संन्यास इतना आसान नहीं

September 2000

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स्वामी तुरीयानंद उन दिनों अल्मोड़ा के पास एक गाँव में रहकर तपस्या कर रहे थे। स्वामी जी की ता-साधना की ख्याति आसपास के गाँवों में भी फैल गई। पुष्प खिल गया हो तो सुरभि अपने ही आप चारों और फैलने लगती है। स्वामी तुरीयानंद की तप-साधना का विकास भी इसी तरह हो चुका था। अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस के महाप्रयाण के बाद उनकी दिनचर्या, जीवन के सारे क्रिया-कलाप तप-साधना के इर्द-गिर्द सिमट गए थे। स्वामी विवेकानन्द सहित सारे गुरुभाई उन्हें सच्चे संन्यास की उज्ज्वल प्रतिमा के रूप में देखते और मानते थे। निश्चित ही वे सच्चे संन्यासी थे।

इन दिनों जहाँ वे तप कर रहे थे, वहाँ यदा-कदा आसपास के कुछ ग्रामीण लोग भी आ जाते। गाँव के ये लोग उनकी बातें सुनकर अपने को धन्य मानते। स्वामी जी की ज्ञान और तप से ओत प्रोत वाणी में उन्हें अपने दैनिक जीवन की समस्याओं का समाधान मिल जाता। सुनने वालों को नई जीवनदृष्टि मिलती। इनमें से कई लोगों में तो आध्यात्मिक जाग्रति भी होने लगी थी, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिनका अध्यात्म सिर्फ उनकी वाक् कुशलता तक ही सीमित था।

बृजलाल नौटियाल के साथ कुछ ऐसा ही था। कहने को तो वह लगभग रोज ही स्वामी जी के पास आता था, पर उसकी गृहकलह यथावत थी। ऐसा नहीं कि उसकी पत्नी में कोई दोष था। उसकी पत्नी विद्या सुँदर, सुशील, सुलक्षण एवं सहृदय थी। वह हर हमेशा भरसक कोशिश करती कि उसका पति उससे किसी भी तरह संतुष्ट रहें, पर आज तक ऐसा हो नहीं पाया था। उनकी आपसी कलह की वजह दरअसल बृजलाल की चटोरी प्रकृति थी। भोजन करते समय उनमें रोज झगड़ा होना एक सामान्य-सी बात थी। कभी रोटी थोड़ी-सी कड़ी हो गई तो वह विद्या पर बरस पड़ता, आज रोटी तो ऐसी सिकी है जैसे-रोटी नहीं लकड़ी का किवाड़ हो। यदि किसी दिन रोटी नरम रह जाती, तो बृजलाल चिल्ला पड़ता, आज तो तुमने कच्चा आटा घोलकर रख दिया है।

भोजन के समय की कलह उनमें अब एक आम बात हो गई थी विद्या बेचारी परेशान रहती कि पतिदेव को कैसे खुश किया जाए? एक दिन तो भोजन के बारे में झगड़ा करते-करते बृजलाल का गुस्सा इतना बढ़ गया कि उसने चेतावनी दे डाली, इस तरह तुम्हारे साथ रहने से तो यही बेहतर है कि मैं संन्यासी बन जाऊँ। बृजलाल की इस बात से विद्या चिंतित हो गई कि कहीं यह सचमुच ही संन्यासी न हो जाएँ।

दूसरे दिन भोजन के समय बृजलाल ने पुनः कोहराम मचा दिया। आज मामला चटनी में नमक कम होने का था। बोध के अभाव में क्रोध तो होता ही है। बृजलाल चीख पड़ा, बस बहुत भोग चुके गृहस्थी का सुख, अब तो साधु ही बन जाना श्रेयस्कर है। ऐसा कहते हुए बृजलाल ने घर छोड़ दिया। गाँव से निकलते हुए उसे जब होश आया, तो उसे भूख व्याकुल कर रही थी। आखिर उसने निश्चय किया कि पास में एक दुकान तक चला जाए। वह पैदल ही वहाँ गया और उसने अपना मनपसंद भोजन पेटभर किया। मगर विद्या उस दिन बड़ी दुखी हुई। सारा दिन उसने निराहार रहकर गुजारा, आखिर वह भारतीय नारी जो थी।

काफी रात बीतने पर बृजलाल आया और चुपचाप कमरे में जाकर सो गया। अगले दिन फिर वही हाल। आज की शिकायत थी कि रायता खट्टा ज्यादा हो गया है। शिकायत भले ही नई हो, पर धमकी वही पुरानी थी, अब मुझे नहीं रहना तेरे साथ। इस घर से तो यही अच्छा है कि स्वामी तुरीयानंद के साथ रहकर मैं भी तप-साधना करूं।

बेचारी विद्या ने परेशान होकर सोचा कि अच्छा यही है कि मैं स्वयं स्वामी जी महाराज के पास जाऊँ और उन्हीं से अपनी विपदा कहूँ। शायद वही मेरी जिंदगी का कोई समाधान निकाल सकूँ। यहीं सोचकर वह स्वामी तुरीयानंद की कुटी पर पहुँची और उनके पाँवों में पड़कर जोर-जोर से रोने लगी। स्वामी जी सोच में पड़ गए। उन्होंने पूछा, बहन! इस तरह रोने का कारण क्या है?

