धर्म परिवर्तन की राजनीति और अध्यात्म

September 2000

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जीवन का आरंभ न तो शरीर के जन्म के साथ होता है और न ही देह के नष्ट हो जाने पर वह खत्म होता है। शरीर-यात्रा को ही जीन मानें तो बात अलग है। जिन परंपराओं में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है अथवा जिन्हें आत्मचेतना के शरीर-सापेक्ष होने का बोध नहीं है, वही मानती हैं कि जन्म-मृत्यु जीवन का आरंभ और अंत है। भारतीय धर्म परंपरा जीवन को अनादि-अनंत प्रवाह मानती है। शरीर नष्ट होने पर वह क्षणभर के लिए ठहरता है, बल्कि ठहरता भी नहीं हैं, यात्रा जारी रखने के लिए दूसरे वाहन की तलाश में जुट जाता है। शरीर को जीवन का अथवा आत्मचेतना का वाहन भी तो कहा गया है। इस आध्यात्मिक सत्य को भारत की सभी धर्म-परंपराओं ने माना है। सनातन, बौद्ध, जैन, वैदिक, शैव, साक्त वैष्णव सभी परंपराएँ जीवन के अविच्छिन्न प्रवाह को स्वीकार करती हैं। इसीलिए भारत में धर्मों के विभिन्न फूल खिले और संसार को सुगन्धित करते रहे हैं।

भारत में बीसियों संप्रदाय और मत-मताँतर प्रचलित हैं। यह एक विशेषता है। दूसरी विशेषता यह है कि किसी भी संप्रदाय ने दूसरे मत में दीक्षित साधक को अपनी परंपरा में बलात् खींचने की चेष्टा नहीं की उसे अपने मार्ग पर स्वतंत्र और निर्बाध चलते रहने की छूट दी। पृथ्वी के दूसरे भूखंडों से आए प्रचारकों ने अपने धर्म संप्रदाय का गुणगान किया, तो उनका भी विरोध नहीं किया। उनकी बात को गंभीरता से सुना और कोई अच्छाई हुई तो उसे ग्रहण करने की चेष्टा की। उदाहरण के लिए, ईसाई धर्म-प्रचारकों से सेवा की शिक्षा ली और भूखों, दरिद्रों, रोगियों के उपचार पर ध्यान दिया। इस्लाम में संगठित होने की प्रेरणा ली, सामूहिक प्रार्थना-उपासना का महत्व समझा और उसे अपनाया, लेकिन इसे कभी उचित और न्यायसंगत नहीं समझा कि दूसरों का धर्म अपना लिया जाए। उन्हें अपने धर्म में दीक्षित करने के प्रयत्न हों। हिंदू भारतीय परंपरा में धर्म-दीक्षा देने जैसा कोई संस्कार भी नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदुओं को ईसाई और मुसलमान बनते देख स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शुद्धि-संस्कार का प्रचलन अवश्य गढ़ा था। वह दीक्षा नहीं थी, बल्कि घर छोड़कर गए व्यक्ति की वापसी थी। उसे परावर्तन नाम भी दिया गया।

एक समय तो ऐसा भी था कि अपनी धर्म-परंपरा छोड़कर गए व्यक्तियों पर भी आचार्यों ने ध्यान दिया। उन्हें अज्ञानी और पथभ्रष्ट कहकर भुला दिया। इस प्रवृत्ति से भारतीय समाज की हानि भी हुई हैं, लेकिन इतना ही कहा जा रहा है कि धर्म-परिवर्तन भारतीय परंपरा के स्वभाव में कभी नहीं रहा। यह भूमिका धर्म-परिवर्तन के नए संदर्भ को ध्यान में रखकर बाँधी जा रही है। ईसाई धर्म के सर्वोच्च गुरु, अधिष्ठाता पोप जॉन पाल ने पिछले वर्ष भारत-यात्रा के दौरान समूचे एशिया में ईसाइयत फैला देने का आह्वान किया। आशय स्पष्ट है कि एशिया के तमाम देशों धर्म-परिवर्तन के प्रबल प्रयत्न किए जाएँ और वहाँ रह रहे हिंदू, बौद्धों, मुसलमानों को ईसाइयत में दीक्षित किया जाए। परंपरा से प्राप्त उनके धर्म को छोड़ने के लिए कहा जाए, मनाया जाए, तैयार किया जाए और अंततः मत-परिवर्तन कराया जाए।

