जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ

September 2000

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।

देवियों और भाइयों! भगवान ने गीता में ‘विभूति यो’ वाले दसवें अध्याय में एक बात बताई है कि जो कुछ भी यहाँ श्रेष्ठ दिखाई पड़ता है, ज्यादा चमकदार दिखाई पड़ता है, वह मेरा ही विशेष अंश है। जहाँ कहीं भी चमक ज्यादा दिखाई पड़ती है, वह मेरा विशेष अंग है। उन्होंने कहा, वृक्षों में मैं पीपल हूँ। छलों में मैं जुआ हूँ। वेदों में मैं सामवेद हूँ। साँपों में वासुकी मैं हूँ। अमुक में अमुक मैं हूँ-आदि। मुझ में ये सारी विशेषताएँ है। मित्रो! आपको जहाँ कही भी चमक दिखाई पड़ती है, वो सब भगवान् की विशेष दिव्य विभूतियाँ है और जहाँ कहीं भी जितना अधिक विभूतियों का अंश है, यह मानकर के हमको चलना पड़ेगा कि यहाँ इस जन्म में अथवा पहले जन्मों में इन्होंने किसी प्रकार से इस संपत्ति का उपार्जन किया है। अगर यह उपार्जन इन्होंने नहीं किया है, तो सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा उनमें ये विशेषता क्यों दिखाई पड़ती है? इसलिए उनको उद्बोधन करना चाहिए। उन लोगों को, जिनके अंदर कुछ विशेष प्रभाव और विशेष चमक दिखाई पड़ती है।

संपदा बनाम विभूति

मित्रो! विशेष प्रभाव और विशेष चमक क्या है? वह है जिनको हम विभूतियाँ कहते हैं। कुछ संपदाएँ होती है, कुछ विभूतियाँ होती है। संपदाएँ क्या होती है और विभूतियाँ क्या होती है? संपदा उसे कहते हैं जो कि बाप-दादों की है। वे उसे छोड़कर चले जाते हैं और हम उस कमाई को बैठकर खाया करते हैं। ये संपदाएँ है। ये स्त्रियों को भी मिल जाती है, बच्चों को भी मिल जाती है। ये कोढ़ियों को भी मिल जाती है, अंधों को मिल जाती है और पंगु को भी मिल जाती है, गूँगे-बहरे को भी मिल जाती है। गूँगे-बहरे भी कई बार जुआ खेलते हैं और लाटरी लगाते हैं। लाटरी लगाने के बाद में उनको रुपया भी मिल जाता है। न मालूम किसको क्या मिल जाता है बाप-दादों की कमाई से? बाप-दादों की कमाई से मिनिस्टरों के लड़के-लड़कियों को ऐसे-ऐसे काम मिल जाते हैं, ऐसे-ऐसे धंधे मिल जाते हैं, जिनसे उनको घर बैठे लाखों रुपये की आमदनी होती रहती है। इसे क्या कहते है? इसे हम संपदा कहते हैं।

किसी के पास जमीन है। भगवान् की कृपा से उस साल अच्छी वर्षा हो गई, तो दो सौ क्विन्टल अनाज पैदा हो गया। दो सौ क्विन्टल अनाज बिक गया तो ढेरों पैसा आ गया और उसे बैंक में जमा करा दिया। मकान बन गया, ये बन गया-वो बन गया। पैसे का खेल बन गया। क्या कहता हूँ मैं इनको? इनको मैं संपत्तियाँ कहता हूँ। संपत्ति जमीन में गड़ी हुई मिल सकती है, बाप-दादों की उत्तराधिकार में भी मिल सकती है और किसी बड़े आदमी की कृ एवं आशीर्वाद से भी मिल सकती है। संपत्ति किसी भी तरीके से मिल सकती है, किन्तु संपत्तियों को कोई मूल्य नहीं है। विभूतियों का मूल्य है। विभूतियाँ जहाँ कही भी दिखाई पड़े, उनको आप यह मानकर चलना कि वे भगवान् का विशेष अंग हैं। विशेष अंग जो उनके भीतर है, वह जहाँ कहीं भी हो, उस अंश को जाग्रत करना, उसको उद्बोधन करना और सोए हुओं को जगाना हमारा-आपका विशेष काम है।

