हिंद की शान : बेगम हजरत महल

September 2000

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मार्च महीने के आखिरी सप्ताह के उस रात लखनऊ का शाही महल अंधेरों में डूब वीरान नजर आ रहा था। सन् 1857 ई. की जनवरी से ही लखनऊ ही जमीन क्राँतिकारी वीरों और निर्दोष रियाया के खून से लाल हो रही थी। वीरता से अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए, बचे-खुचे अपने क्राँतिकारी साथियों के साथ नवाब अहमदशाह महल छोड़कर किसी अज्ञान स्थान पर जा छिपे थे। इस समय महल असुरक्षित था।

अंग्रेजों की कुटिल चालों से बेगम हजरत महल अपरिचित नहीं थी। किसी भी शहर को तबाह करें वहाँ की भोली-भाली जनता पर बेपनाह अत्याचार करना फिरंगियों की जग-जाहिर नीति थी। अपनी इस दरिंदगी में वे महिलाओं को भी नहीं बख्शते थे। रोज न जाने कितनी किशोरियाँ और सुहागिनें उनकी पाशविक हवस का शिकार हो रही थी। उस दिन तो फिरंगियों ने लखनऊ शहर पर अपनी क्रूर पाशविकता का जो कहर बरपाया, उसे इतिहास के पन्नों में पढ़कर आज भी शिराओं में आग दौड़ जाती है।

बेगम हजरत महल को अंग्रेजों का खौफ न था। अगर उन्हें किसी तरह का खौफ होता तो वे शहादत गंज की लड़ाई में डटकर अंग्रेजों का मुकाबला नहीं करतीं। लेकिन अब जबकि थोड़े-से अंगरक्षक सैनिकों और नौकर-चाकरों के अलावा महल की रक्षा करने के लिए कोई नहीं था, उन्हें महल की स्त्रियों को लेकर चिंता हो गई थी।

वह बहादुर नारी बिलकुल अकेले पड़ गई थी। चिंता से आकुल-आतुर वह महल के अहाते में टहल रही थी। जरा-सी आहट होते ही वह चौंक उठती। इसके बावजूद वह जनानखाने की ड्योढ़ी पर पहरे के लिए स्वयं सन्नद्ध थी। रात गहराती जा रही थी। घने अंधेरे भयावह सन्नाटे की गूँज थी। बेगम साहिबा का मन हर पल आने वाली आपदा की सिहरन से भरता चला जा रहा था।

तभी अचानक दूर कहीं से आने वाली आहट से वह चौंक पड़ी। आने वाली आवाज को सुनकर यही लग रहा था कि कई घुड़सवार महल की ओर बढ़े चले आ रहे हैं। उनका हाथ तलवार की मूठ पर और कस गया। उन्होंने तेज नजर से अपने पास खड़ी अन्य स्त्रियों की ओर देखा। सभी के हाथ में एक-एक खुखरी थी। जिससे किसी भी अवाँछनीय स्थिति में अपनी लज्जा बचाने के लिए आत्मघात किया जा सकता था। लेकिन अगले ही पल उन्होंने मनोबल को संभाला और अपने मन को आने वाली आहट पर केंद्रित किया।

महल के बाहर एक साथ कई घोड़ों की टापें थम गई और फिर सन्नाटा सर्वव्यापी हो गया। हजरत महल के मन में फिर से बेचैनी का तूफान उमड़ा, परन्तु तुरन्त उन्होंने अगले क्षणों में घटने वाली घटना के लिए स्वयं को तैयार किया। कुछ ही क्षणों की खामोशी के बाद पहरेदार ने आकर जनाना ड्योढ़ी के निकट गुहार की, बेगम हुजूर, क्राँतिकारियों के सरदार दलपत सिंह अपने साथियों के साथ आए है। वे आपसे मिलना चाहते हैं।

दलपत सिंह का व्यक्तित्व अपने आप में क्राँति की प्रज्वलित मशाल थी। वे नवाब साहब के दायें हाथ की तरह थे। अंग्रेजों के दिलों के खौफजदा करने के लिए उनका नाम ही पर्याप्त था। उनके आने से बेगम साहिबा को भारी खुश मिली, किन्तु ऐसे क्षणों में हर खुशी संदिग्ध होती है। बेगम ने पहरेदार पर बतौर सावधानी एक सवाल उछाल दिया, दलपत सिंह का निशान।

