने की बात कहते हैं। भगवान् चाहते हैं कि लोक-शिक्षण हेतु उसे मर्यादित आचरण करना चाहिए, मानवी गरिमा के अनुरूप निर्धारित कर्मों को संपादित करना ही चाहिए। प्रबुद्ध-प्रतिभाशाली-पराक्रमी अर्जुन से भगवान् को नहीं, पांडव समुदाय को ही नहीं, सारे समाज को अपेक्षा है। सुलझे हुए व्यक्तित्वसंपन्न महामानव यदि असमंजस में पड़ जाएंगे, तो कैसे काम चलेगा। भगवान् विभूतिसंपन्न महामानवों में व शिश्नोदरपरायण जीवन जीने वालों में अंतर स्थापित कर स्पष्ट करते हैं कि उसकी भूमिका विशिष्ट है, उसके आचरण के अनुरूप ही तत्कालीन समाज ढलेगा, इसके लिए उसे अपने कर्तव्य से तनिक भी पीछे नहीं हटना चाहिए। सद्गुरु की भूमिका ऐसी ही होती हैं जैसी भगवान् कृष्ण की रही है। विगत अंक में हमने पूज्यवर की लेखनी का हवाला देते हुए प्राणवान् प्रज्ञावानों के कर्तव्यों की चर्चा की थी व बताया था कि जागरुकों का अग्रगमन समय की महती आवश्यकता है। इसी व्याख्या को अब आगे बढ़ाते हैं।


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