साथियों! रावण के घर में ढेरों-के-ढेरों आदमी थे। सुना है एक लाख बच्चे थे और सवा लाख नाती-पोते थे, लेकिन जब रामचंद्र जी से लड़ाई हो गई और दोनों और की सेनाएँ खड़ी हो गई, तो उसने देखा कि हमारे पास एक ही सहायक, एक ही मजबूत और जबरदस्त आदमी है। उसको जगाया जाना चाहिए और उसकी खुशामद की जानी चाहिए। उसकी खुशामद की जाने लगी, उसे जगाया जाने लगा। कौन आदमी था वह उसका नाम था कुँभकरण। वह छह महीने सोया करता था और छह महीने जागा करता था। रावण को यह विचार आया कि कुँभकरण यदि जाग करके खड़ा हो जाए, तो सारे रीछ बंदरों को एक ही दिन में मारकर खा जाएगा। एक ही दिन में सफाया कर देगा और लड़ना भी नहीं पड़ेगा और रामचंद्र जी की सेना का सफाया हो जाएगा। सुना है कि इसीलिए उसके ऊपर बैल, घोड़े, और हाथियों, को चलाना पड़ा था, ताकि कुँभकरण की नींद छह महीने पहले ही खुल जाए और वह उठकर खड़ा हो जाए। अगर वह तुरंत उठकर खड़ा हो गया होता, अगर जाग गया होता तो रामचंद्र जी की सेना के लिए मुसीबत खड़ी कर दी होती, लेकिन भगवान् की कृपा ऐसी हुई, भगवान् का जोश और प्रताप ऐसा हुआ कि वह काफी देर से जगा। तब तक बहुत कुछ नष्ट हो चुका था। इसीलिए रावण मरा गया, मेघनाद मारा गया और सारी लंका तहस-नहस हो गई।

विभूतिवान् जागें

मित्रो! हमको समाज में सोए हुए गड़े हुए कुँभकरणों को जगाना चाहिए। कुंभकरणों की कमी है क्या? नहीं, इनकी कमी नहीं है, पर वे सो गए है। हमारा एक दाम यह भी होना चाहिए कि जहाँ कही भी आपको विभूतिवान् मनुष्य दिखाई पड़े, तो आपको उनके पास बार-बार चक्कर काटना चाहिए और बार-बार उनकी खुशामद करनी चाहिए।

विभूतिवान् लोगों में एक तबके के वे लोग आते हैं, जिनको हम विचारवान कहते हैं, समझदार कहते हैं। समझदार मनुष्य इस ओर चल पड़े तो भी गजब ढा देते हैं और उस ओर चल पड़े तो भी गजब ढा देते हैं। मोहम्मद अली जिन्ना बड़े समझदार आदमी थे और बड़े अक्लमंद आदमी थे। मालवार हिल के ऊपर मुँबई में उनकी कोठी बनी हुई हैं उनके यहाँ चालीस जूनियर वकील काम करते थे और केस तैयार करते थे। मोहम्मद अली जिन्ना केवल बहस करने के लिए हाईकोर्ट में जाते थे और एक-एक केस का हजारों रुपया वसूल करते थे उस जमाने में। मोतीलाल नेहरू के मुकाबले के आदमी थे। उनमें बड़ी अक्ल थी, बड़ दिमाग वाले थे। बड़ा दिमाग वाला, अक्ल वाला मनुष्य इधर को चले तो भी गजब और उधर को चले तो भी गजब। सही भी कर सकता था वह तथा गलत भी। यही हुआ।