यह रहा मलिका हुजूर। पहरेदार तस्दीक के लिए पहले से ही उनका निशाल ले आया था। उसने तुरन्त उन्हें वह निशान दिखा दिया। निशान देखकर बेगम साहिबा को भारी राहत मिली। उनके चेहरे पर हलकी-सी चमक आई और वह बोली, दलपत सिंह और उनके साथियों को आदर के साथ बिठाओ। हम अभी उनसे मुलाकात करेंगे।

पहरेदार आदाब बजाकर चला गया। बेगम ने अपने को थोड़ा संयत किया और फिर अपनी सहयोगिनियों को कुछ जरूरी बातें समझाई। इसके बाद वह बैठकखाने की ओर चल पड़ी। जहाँ पर ऊँचे-पूरे और भव्य व्यक्तित्व का स्वामी दलपत सिंह उनका इंतजार कर रहा था। बेगम को अंदर आते देखकर उसने उठकर आदाब बजाया।

इतनी गई रात ................ यहाँ किसलिए दलपत सिंह

मलिका हुजूर मुझे पता चला कि आप खतरे में है,

इसलिए चला आया। नवाब साहब का कुछ पता चला? नहीं! इस एक लफ्ज को बयान करने के साथ ही उनके चेहरे पर मायूसी छा गई। लेकिन एक पल में ही उन्होंने अपने को संभाल लिया ओर फिर संयत स्वर में बोली, कौन जाने नवाब साहब तवनकी राह में कहीं काम आ गए हो। उनके इन शब्दों में जो लरज, कशिश और दर्द था, उससे दलपत सिंह की आँखें भी भर आई।

लेकिन वह अपने को संयत करते हुए बोला, गुस्ताखी माफ हो मलिका हुजूर! फिरंगियों ने निर्दोष जनता पर जो कहर ढाया, उसका बदला लेने के लिए हम सभी के दिल तड़प रहे है।

हमें भी अपनी रियासत की तकलीफ सुनकर भारी रंज है। मगर करें तो क्या करें दलपत सिंह? आज तो हम इतने बेबस हैं कि कुछ करना तो दूर, हम ठीक से कुछ सोच भी नहीं पा रहे। बेगम साहिबा के चेहरे पर दर्द की जर्द छा गई। वह गहरा निःश्वास लेते हुए बोली, लेकिन तुम यहाँ क्यों? अंग्रेजों की फौज किसी भी वक्त महल में आ समाती है और उस भारी-भरकम फौज के सामने तुम सब कैसे टिक सकोगे। तुम सब लौट जाओ, मुल्क को तुम्हारी बहुत जरूरत है। हमारे लिए अपने को खतरे में न डालो।

दलपत सिंह की आँखें सुर्ख हो गई। बदला! बदला! बदला मेरी ख्वाहिश है बेगम हुजूर। मैं आपसे एक इल्ताज करने आया हूँ।

वह क्या?

आप अपने कैदी फिरंगियों को मुझे सौंप दीजिए। मैं उनमें से एक-एक का हाथ-पैर-सिर ओर बोटी-बोटी काटकर अंग्रेजों की छावनी में भेजूँगा। बात पूरी करते करते दलपत सिंह का चेहरा भयंकर हो उठा।

नहीं, हरगिज नहीं! बेगम के लहजे में कठोरता आ गई। हम कैदियों के साथ ऐसा सलूक न तो खुद कर सकते हैं और न किसी को इसकी इजाजत दे सकते हैं। कैदियों पर जुल्म ढाने का रिवाज हमारे हिन्दुस्तान में नहीं है। हम किसी भी तरह अपने उसूलों से फिर नहीं सकते।

मलिका हुजूर, उसूल इनसानों पर लागू होते हैं, जानवरों पर नहीं। ये फिरंगी तो वहशी जानवर हैं।

जिद न करो दलपत सिंह और अब यहाँ से लौट जाओ।

आप अवध की अपनी भोली और मासूम जनता की चीत्कारों को भूल रही है, मलिका हुजूर!