पोप जॉन पाल के इस आह्वान की व्यापक प्रतिक्रिया हुई है। वे एक धर्म परंपरा का सर्वोच्च सत्ता होने के साथ संसार के सबसे छोटे देश ‘वेटिकन’ के शासन प्रमुख होने के नाते भी भारत आए थे। इसी कारण उन्हें राजकीय अतिथि का मान मिला। ईसाई धर्मगुरु होने के नाते आए होते और धर्मांतरण पर वक्तव्य देते तो शायद इतनी आलोचना नहीं होती। उनके वक्तव्य का विरोध सिर्फ इसलिए हुआ कि वे राजनीतिक प्रमुख के तौर पर आए और यहाँ रह रहे लोगों की आस्था बदलने का आह्वान कर चले गए। धर्मांतरण वैसे भी चर्चा और विवाद का विषय रहा है। पोप जॉन पाल के भारत आने से पहले ही विभिन्न धार्मिक, सामाजिक संस्थाएँ यह प्रश्न उठाती रही हैं। उनके अनुसार दूसरी धर्म-परंपरा में दीक्षित कर लोगों को अपनी परंपरा से ही नहीं तोड़ा जाता, उनकी निष्ठा और राष्ट्रभक्ति को भी कमजोर करने की चेष्टा की जाती है। पूर्वोत्तर राज्यों के साथ केरल, तमिलनाडु और तटवर्ती प्रदेशों में उठते रहने वाले उपद्रवों का कारण भी यही निरूपित किया जाता है कि वहाँ बड़े पैमाने पर धर्म-परिवर्तन का चक्र चला है और लोग अपनी पूजा-पद्धति के साथ जीवन पद्धति से भी अलग हुए है।

धर्म-परिवर्तन के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव हुए भी हैं। उस कारण विभिन्न क्षेत्रों में समस्याएँ उत्पन्न भी हुई हैं। तथ्य तो यह भी है कि 1147 में भारत को स्वतंत्रता के वरदान के साथ विभाजन का अभिशाप भी मिला। इसका कारण भी पिछली सदियों में शासकों के दबाव और प्रलोभन के कारण होता रहा धर्मांतरण है। भारतीय धर्म-समाज ने सावधानी बरती होती, संगठित प्रयत्न किए होते और लौकिक दृष्टि से सजग रहा होता तो यह स्थिति नहीं आती। लेकिन उस अतीत की चर्चा से कोई लाभ नहीं है। हाल का संदर्भ धर्म-परिवर्तन की आँधी ला देने वाला आह्वान है।

धर्मांतरण के राजनीतिक-सामाजिक अर्थ जो भी हो, भारतीय परंपरा मानती है कि आध्यात्मिक दृष्टि से यह असंभव कर्म है। स्वतंत्रता आँदोलन के दिनों में महात्मा गाँधी ने इस विषय पर विस्तृत चिंतन किया था। गाँधी वाङ्मय में उनके तद्विषयक विचार बिखरे पड़े है। स्वतंत्रता आँदोलन में धर्म परिवर्तन का सीधा कोई संबंध नहीं दिखाई देता, लेकिन गाँधी जी मानते थे कि धर्म बदलने का अर्थ है, व्यक्ति की अंतरात्मा को बदलना। अंतरात्मा कोई वस्त्र या आभूषण नहीं है कि उसे बदला या पहना और उतारा जा सके। वह पिछले जन्मों के संस्कारों का समुच्चय है। उसमें परिवर्तन होगा तो कई जन्मांतर चाहिए और विकास होता तो भी कई जनम चाहिए।