मोहम्मद अली जिन्ना एक दिन खड़े हो गए और पाकिस्तान की वकालत करने लगे, पाकिस्तान की हिमायत करने लगे। परिणाम क्या हुआ? परिणाम यह हुआ कि सारे पाकपरस्तों के अंदर उन्होंने एक ऐसी बगावत का मादद् पैदा कर दिया, ऐसी लड़ाई पैदा कर दी, जेहाद पैदा कर दी और न जाने क्या-क्या पैदा कर दिया कि एक ही देश के लोग एक दूसरे के खूनी हो गए, बागी हो गए। खूनी और बागी होकर के जहाँ-तहाँ दंगे करने लगे। आखिर में गाँधी जी को यह बात मंजूर करनी पड़ी कि पाकिस्तान बनकर ही रहेगा। निर्णय सही था कि गलत, यह चर्चा का विषय नहीं है। वास्तविकता यह जाननी चाहिए कि यह जहर किसने बोया? यह जहर उस आदमी ने बोया, जिसको हम समझदार कहते हैं और अक्लमंद कहते हैं। मोहम्मद अली जिन्ना कहते हैं। यह तो मैं उदाहरण दे रहा हूँ। मनुष्यों का क्या उदाहरण दूँ, मैं तो समझदारी का उदाहरण दे रहा हूँ।

कीमत सही अक्ल की

समझदारी जहाँ कहीं भी होगी, न जाने क्या-से-क्या करती चली जाएगी? समझदार आदमी आर्थिक क्षेत्र में चला जाएगा तो वो मोनार्क पैदा हो जाएगा और हेनरी फोर्ड पैदा हो जाएगा। पहले ये छोटे-छोटे आदमी थे। नवसारी गुजरात का एक नन्हा-सा आदमी, जरा-सा आदमी और समझदार आदमी अगर व्यापार क्षेत्र में चला जाएगा। राजस्थान का एक अदना-सा आदमी जुगल किशोर बिड़ला होता चला जाएगा। अगर आदमी के अंदर गहरी समझदारी हो तब? तब एक नन्हा-सा आदमी, जरा-सा आदमी, वो कौड़ी का आदमी जिधर चलेगा अपनी समझदारी के साथ वह गजब ढाता हुआ चला जाएगा।

मित्रो! गहरी समझदारी की बड़ी कीमत है। गहरी समझदारी वाले सुभाषचंद्र बोस गजब ढाते हुए चले गए। सरदार पटेल एक मामूली से वकील। यों तो दुनिया में एक ही नहीं, बहु सारे वकील हुए हैं, लेकिन पटेल ने अपनी क्षमता और प्रतिभा यदि वकालत में खरच की होती, तो शायद अपनी समझदार अक्ल की कीमत एक हजार रुपया महीना वसूल कर ली होती और उन रुपयों को वसूल करने के बाद में मालदार हो गए होते और उनका बेटा शायद विलायत में पढ़कर आ जाता और वह भी वकील हो सकता था। उनकी हवेली थी हो सकती थी और घर पर मोटरें भी हो सकती थी, लेकिन वहीं सरदार पटेल अपनी समझदारी को और अपनी बुद्धिमानी को लेकर खड़े हो गए। कहाँ खड़े हो गए? वकालत करने के लिए। किसकी वकालत करने के लिए? काँग्रेस की वकालत करने के लिए। जब वे वकालत करने के लिए खड़े हो गए, तो कितनी जबरदस्त बैरिस्टरी की और किस तरीके से वकालत की और किस तरीके से तर्क पेश किए और किस तरीके से उनने फिजाँ पैदा की कि हिन्दुस्तान की दिशा ही मोड़ दी और न जाने क्या-से-क्या हो गया?

मित्रो! अक्ल बड़ी जबरदस्त है और आदमी का प्रभाव, जिसको मैं प्रतिभा कहता हूँ, विभूति कहता हूँ, यह विभूति बड़ी समझदारी से भरी है। अगर यह विभूति आदमी के अंदर हो, तो जिसको मैं आदमी का तेज कहता हूँ, चमक कहता हूँ, तो वह आदमी जहाँ कहीं भी जाएगा, वो टॉप करेगा। वह टॉप से कम रह ही नहीं सकता। सूरदास जब वेश्यागामी थे, बिल्वमंगल थे, तो उन्होंने अति कर डाली और सीमा से बाहर चले गए। वहाँ तक चले गए जहाँ तक कि अपनी धर्मपत्नी के कंधे पर बैठकर वहाँ गए, जहाँ उनके पिताजी का श्राद्ध हो रहा था। वहाँ भी पिताजी के श्राद्ध के समय भी वे वेश्यागम के लिए चले गए। श्राद्ध करने के लिए भी नहीं आए। अति हो गई।

