पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, आत्महीनता से उबरें

September 2000

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विभिन्न प्रकार की अवधारणाओं में इतनी तो गुंजाइश होनी ही चाहिए कि समय और परिस्थिति के अनुरूप उनमें सुधार-संशोधन किया जा सके। यदि ऐसा नहीं हुआ और वह पूर्वाग्रह ग्रस्त बनी रही, तो समझ लेना चाहिए कि विकास का मार्ग अवरुद्ध हो गया।

मान्यताएँ सामाजिक भी हो सकती हैं और वैज्ञानिक भी, पर प्रगतिशीलता की माँग यह है कि उनमें लचीलापन हो। ऐसा नहीं कि एक धारणा के स्थापित हो जाने के बाद उसे शाश्वत और सनातन मान लिया जाए। यहाँ स्थिर और पूर्ण सत्य एक ही है, वह है, ईश्वर। शेष सब परिवर्तनशील और अर्द्ध सत्य स्तर के है, इसलिए उनके बारे में कोठ्र स्थायी मत कायम नहीं किया जा सकता।

वर्षों पूर्व चेचक को देवी-देवताओं का प्रकोप माना जाता था और उसका उपचार भी उसी प्रकार मान-मनौतियों द्वारा किया जाता था। संयोगवश कुछ इससे ठीक हो जाते, किंतु अनेकों को असफलता हाथ लगती और कष्ट भुगतना पड़ता। बाद में जब उस संदर्भ में वैज्ञानिक शोधें हुई, तब ज्ञान हुआ कि वह एक प्रकार के रोगाणु के कारण होता है। एक बार जब निमित्त विदित हो जाए, तो फिर निवारण मुश्किल नहीं रह जाता। पीछे उसके टीके विकसित किए गए, जिसके कारण आज समाज उससे लगभग मुक्त हो चुका है।

ऐसे ही अकाल और अनावृष्टि को पहले वरुण देवता से जोड़ा जाता था। समझा जाता था कि मनुष्य को उनकी ओर से दिया गया यह एक प्रकार का दंड है। बाद में जब वर्षा और वृक्षों के बीच संबंध ज्ञान हुआ, तब यह नासमझी दूर हुई कि इसमें वरुण देव की अकृपा नहीं, मनुष्यों की अदूरदर्शिता ही प्रमुख है। देवताओं के अनुग्रह के लिए भी माध्यम की आवश्यकता पड़ती है। बिना इसके वे भी निरुपाय बने रहते हैं। मरने के बाद चेतना देह से मुक्त हो जाती है, पर जीवित रहते वह जितना और जैसा कुछ कर लेती थी, इस स्थिति में कहाँ कर पाती है? करना तो अब भी चाहती, बातचीत से लेकर सगे-संबंधियों की सहयोग सहायता तक के लिए मचलती है, पर शरीर के अभाव में उसकी वह आकाँक्षा ज्यों-की-त्यों रह जाती है। इसके विपरीत जब वह शरीर में निवास करती है, तो अनेकों की सेवा-सहायता से लेकर अनुग्रह-अनुदान बरसाती रहती है। इसमें विशेषता काया की नहीं, चेतना की है। उसी की प्रेरणा से वह कठपुतली की भाँति कार्य करती रहती है।

वरुण देव और वर्षा के संबंध में जो आख्यान है, उस बारे में भी उपर्युक्त बात ही चरितार्थ होती है। वह कृपा कर भी दें, पर उस कृपा को धारण करने वाले वृक्ष तो हों। आखिर रेगिस्तानों में बरसात क्यों नहीं होती? क्योंकि वहाँ पेड़-पौधे नहीं होते। आकाश में उड़ने वाले बादल धरती तक उतरें तो कैसे उतरें? उन्हें बुलाने-आकर्षित करने वाला तो कोई हो। आज यदि वर्षा घटती जा रही है। इसे अब लोग आसानी से समझने लगे हैं।

इस प्रकार की कितनी ही मान्यताएँ समाज में अब भी बद्धमूल है। विज्ञान और वैज्ञानिकों के संबंध में भी ऐसी अवधारणाओं की कमी नहीं। हमारे वैज्ञानिक किस स्तर के है आर उनमें कितनी प्रतिभा है, यह कोई छुपा तथ्य नहीं है। समय-समय पर इसके प्रमाण और उदाहरण समाने आते ही रहते हैं। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि हमने अब तक एक पर विश्वास नहीं किया और सदा उनकी क्षमता को कम कर आँकते रहे। यही कारण है कि अधिकाँश प्रौद्योगिकी के लिए हमें पश्चिमी देशों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। यह तो वैसा ही हुआ, जैसे कोई सरोवर के समीप रहकर भी पानी के लिए दर-दर भटके। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? हम पहले भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी थे और अब भी हमारी योग्यता में कमी नहीं आई है। यह तो हमारे योजनाकार है, जो अपने ही विज्ञानियों को पश्चिमी विज्ञानवेत्ताओं के समा बौना समझते है- प्रतिभा और मेधा दोनों क्षेत्रों में, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। पिछले दिनों ‘टाइम’ पत्रिका में बुद्धिलब्धि संबंधी एक सर्वेक्षण छपा था, जिसमें भारतीयों की आई.क्यू. सर्वाधिक दर्शाई गई थी। इसके बावजूद क्या कारण है कि विज्ञान के क्षेत्र में हमारी प्रगति अपेक्षित नहीं हो पाई है और हम प्रौद्योगिकी जैसे महत्वपूर्ण मामलों में अब भी आत्मनिर्भर नहीं बन पाए है? इसका सबसे प्रमुख कारण शायद अपनी आत्महीनता ही है। धन की कमी, साधन-सुविधा का अभाव, प्रोत्साहन की कमी जैसे दूसरे तत्व भी न्यूनाधिक रूप में इसके लिए जिम्मेदार हो सकते हैं, पर एक बार अपनी प्रतिभाओं पर यदि भरोसा हो जाए तो यह बाधाएँ हमारी प्रगति को अधिक समय तक अवरुद्ध नहीं कर सकेगी।