महात्मा गाँधी ने लिखा है कि माता-पिता की भाँति धर्म भी व्यक्ति को जन्म के साथ ही मिलता है। जनक-जननी को जैसे नहीं बदला जा सकता, उसी प्रकार धर्म भी नहीं बदला जा सकता। यदि कोई धर्म-परिवर्तन का प्रयास करता है, तो वह प्रकृति के विरुद्ध जाता है। प्रयत्न सफल नहीं होते और व्यक्ति कहीं का नहीं रह जाता। महात्मा गाँधी ने यह बात अपने छोटे पुत्र हरिलाल के संबंध में कही थी। हरिलाल महात्मा गाँधी के अन्य पुत्रों से एकदम भिन्न और विपरीत स्वभाव के थे संगति-दोष के कारण उनमें कई बुरी आदतें घर कर गई थी। दुर्व्यसनों ने हरिलाल का सुख-चैन हर लिया था। उनके कारण महात्मा गाँधी भी हरिलाल को पसंद नहीं करते थे। कुछ अवसरों पर तो उन्होंने अपने इस बेटे को स्वीकार करने से भी मना कर दिया था। दुर्व्यसनों और कुटेवों के कारण हरिलाल पर कर्ज भी चढ़ गया। कर्ज से मुक्ति पाने की उनकी स्थिति नहीं थी।

धर्म-परिवर्तन के काम में जुटी संस्थाओं ने हरिलाल को इस शर्त पर आर्थिक सहायता की कि वह अपना धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपना लेगा। हरिलाल ने यह शर्त स्वीकार कर ली थी। महात्मा गाँधी से उस अवसर पर पत्रकारों ने पूछा था कि अब आपका क्या कहना है, आपका पुत्र धर्म बदल रहा है। गाँधी जी ने कहा था कि जो लोग धर्मांतरण को सही मान रहे हैं, वे गलत हैं। हरिलाल यदि किसी प्रलोभन के कारण धर्मांतर कर रहा है, तो कल कुछ और संस्थाएँ उसे वापस भी ला सकती है। सचमुच कुछ महीनों बाद सनातन धर्म सभा के नेताओं ने हरिलाल को समझा-बुझाकर वापस हिन्दु बना लिया। ‘धर्मांतरण’ और ‘परावर्तन’ के काम में लगी संस्थाओं को महात्मा गाँधी ने समानधर्मी कहा है। उनमें भी ‘परावर्तन’ करने वाली संस्थाओं को सराहा है, क्योंकि वे एक गलती का परिहार करने या भूल सुधारने में लगी हुई है।

जिन आध्यात्मिक कारणों से महात्मा गाँधी ने धर्म-परिवर्तन को असंभव, प्रकृति-विरुद्ध कर्म और अपराध कहा है, उनमें संस्कार मुख्य है। उनकी चर्चाओं के एक संकलन ‘डायलॉग विद क्रिश्चियनिटी’ पर चर्चा करते हुए प्रसिद्ध चिंतक और साहित्यकार निर्मल वर्मा ने कहा था कि गाँधी जी कि दृष्टि में मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य हैं वे राजनीतिक में भी अपने इसी लक्ष्य की साधना के लिए प्रवृत्त हुए थे। स्वयं गाँधी जी ने कई अवसरों पर यह बात कही है। मोक्ष एकाध जन्म में सिद्ध होने वाला लक्ष्य नहीं है। उसके लिए कई जन्मों की साधना चाहिए।

साधना-संस्कार ही व्यक्ति की आत्मचेतना को अगली कक्षा के द्वार तक पहुँचाते हैं। एक जन्म को एक कक्षा माने तो नौवीं कक्षा में पढ़े विषय ही दसवीं में भी पढ़ने होते हैं। परीक्षा, परिणाम और नई कक्षा में प्रवेश को तैयारी तथा नया जन्म कह सकते हैं। नई कक्षा में पहले अर्जित की हुई शिक्षा को ही आगे बढ़ाने के रूप से नए जन्म में मिले धर्म को समझा जा सकता है। निर्मल वर्मा ने महात्मा गाँधी की चिंतन की व्याख्या करते हुए कहा कि प्रकृति स्वयं किसी भी चेतना को पूर्ववर्ती संस्कार और स्तर के अनुरूप वातावरण में भेजती है। अर्थात् एक व्यक्ति शैव मार्ग का साधक है, तो पंचानवे प्रतिशत संभावना यही है कि अगले जन्म में वह किसी शिव-भक्त परिवार में ही जन्मेगा। वहाँ पिछले जन्म में प्राप्त संस्कार और पुण्य को बढ़ाता हुआ यात्रा को आगे बढ़ाता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इस तथ्य को बहुत सूक्ष्म रूप में समझाया है। योगभ्रष्ट व्यक्ति की गति, स्थिति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि किसी कारण इस जन्म में किए प्रयत्न सफल नहीं होते, तो भी कोई हर्ज नहीं। असफल कर्मों के संस्कार व्यक्ति को अगले जन्म में अनुकूल वातावरण में ले जाते हैं। वहाँ पूर्व अर्जित संस्कारों के बल पर व्यक्ति आगे बढ़ता है।

बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध विद्वान और तिब्बत की निर्वासित संसद के अध्यक्ष प्रो. सामदेग रिनपोचे ने धर्म-परिवर्तन को उन्होंने कहा है। बौद्ध धर्म की मान्यताओं के आधार पर उन्होंने कहा कि अपने धर्म की शिक्षा देने एक बात है। उसके लिए व्यक्ति और संगठन स्वतंत्र है, लेकिन किसी का धर्म बदलने की चेष्टा उसे अपने मार्ग से भ्रष्ट करने की तरह अपराध है। दिल्ली से मुँबई जा रहे व्यक्ति को नागपुर पहुँच जाने पर चैन्नई ले जाने और फिराकर मुँबई ले जाने की तरह किया गया छल है। बौद्ध-परंपरा को यहाँ तक कहती है कि जब तक कोई व्यक्ति याचना न करे, तब तक धर्म की शिक्षा भी नहीं देनी चाहिए। कम-से-कम तीन बर प्रार्थना करने पर ही धर्म का उपदेश दिया जा सकता है।

ढाई हजार साल पहले भगवान् बुद्ध के आविर्भाव और बौद्ध धर्म के अवतरण को वे कोई नया मत या संप्रदाय नहीं मानते। उनके अनुसार बौद्ध धर्म भारतीय परंपरा की ही एक घटना थी, जो उस प्रवाह में आ गई मलीनताओं को दूर करने के लिए सम्पन्न हुई थी। बुद्ध ने अपने उपदेशों में ब्राह्मणों की भी कहीं निंदा नहीं की है, बल्कि ब्राह्मण होने का सच्चा अर्थ बताया है। उन्होंने वेदों का विरोध भी नहीं किया जैसा कि पश्चिम के आलोचक और नवबौद्ध बताते हैं। पिटक ग्रंथों में बुद्ध के कई वचन संग्रहित हैं, जिनमें यह मार्ग वेद सम्मत है अथवा यह वेदवाणी का ही विस्तार है, जैसे विचार व्यक्त किए गए हैं। कालाँतर में भारत से बौद्ध-परंपरा का स्वतंत्र अस्तित्व इसलिए तिरोहित हो गया कि यहाँ की परंपरा शुद्ध और परिमार्जित हो गई। जिन देशों में धर्म-अध्यात्म की दृष्टि से दैन्य फैला हुआ था, वहाँ बौद्ध धर्म के रूप में भारतीय परंपरा का प्रवाह पहुँचा और प्रतिष्ठित हुआ।

भारत में व्यक्ति के आत्मिक विकास के लिए विभिन्न प्रयोग हुए हैं। भिन्न-भिन्न रुचि-प्रकृति के लोगों के लिए उनकी आवश्यकता के अनुसार निर्धारण किए गए हैं। यही कारण है कि अन्य मत-संप्रदायों की तरह यहाँ एक ग्रंथ, एक पंथ या एक चैत्यालय का प्रश्न नहीं है। कम-से-कम 105 साधन मार्ग और परंपराएं है, जिन्हें विभिन्न स्तर के लोग अपनाते हैं। उन्हें संप्रदाय, गुरु परंपरा, कुल धर्म, जाति धर्म जैसे नामों से सम्बोधित किया गया है। एक विचारधारा के अनुसार तो वर्ण व्यवस्था भी व्यक्ति की साधना-संपदा को समृद्ध करते रहने के लिए नियत की गई। यद्यपि वह एक सामाजिक व्यवस्था ज्यादा है, लेकिन कर्म को ही साधना और जीवन को ही यज्ञ अनुष्ठान मानने वाले विचार में वर्ण धर्म भी मोक्ष की दिशा में अनवरत यात्रा ही हैं।

वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप अब बहुत विकास है। अपने मूल रूप में वह अंश मात्र भी नहीं है। मनीषी वर्तमान व्यवस्था को विकृत ही नहीं सड़ा हुआ रूप मानते हैं। नाली में बहती हुई गंदगी को देखकर जिस तरह अनाज और व्यंजन की कल्पना नहीं की जा सकती। खेतों में लहलहाती फसल का अनुमान नहीं होता, उसी तरह वर्ण या जाति के वर्तमान रूप को देखकर उसके मूल स्वरूप का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस व्यवस्था के मूल रूप को समझने वाले मनीषी कहते हैं कि यह व्यक्तित्व के अनुरूप मनुष्य के कर्म का निर्धारण, प्रकृति और साधना संसार का विज्ञान था। गीता में श्रीकृष्ण जिसे स्वधर्म कहते हैं, वह अपने व्यक्तित्व और संस्कार के अनुरूप कर्म का चुनाव ही है। वर्ण-धर्म चुनना नहीं पड़ता था। वह जन्म से ही सिद्ध होता था। कभी-कभार अपवाद होते थे, जिसमें ब्राह्मण क्षत्रिय का धर्म अंगीकार कर लेते या क्षत्रिय और दूसरे वर्ण के लोग अतिक्रमण कर जाते थे। पश्चिम के रहस्यवादी विद्वान एंड्रू हारेन ने लिखा है कि ऊँच-नीच का भेद नहीं आया होता तो वर्ण व्यवस्था मनुष्य को मोक्ष के द्वार तक ले जाने वाला सबसे आसान रास्ता था।

उन्होंने कहा है कि सभी व्यक्ति समान नहीं होते। सबके समान और एक रूप होने की मान्यता व्यक्तित्व को नष्ट कर देती हैं। हमें व्यक्तियों के बीच भिन्नता के तथ्य को स्वीकार करना चाहिए। भिन्नता का अर्थ ऊँच-नीच नहीं है। वह भिन्नता की स्वीकृति है। इस स्वीकृति के साथ ही समाज में चेतना के विकास की संभावना बनती है। अमेरिकी समाज का उल्लेख करते हुए एंड्रू ने कहा कि वहाँ भारत जैसी वर्ण-व्यवस्था नहीं हैं लेकिन वर्ण है। नाम कुछ भी हो, व्यक्तित्व की भिन्नता और महत्व को स्वीकार किया गया। भारतीय प्रत्ययों में समझें तो आइंस्टीन ब्राह्मण है वैज्ञानिक और ब्राह्मण की प्रतिभा में कोई अंतर नहीं है। दोनों सत्य की खोज के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हैं। राकफेलर और मार्गन जैसे उद्योगपतियों को वैश्य कहा जा सकता है। हिटलर, लेनिन, माओ, स्टालिन आदि क्षत्रिय हैं। वे और उनके साथी-सहयोग युद्ध के लिए आतुर हैं। इन व्यक्तियों का उल्लेख प्रतीक रूप में किया गया है। जिन लोगों में भी सृजन-उत्पादन-संघर्ष और सेवा की प्रतिभा है, उन्हें चारों वर्णों में बाँटा जा सकता है। एंड्रू ने कहा है कि आज नहीं तो कल हमें इस विभाजन को स्वीकार करना ही पड़ेगा। उसे स्वीकार किए बिना व्यक्ति की चेतना का निर्बाध विकास नहीं हो सकता।

भारतीय संदर्भ में जाति के विभाजन को वे वर्ण-व्यवस्था का और भी सूक्ष्मीकरण बताते हैं। लेकिन यहाँ भी सावधानी बरतनी पड़ेगी। जाति के वर्तमान स्वरूप से उसके मूल रूप का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। ये व्यवस्थाएँ व्यक्ति के पुण्य आर संस्कारों को जन्मांतरों तक संचित करने का प्रयास रही हैं। इनके समुच्चय अर्थात् धर्म की कल्पना तो और भी विराट् है, उसे बदलना असंभव तो है ही, प्रयत्न की दृष्टि से अपराध भी। दूसरे के धर्म को भयावह बताते हुए अपने धर्म में मरना भी श्रेयस्कर बताते हुए गीताकार का आशय स्वभाव सिद्ध प्रवृत्ति से रहा है। उसे जन्म, वंश और परिवेश से प्राप्त धर्म के रूप में भी समझा जा सकता है। उस अर्थ में वह सही और प्रासंगिक है।


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