प्रतिभाएँ सदैव शीर्ष पर पहुँची

और तुलसीदास? तुलसीदास जी भी जिजीविषा के मोह में पड़े हुए थे। सारी क्षमता और सारी प्रतिभा इसी में लग रही थी। एक बार उनको अपनी पत्नी की याद आई। वह अपने मायके गई हुई थी। नदी बह रही थी। वे नदी में कूद पड़े। नदी में कूदने पर देखा कि अब हम डूबने वाले है और कोई नाव भी नहीं मिल रही है। तभी कोई मुरदा बहता हुआ चला आ रहा था, बस वे उस मुरदे के ऊपर सवार हो गए और तैरकर नदी पार कर ली। उनकी बीबी छत पर सो रही थी। वहाँ जाने के लिए उन्हें सीढ़ी नहीं दिखाई पड़ी, रास्ता दिखाई नहीं पड़ा। वहाँ पतनाले के ऊपर एक साँप टँगा हुआ था। उन्होंने साँप को पकड़ा और साँप के द्वारा उछलकर छत पर जा पहुँचे। कौन जा पहुँचे? तुलसीदास! यही, तुलसीदास जब हिम्मत वाले, साहस वाले तुलसीदास बन गए, प्रतिभा वाले तुलसीदास बन गए, तब वे संत हो गए।

इसी तरह सूरदास, प्रतिभा वाले और हिम्मत वाले सूरदास जब खड़े हो गए और जो भी दिशा उन्होंने पकड़ ली, उसमें उन्होंने टॉप किया। सूरदास ने जब अपने आपको संभाला लिया और अपने आपको बदल लिया, तब उन्होंने टॉप किया। टॉप से कम में तो वे रह ही नहीं सकते। वही बिल्वमंगल जब वेश्यागामी था तो पहले नंबर का और जब संत बना तब भी पहले नंबर का। संत पहले नंबर का क्यों? इसलिए कि वह भगवान का भक्त हो गया। जब वह भगवान् का भक्त हो गया, तो फिर वह ऐसा मजेदार भक्त हुआ कि उसने वह काम कर दिखाए, जिस पर हमको अचंभा होता है। हिम्मत वाला और दिलेर आदमी जो काम कर सकता है, मामूली आदमी उसे नहीं कर सकता। उसने अपनी आँखें गरम सलाखें डालकर फोड़ डाली। हम और आप कर सकते हैं क्या? नहीं कर सकते। ऐसा कोई दिलेर आदमी ही कर सकता है। उसने दिलेरी के साथ और तन्मयता के साथ ऐसी मजबूत भक्ति की कि श्रीकृष्ण भगवान् को भागकर आना पड़ा और बच्चे के रूप में, जिनको कि वे अपना इष्टदेव मानते थे, उसी रूप में उनकी सहायता करनी पड़ी। आँखों के अंधे सूरदास की लाठी पकड़ करके टट्टी-पेशाब कराने के लिए, स्नान कराने के लिए भगवान् ले जाया करते थे और सारा इंतजाम किया करते थे। भगवान् उनकी नौकरी बजाया करते थे।