तप-तेज का अपना बल होता है। विद्या संतवाणी सुनकर संभल गई और बोली, महाराज! बात यह है कि मेरे पति को मेरे हाथ का भोजन नहीं रुचता। कहते हैं कि वे आपके पास आकर संन्यासी बन जाएँगे।

स्वामी तुरीयानंद को विद्या की बात समझते देर न लगी। वह जान गए कि विद्या बृजलाल नौटियाल की पत्नी है। बृजलाल उनके पास रोज आता था। उसकी अस्थिर प्रकृति से वह परिचित थे। उन्होंने विद्या को समझाते हुए कहा, बहिन! तुम यह डर अपने मन से निकाल दो। तुम डरो मत, मैं उसे देख लूँगा कि वह किस तरह साधु बनने वाला है, अबकी बार जब भी वह तुम्हें धमकी दे, तो उससे कहना कि इस तरह रोज-रोज धमकी क्या देते हो। साधु बनना है तो जाकर बन क्यों नहीं जाते। कम से कम रोज-रोज के इस झगड़े से तो हमें छुट्टी मिलेगी।

अगले दिन जब फिर वैसा प्रसंग आया तो बृजलाल ने अपना कथन दुहराया, इससे तो अच्छा है कि मैं संन्यासी बन जाऊँ।

पहले से निर्धारित योजना के अनुसार विद्या ने कह दिया, सुनिए जी! रोज-रोज संन्यासी बनने का डर दिखलाने से क्या लाभ? यदि आपको संन्यासी बनने से सुख मिलता है, तो बन जाइए संन्यासी। मैं भी कभी-कभी आपके दर्शन करने आ जाया करूंगी।

बृजलाल के अह को भारी चोट लगी। वह तड़क-कड़ककर कर बोला, अच्छा यह बात है। अब मैं अवश्य संन्यासी बन जाऊँगा। यह कहकर वह चल पड़ा और सीधा स्वामी तुरीयानंद की कुटिया पर जा पहुँचा। स्वामी तुरीयानंद उस समय ब्रह्मपुत्र के शारीरिक भाष्य का अध्ययन कर रहे थे। काफी देर बाद बृजलाल को अपनी बात कहने का अवसर मिल पाया।

बृजलाल की बाते सुनकर स्वामी जी मुस्कराए और बहुत अच्छा कहकर अपने काम में लग गए। इधर बृजलाल भूख के कारण परेशान हो उठा था। लाचार होकर उसने संत से कहा, स्वामी जी आज क्या आपने भोज कर लिया है?

स्वामी तुरीयानंद बोले, वत्स! वैसे तो आज हमारा वत है, लेकिन तुम क्यों पूछ रहे हो?

बृजलाल को तो एक-एक क्षण प्रहर जैसा लग रहा था। उसने कहा, महाराज! मैं तो भूख से बहुत आकुल-व्याकुल ही रहा हूँ। अपने लिए न सही तो मेरे लिए ही सही, कुछ तो भोजन की व्यवस्था कीजिए।

स्वामी जी बोले, अच्छा तो ऐसा करो कि नीम की कुछ पत्तियाँ तोड़ लाओ और उन्हें पीसकर लड्डू बना लो।

संत के आदेशानुसार बृजलाल ने नीम के पत्ते पीसकर लड्डू बना लिए हालाँकि बनाते समय वह यही सोच रहा था कि नीम कोई खाने की वस्तु तो हैं नहीं। फिर भी स्वामी जी महाराज अद्भुत तपस्वी हैं, उनके प्रभाव से यह लड्डू जरूर खाने योग्य हो जायेंगे।

लड्डू तैयार हुए तो संत बोले, जितना खाना है तुम खा लो। नीम बहुत अच्छी चीज है। बीत पंद्रह दिनों से मैं इसी पर निर्वाह कर रहा हूँ।

बृजलाल ने नीम का लड्डू उठाकर जैसे ही अपने मुँह में रखा, उसे वमन हो गया। स्वामी जी बोले, देखा वमन करना ठीक नहीं, ढंग से खाओ। बृजलाल से अब न रहा गया। वह कुछ चिढ़कर बोला, महाराज! यह तो नीम है, कडुआ जहर, इसे मैं तो क्या कोई भी मनुष्य नहीं खा सकता।

यह सुनकर स्वामी तुरीयानंद ने नीम का एक लड्डू उठाया और बड़े ही निर्विकार भाव से खा लिया। यह देखकर बृजलाल बड़ी मायूसी से बोला, स्वामी जी! आप तो खा गए, लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं।

स्वामी जी हँसने लगे, क्यों भाई, इसी बल पर तुम संन्यासी बनने चले थे? व्यर्थ ही रोज पत्नी को तंग किया करते थे कि संन्यासी बन जाऊँगा, साधु हो जाऊँगा, जीभ के चटोरे कहीं साधु बनते हैं। अब बृजलाल को वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ। उसने घर जाकर पत्नी से क्षमा माँगी और गृहस्थ को तपोवन मानकर रहने लगा।


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