अवध की रियासत की चीखें हमारी भी रगों को झिंझोड़ रही है दलपत सिंह, लेकिन भूलों मत हम उसी नेक-निठ जनता की हिमायती है, जो हर जुल्म हँसते-हँसते सह सकती है, मगर अपने हकीकी एतकाद को अपने खून की रंगत की तरह अपने से जुदा नहीं कर सकती और फिर कैदियों में औरतें भी तो शामिल हैं। उनके साथ बदसलूकी या अल्लाह तौबा! नहीं दलपत सिंह नहीं, सब किसी भी कीमत पर न होगा। तुम चले जाओ यहाँ से।

आप जज्बातों में बह रही है, मलिका हुजूर। क्या आपको पता नहीं है कि फिरंगियों ने हमारी माँ-बहनों को अपनी हविश का शिकार बनाया है। उन दरिंदों ने तो मासूम बच्चों तक को नहीं छोड़ा है।

दलपत सिंह हम सारी कैफियत से वाकिफ है। हम तुम्हारी बहादुरी और मुल्क के लिए तुम्हारे जज्बातों की कदर करते हैं। लेकिन यह कभी भी मत भूलो कि हम हिंद की उस शान के लिए अपनी जान भी दे सकते हैं, जिसकी वजह से इनसानियत का रुतबा कायम है।

पर क्या आपको इल्म नहीं कि अंग्रेजों ने क्या-क्या जुल्म ढाए हैं। हम उनसे हर कीमत पर बदला लेना चाहते हैं। दलपत सिंह अभी भी अपनी जिद पर अड़ा था।

नहीं, किसी भी कीमत पर नहीं। बेगम हजरत महल ने बुलंद आवाज में चेतावनी दी। हमारे जीते-जी फिरंगी कैदियों एवं उनकी औरतों पर जुल्म कभी नहीं होगा। हमारे आका ओ-बुजुर्गों ने औरत को हमेशा ही सीता और पाक बीबी फातिमा का दरजा दिया है और यह हिंद की आन है कि हर हिंदुस्तानी को औरत पर जुल्म करने का ख्याल भी कुफ्र है। इससे पहले तुम्हें हमारी लाश से गुजर कर जाना होगा। बेगम हजरत महल दलपत सिंह के सुगठित और भारी-भरकम शरीर के आगे महबूत चट्टान की तरह खड़ी हो गई। हम तुम्हें किसी भी हालत में हिंद की रवायतों की तौहीन नहीं करने देंगे। उनके लिए मर जाने में भी हम फख्र महसूस करेंगे।

बेगम हजरत महल का यह दुर्गा रूप देखकर दलपत सिंह के पसीने आ गए। अंततः उसे अपनी जिद छोड़नी पड़ी। बुझे मन से वह और उसके साथी महल की सीमा से बाहर निकल गए।

इसके थोड़ी ही देर के बाद अंग्रेजों की विशाल फौज ने महल पर हमला बोल दिया। बेगम और उसकी बहादुर सहेलियों ने डटकर अंग्रेजों का मुकाबला किया। लेकिन इतनी बड़ी फौज के सामने भला ये मुट्ठी भर महिलाएँ कब तक टिकती। अंत में वही हुआ, जिसकी संभावना थी। बेगम हजरत महल को गिरफ्तार कर लिया गया।

उन्हें कैद करने वाले अंग्रेज फौजी अफसर ने बड़े तीखे लहजे में पूछा, क्या अब आपका भी यह ख्याल नहीं है कि यह जंग अब खत्म हो गई है।

जवाब में बेगम हजरत महल के होठों पर गर्व भरी मुसकान आ ठहरी। वह कहने लगी, यह जंग किन्हीं दो या तीन कौमों के बीच छिड़ी जंग नहीं है। इसका मकसद तख्त हासिल करना या तख्ता पलटना भी नहीं है। यह जंग है जुल्मों के खिलाफ, उसूलों के लिए। मेरे गुमराह दोस्त याद रखना कि यह हिंद की पाक सरजमीं है। यहाँ जब भी कोई जंग छिड़ी है, हमेशा जुल्म करने वाले जालिम की ही शिकस्त हुई है। यह मेरा पुख्ता यकीन है। बेकसूरों, मजलूमों का खून बहाने वाला यहाँ कभी भी अपने गंदे और गलीज ख्वाबों के महल नहीं खड़ा कर सकेगा। आने वाला वक्त भी मेरे इस यकीन की ताईद करेगा।

बेगम हजरत महल के इस यकीन के सामने सचमुच उस फौजी अफसर का सिर झुक गया। उसने मन-ही-मन हिंद की इस शान को नमस्कार किया।


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