कौन से सूरदास की? उस सूरदास की, जो प्रतिभावान् था। मैं किसकी प्रशंसा कर रहा हूँ? भक्ति की? भक्ति की बाद में, सबसे पहले प्रतिभा की, समझदारी की। प्रतिभा की बात मैं कह रहा हूँ। प्रतिभा अपने आप में एक जबरदस्त वस्तु है। वह जहाँ कहीं भी चली जाएगी, जिस दिशा में भी चली जाएगी, चाहे वह जहाँ कहीं भी जाएगी, पहले नंबर का काम करेगी। तुलसीदास ने क्या काम किया? तुलसीदास ने जब अपनी दिशाएँ बदल दी, जब उनकी बीबी ने कहा, नहीं तुम्हारे लिए ये मुनासिब नहीं है। क्या तुम इसी तरीके से वासना में अपनी जिंदगी खत्म कर दोगे? तुमको भगवान् की भक्ति में लग जाना चाहिए और जितना हमको प्यार करते हो, उतना ही भगवान् से करो, तो मजा आ जाए और तुम्हारी जिंदगी बदल जाए। उनको यह बात चुभ गई। हमको और आपको चुभती है क्या? नहीं चुभती। हमारी औरतें सौ गालियाँ देती रहती हैं और फिर हम ऐसे ही हाथ-मुँह धोकर के आ बैठते हैं। वह फिर गाली सुनाती है और गुस्सा होकर के चले जाते हैं और कहते हैं कि फिर तेरे घर नहीं आएँगे ओर बस वह जाता है और दुकान पर बैठा बीड़ी पीता रहता है। शाम को घूम-फिरकर फिर आ जाता है। क्यों फिर आ गए? आ गए, क्योंकि उसके अंदर वह चीज नहीं है, जिसे जिंदगी कहते हैं।

जिंदगी वाले इंसान-महामानव

मित्रो! जिंदगी की बड़ी कीमत है। जिंदगी लाखों रुपये की कीमत की है, करोड़ों रुपये की है, अरबों-खरबों रुपये की कीमत की है। तुलसीदास भी जिंदगी वाला इंसान था। वासना के लिए जब व्याकुल हुआ तो ऐसा हुआ कि बस हैरान-ही-हैरान, परेशान-ही-परेशान और जब भगवान् की भक्ति में लगा, तो हमारी और आपकी जैसी भक्ति नहीं थी उसकी कि माला फिर रही है इधर और सिर खुजा रहे हैं उधर। भजन कर रहे हैं इधर और पीठ खुजा रहे हैं उधर। भला ऐसी कोई भक्ति होती है? तुलसीदास ने भक्ति की तो कैसी मजेदार भक्ति की कि बस पीपल के पेड़ पर से, बेल के पेड़ पर से कौन आ गया? भूत आ गया। उन्होंने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा दो। उस भूत ने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा सकते, हनुमान् जी के करा सकते हैं। अच्छा! चलो हनुमान् जी के ही करा दो।

हनुमान् जी वहाँ रामायण सुनने जाते थे। उसने उनके दर्शन करा दिए। तुलसीदास ने हनुमान जी को पकड़ लिया और कहा कि हमको रामचंद्र जी का जीवन। उन्होंने क्या किया कि रामचंद्र जी, जिनका कि वे नाम लिया करते थे, उन रामचंद्र जी को पकड़कर ही छोड़ा। उन्होंने कहा कि रामचंद्र जी का भी ठिकाना नहीं है और मेरा भी ठिकाना नहीं है। दोनों को एक होना होगा या तो मैं रहूँगा या रामचंद्र जी रहेंगे? या तो हनुमान जी रहेंगे या रामचंद्र जी रहेंगे? मैं तो लेकर के हटूँगा। भला ऐसे कैसे हो सकता है कि मैं हनुमान चालीस पढूँगा और हनुमान जी भाग जाएँ और पकड़ में नहीं आएं? पकड़ में कैसे नहीं आएंगे? हनुमान को पकड़ में जरूर आना पड़ेगा। हनुमान जी पकड़ में जरूर आ गए। हनुमान जी पकड़ में नहीं आए, हनुमान जी के ताऊ रामचंद्र जी भी पकड़ में आ गए। दोनों को पकड़ लिया उसने। किसने पकड़ लिया? तुलसीदास ने। हम और आप पकड़ सकते हैं क्या? हम और आप नहीं पकड़ सकते। भूत तो पकड़ सकते है? नहीं पकड़ सकते। हनुमान जी को पकड़ लेंगे? नहीं हनुमान जी भी पकड़ में नहीं आएंगे और रामचंद्र जी तो भला कैसे पकड़ में आ सकते है? वे भी नहीं आएंगे।