समय साक्षी है, जब-जब हमारे मार्ग में रोड़े अटकाए गए, तब-तब हम उसे सफलतापूर्वक पार कर आगे बढ़ते गए। कुछ वर्ष पूर्व की बात है। हमें मौसम संबंधी जानकारी के लिए सुपर कम्प्यूटर की आवश्यकता पड़ी। अमेरिका ने उसे देने के लिए इतनी कड़ी शर्तें रखीं कि उसका मिलना मुश्किल हो गया। अंततः साढ़े चार वर्ष के अथक प्रयास से भारतीय विज्ञानवेत्ताओं ने उससे भी श्रेष्ठ स्तर का सुपर कंप्यूटर ‘परम 10000’ तैयार कर लिया और कनाडा आदि कई देशों को बेच भी दिया।

इसी तरह उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए भारत को शक्तिशाली क्रायोजेनिक इंजन की जरूरत थी, लेकिन विकसित राष्ट्रों ने उस पर भी अड़ंगे लगाए। रूस से इस संबंध में सौदा होने के बावजूद उसकी टेक्नालॉजी नहीं मिल पाई। हारकर यह योजना निजी हाथों में लेकर भारतीय वैज्ञानिकों ने सन् 1114 में इसे विकसित कर लिया।

हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम पूरी तरह स्वदेशी प्रौद्योगिकी पर आधारित है। इसमें हम दिन-दिन आगे ही बढ़ते जा रहे हैं। अब चाँद की धरती पर यान भेजने की योजना बन रही है। शायद एक-दो वर्ष में यह भी पूरी हो जाए।

प्रतिरक्षा के क्षेत्र में मिसाइलों का विकास देश के लिए गर्व का विषय है। नाग, त्रिशूल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश जैसी मिसाइलें अचूक निशाने के साथ लक्ष्य पर वार करने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। आगे ‘सूर्य’ नामक एक महत्वाकाँक्षी प्रक्षेपास्त्र पर काम करने की योजना बनाई जा रही है। यह आयुध अपने लक्ष्य पर प्रहार कर पुनः अपने ठिकाने पर लौटने की क्षमता से सम्पन्न होगा। यदि यह सफल हो गया, तो एक बार फिर महाभारत कालीन विद्या को प्रत्यक्ष होते देख सकेंगे। इसी क्रम में ‘मृत्युकिरण’ नामक एक नए अस्त्र का विकास किया जा रहा है। इसका प्रायोगिक परीक्षण हो चुका हैं। बताया जाता है कि यह अत्याधुनिक घातक हमलावर विमानों के लिए भी प्रलयंकर साबित होगा और क्षणमात्र में ही धराशायी कर भूल चटा देगा।

कारगिल युद्ध लोग अभी भूले नहीं होंगे। फ्राँसीसी मिराज विमान में सामयिक हेर-फेर करके जब उसे बम ढोने लायक बनाया गया और हजारों फुट ऊँची हिमाच्छादित चोटियों पर स्थिति दुश्मनों पर बमबारी की गई, तो युद्ध के इतिहास में यह एक प्रतिमान बन गया। इससे पूर्व इतनी ऊँचाई पर सफल हवाई आक्रमण विश्व में कहीं नहीं हुआ था।

यह है हमारा वैज्ञानिक कौशल और क्षमता। जब हमारे वैज्ञानिक इतने निपुण और मेधावान् है, तो फिर हम उस आत्महीनता से उबर क्यों नहीं पा रहें कि हमारी प्रौद्योगिकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बराबरी नहीं कर सकती? आखिर यह पूर्वाग्रह कब तक बना रहेगा और हम कब तक दूसरों के आगे हाथ पसारते रहेंगे? यह समीक्षा का वक्त है और यह तलाशने का समय भी कि उक्त अवधारणा क्योंकर और कैसे पनपी? इसे देखना चाहिए और इस संभावना की खोज करनी चाहिए कि इसमें किसी बाहर शक्ति का कोई कुचक्र तो नहीं था भीतर की ही भ्रष्टता अपनी क्षमता का घुन की तरह खाए जा रही है? इसका यदि जल्द निर्णय न हुआ, तो अपना राष्ट्र दशाब्दियों पीछे चला जाएगा। यह न हमारे लिए हितकर होगा, न विश्व के लिए, कारण कि भारत एक शाँतिप्रिय देश है और दुर्बल का शाँति प्रलाप कोई नहीं सुनता। इसलिए उसे हर प्रकार से सबल-सुरक्षित होना ही पड़ेगा। कहा भी गया है-’शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्तते’ अर्थात् राष्ट्र जब शस्त्रों से सुरक्षित होता है, तभी वहाँ शास्त्रीय चर्चा और विकास संभव है।

किसी मान्यता की अनुपयुक्तता समझ न आई हो, तब तक तो क्षम्य है, किन्तु जानबूझकर ऐसी अवधारणाओं से जकड़े रहना समझदारी नहीं। हमें जितनी जल्दी हो सके इन पूर्वाग्रहों से पिंड छुड़ा लेना चाहिए।


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