दिशा जो बदली, तो गजब हो गया

मित्रो! क्या वजह है इसकी? हम में और तुलसीदास जी में क्या अंतर है? एक अंतर है। नाक, आँख, कान, दाँत और हाथ-पाँव सब बराबर है, पर एक चीज जो उनके अंदर थी, वह हमारे अंदर नहीं है। वह चीज है, जिसे मैं जिंदगी कहता हूँ जिसको मैं प्रतिभा कहता हूँ, जिसको मैं विभूति कहता हूँ, जिसको मैं लगन कहता हूँ, तन्मयता कहता हूँ, जीवट कहता हूँ वह जीवट मित्रो! जहाँ कहीं भी होगा, तो वह बड़ा शानदार काम कर रहा होगा और गलत दिशा पकड़ने पर गलत काम भी कर रहा होगा।

अंगुलिमाल पहले नंबर का डाकू था। उसने ये कसम खाई थी कि फोकट में किसी का पैसा नहीं लूँगा। उँगलियाँ काट-काटकर उसकी माला बनाकर वह देवी को रोज चढ़ाया करता था। अगर कोई कहता कि अरे भाई! पैसे ले ले, पर उंगली क्यों काटता है हमारी? वह कहता, वाह! फोकट में, दान में नहीं लेता हूँ। पहले तेरी उंगली काटूँगा, तो मेरी मेहनत हो जाएगी। फिर उस मेहनत का पैसा ले लूँगा। ऐसे मुफ्त में कैसे ले लूँगा किसी का पैसा? इस तरह वह रोज एक साथ उंगलियाँ काट-काटकर उसकी माला देवी को पहनाया करता था? कौन ? खूँख्वार अंगुलिमाल डाकू, लेकिन जब उसने पलटा खाया, तो कैसा जबरदस्त पलटा खाया, आपको मालूम है न? अंगुलिमाल जब तक डाकू था तो पहले नंबर का और जब संत हो गया तो उसने हिन्दुस्तान से आगे जाकर के सारे-के-सारे विदेशों में, मिडिल ईस्ट में वो काम किए कि बस, तहलका मचा दिया। वह जहाँ कहीं भी गया, अपने प्रभाव को दुनिया से बदलता हुआ चला गया।

मित्रो! क्षमताएँ जिनके अंदर है, प्रतिभाएँ जिनके अंदर है, वह कहीं-से-कहीं जा पहुँचता है। आम्रपाली जब तक वेश्या रही तो पहल नंबर की रही। राजकुमार, राजाओं से लेकर सेठ-साहूकार तक उसकी एक निगाह के लिए, उसकी एक चितवन और एक इशारे के लिए ढेरों रुपया खर्च कर डालते थे और उसके गुलाम हो गया करते थे, लेकिन जब आम्रपाली अपनी करोड़ों की संपत्ति को लेकर भगवान् बुद्ध की ओर चली गई, तो न जाने क्या-से-क्या हो गई और सम्राट अशोक जो था, ऐसा खूनी था कि उसने खानदान-के-खानदान समाप्त कर दिए थे। सभी शाही खानदानों को एक ओर से उसने मरवा डाला था। मुसलमानों ने तो एक-आध को मारा था, लेकिन उसने तो किसी को जिंदा ही नहीं छोड़ा। ऐसा खूनी था अशोक। उसने चंगेज खाँ, नादिरशाह और औरंगजेब, सबको एक किनारे रख दिया था। जहाँ कहीं भी हमले किए, वहाँ खून की नदियाँ ही बहाता चला गया।

लेकिन मित्रो! जब उसने पलटा खाया और जब अपने आप में परिवर्तन कर डाला, तो फिर वह कौन हो गया? सम्राट अशोक हो गया, जिसने बौद्ध संघ और बौद्ध धर्म का सारे-का-सारा संचालन किया। आज जो हमारे झण्डे के ऊपर और हमारे सिक्कों-नोटों के ऊपर तीन शेर वाला निशान बना हुआ है, वह सम्राट अशोक की निशानी है। और जो हमारे राष्ट्रीय ध्वज पर चौबीस धुरी वाला और चौबीस पंखुड़ी वाला चक्र लगा हुआ है, यह क्या है? यह सम्राट अशोक के द्वारा पारित किया और प्रतिपादित किया हुआ धर्मचक्र प्रवर्तन है, जिसको हमने राष्ट्रीय झण्डे के ऊपर स्थान दिया हुआ है। ये किसकी हिम्मत, किसकी दिलेरी थी, किसकी बहादुरी थी? उसकी थी जो डाकू था और खूँख्वार था।

प्रस्तुत अमृतवाणी 17 अप्रैल 1974 को गायत्री तीर्थ परिसर में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा दिए गए प्रवचन से ली गई है। जाग्रत प्राणवानों, विभूतियों, प्रतिभाशीलों की पूज्यवर ने सोदाहरण व्याख्या की है एवं अपेक्षा की है कि राष्ट्र, समाज, संस्कृति के पुनरुद्धार हेतु इस संधि वेला में आगे आएँगे। इन्हीं जीवंतों के अग्रगमन से नवयुग-सतयुग का शुभागमन होगा। तीन खंडों में प्रकाशित यह अमृतवाणी विभूति ज्ञान यज्ञ (8 अक्टूबर 2000, नई दिल्ली) एवं सृजन संकल्प विभूति पुरुषमेध महायज्ञ (7 से 11 नवंबर 2000, शाँतिकुँज, हरिद्वार) के परिप्रेक्ष्य में निश्चित ही पठनीय-माननीय है। अंदर से बाहर तक झकझोर कर खड़ा कर देने वाली ओजस्वी वाणी को लिपिबद्ध पढ़ें इस व आगामी दो अंकों में।

जीवंत बनाम मुरदे

मित्रो! भगवान् जहाँ कहीं भी अपना अंश देता है, विभूति देता है, उसके अंदर चमक होती है, लगन होती है, उसके अंदर तड़प होती है और मुरदे? मुरदे हमारे और आपके जैसे होते हैं। साँस लिया करते हैं। भगवान् की जब पूजा करते हैं, तो भी ऐसे-ऐसे सर हिलाते रहते हैं और साँस लेते रहते हैं। सेवा करने जाते हैं, तो वहाँ भी निठल्ले की तरह पड़े रहते हैं। सत्संग करने, शिविर करने आते हैं, तो यहाँ भी मौसी जी-मौसा जी की याद सताती है।

मित्रो! ये क्या होता है? ये मैं किसकी कहानियाँ सुना रहा हूँ? मुरदे की। जिंदा आदमियों की भी कह रहा हूँ। आपके जिम्मे मैं एक काम सुपुर्द कर रहा हूँ कि जहाँ भी आपको जिंदा आदमी मालूम पड़े, जिंदादिल आदमी मालूम पड़े, आप उनके पास जाना। आप उनको मेरा संदेश लेकर के जाना और खुशामद करने के लिए जाना और यह कहना कि भगवान् ने जो विशेषताएं आपके अन्दर दी है, आपके अंदर जो प्रतिमा है, जो क्षमता है और जो आपके अंदर विशेषता है, उसके लिए भगवान् ने निमंत्रण दिया है, समय ने निमंत्रण दिया है। युग ने निमंत्रण दिया है, पीड़ित मानवता ने निमंत्रण दिया है और निमंत्रण दिया है मनुष्य जाति के गिरते हुए भविष्य ने और यह कहा है कि पेट भरने के लिए आपको जिंदा रहना काफी नहीं है। पेट तो मक्खी-मच्छर भी भर लेते हैं, कीड़े-मकोड़े और कुत्ते भी भर लेते हैं। किसी ने जलेबी खा ली तो क्या और मक्का की रोटी खा ली तो क्या? खाने के लिए आदमी को पैदा नहीं किया गया है। खाने के लिए और औलाद पैदा करने के लिए सुअर को पैदा किया गया है, जो एक-एक साल में बारह-बारह बच्चे पैदा कर देता है। गंदी-संदी चीजें खाकर के भी हट्टा-कट्टा होकर मोटा पड़ा रहता है। पेट भर गया, बस खर्राटे भरता रहता है। पेट भरने के लिए इंसान को पैदा नहीं किया गया है।

हमारे संदेशवाहक बनें

मित्रो! इंसान बड़े कामों के लिए पैदा किया है। इंसान की जिंदगी कई लाख योनियों में घूमने के बाद आती है। एकाएक कहाँ आ पाती है? इसलिए मित्रो! वहाँ हमारे संदेश लेकर के जाना, युग की पुकार लेकर के जाना। वक्त की पुकार लेकर के जाना और यह कहना कि आपको समय ने पुकारा है, युग ने पुकारा है, राष्ट्र ने पुकारा है, गुरु जी ने पुकारा है, अगर आप उनकी पुकार सुन सकते हों, अगर आपके कान है, अगर आपके अंदर दिल है, अगर आपके पास कान नहीं है, दिल नहीं है, तो हम क्या कह सकते हैं। फिर कौन आदमी सुनेगा? रामायण की कथा हम सुन लेते हैं और जैसे ही आते हैं, पल्ला झाड़ करके आ जाते हैं। भागवत् की कथा हम सुनकर के आते हैं, व्याख्यान हम सुन करके आते हैं और जैसे ही आते हैं, पल्ला झाड़ करके आते हैं। चिकने घड़े के तरीके से हमारे आपके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

मित्रो! आप वहाँ जाना और लोगों से यह कहना कि अगर कहीं आपके अंदर जिंदादिली हो, तो आपको समय की पुकार सुननी चाहिए और युग की पुकार सुननी चाहिए। समय की माँग को पूरा करना चाहिए और युग की माँग को पूरा करना चाहिए और महाकाल ने, भगवान् ने जहाँ आपको बुलाया है, वहाँ आपको चलना चाहिए। हनुमान जी भगवान की पुकार सुनकर चले गए थे, रीछ और बंद चले गए थे, गिलहरी चली गई थी। आपके लिए क्या यह संभव नहीं है? क्या आप इस लोभ और मोह से, अपने वासना और तृष्णा के बंधनों को काटते हुए अंगद के तरीके से चलने के लिए तैयार हैं?

मित्रों! मैं आपको अंगद के तरीके से संदेशवाहक बनाकर के भेजता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे संदेशवाहक बनाकर भेजा। हिन्दुस्तान से बाहर कई बार अंगद की तरह से मैं केवल संदेशवाहक के रूप में गया हूँ। मैंने कोई व्याख्यान नहीं दिए और न संगठन किए। सारे-के-सारे देशों में, विदेशों में और न जाने कहाँ-से-कहाँ गया, लेकिन अपने गुरु का संदेशा लेकर के गया। मैंने लोगों से कहा, देखो अपने को बदल दो। समय बदल रहा है। परिस्थितियाँ बदल रही हैं। धन किसी के पास रहने वाला नहीं है। अगले दिनों में, थोड़े दिनों में आप देखना कि धन किस तरीके से गायब हो जाता है। राजाओं के राज किस तरीके से चले गए, यह हमने और आपने देख लिया। आपने देखा कि थोड़े दिनों पहले जो लोग राजा कहलाते थे, सोने-चाँदी की तलवारें लेकर हाथी पर चला करते थे, आज वे किसी तरीके से अपनी दोनों वक्त की रोटी को जुगाड़ कर रहे हैं।

साथियों! जहाँ कहीं भी जाएंगे, वहाँ आप लोगों से कहना कि समय बहुत जबरदस्त है। समय सबसे बड़ा है। धन बड़ा नहीं है। जहाँ कहीं भी विभूतियाँ आपको दिखाई पड़ती हो, वहाँ आप हमारे संदेशवाहक के रूप में जाना, जैसे कि हमारे गुरु जी ने सारी दुनिया के जबरदस्त आदमियों के पास और भावनाशील आदमियों के पास हमको संदेश दे करके भेजा।

(क्रमशः आगामी अंक में जारी)


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