तंत्र त बुद्धि संयोग लभते पौर्वदेहिकम्

September 2000

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माँ विंध्यवासिनी के मंदिर के पास ही विंध्याचल की पर्वतमालाओं में ही उनकी गुफा थीं। इस गुण में ही वह अपने दो शिष्यों के साथ रहते थे। अनवरत गायत्री साधना ही उनका जीवन था। निरन्तर गायत्री महामंत्र का जप एवं सूर्य का ध्यान करने से उनका व्यक्तित्व भी सविता की तरह प्रखर एवं तेजस्वी हो गया था। उनका व्यक्तित्व अलौकिक विभूतियों का भंडार था। सभी ऋद्धि-सिद्धियाँ उनके चरणों की दासी थी। उनकी ख्याति सुदूर क्षेत्रों तक व्याप्त थी। प्रायः मौन रहने के कारण लोग उन्हें मौनी बाबा कहकर बुलाते थे। अब तो यही उनका नाम हो गया था।

दूर-दूर से लोग तरह-तरह की मनोकामनाएँ लेकर उनके पास आते थे और उनका आशीर्वाद लेकर संतोषपूर्वक लौट जाते थे। बाबा के पास आने वालों की कामना अवश्य पूर्ण होती थी। आज तक उनके पास आकर कोई निराश नहीं लौटा था। यही कारण था कि जनसामान्य में बाबा के प्रति अगाध श्रद्धा थी।

वैसे बाबा थे भी देवतुल्य। अत्यंत सौम्य, शाँत किंतु तेजस्वी मुखमंडल, सुदर्शन, स्वस्थ, सुगठित एवं आकर्षक देहयष्टि। उनके ललाट पर सूर्य की सी काँति थी। उन्होंने लगभग 40 वर्षों से मौन व्रत ले रखा था। वे न तो किसी से मिलते-जुलते थे और न ही कुछ बोलते थे। किसी चीज की जरूरत होने पर वह जमीन पर उंगली से लिख देते थे या फिर संकेत कर देते थे। वैसे उनकी जरूरतें थीं ही कितनी, बस एक दो अंगोछा और लंगोटी से उनका काम चल जाता था। खाने में नीम, बेल और तुलसी की पत्तियाँ एक साथ पीसकर लेते थे। उनके प्रत्येक कार्य से उनकी तपश्चर्या ही विकसित होती थी।

बाबा मिलें या न मिलें, बोलें या फिर न बोलें, लेकिन दर्शनार्थियों की भीड़ रोज ही बढ़ती जा रही थी। यह भीड़ इतनी बढ़ गई कि उनकी साधना में विघ्न पड़ने लगा। उन परमयोगी की तप-साधना में भीड़ की वजह से व्यवधान पड़ने लगा था। अतः वे नीचे गुफा छोड़कर पहाड़ के और ऊपर वाली गुफा में चले गए। अपने दोनों शिष्यों को उन्होंने पुराने वाले स्थान पर ही रहने दिया। अब दर्शनार्थियों की भीड़ को बाबा तक नहीं पहुँचने दिया जाता था। उनके दोनों शिष्य ही उन्हें आशीर्वाद देकर वापस लौटा देते थे। ये शिष्य भी कोई मामूली आदमी नहीं थे। मौनी बाबा की कृपा से उन्हें भी सिद्धि प्राप्त हो चुकी थीं उनके ये शिष्य भी जिसे जो कह देते वह हो जाता था। इसलिए भक्तों पर उनका काफी प्रभाव था।

मौनी बाबा जिस क्षेत्र में रहते थे, वहाँ के राजा की कोई संतान नहीं थीं वैसे यह राजा बड़ा ही दयालु, पराक्रमी, एवं धर्मपरायण था। उसकी प्रजा भी सुखी थी। सभी लोग आपस में प्रेमपूर्वक रहते थे। किसी को न्यायालय जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लूट-फरेब, चोरी, बेईमानी आदि का यहाँ नामोनिशान तक न था। राजा स्वयं परिश्रम के प्रति निष्ठावान् था। इसी के परिणामस्वरूप प्रजा में श्रम के प्रति निष्ठा स्वतः ही जाग्रत् हो गई थी। बड़ों की नकल सभी करते हैं। अच्छाई या बुराई हमेशा ऊपर से नीचे की ओर जाती है। राजा के सदाचरण ने जनता को भी सदाचारी बना दिया था।

राजा की तरह वहाँ की महारानी भी बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति की थी। वह करुणा एवं कोमलता की साकार मूर्ति थी। राजा और रानी दोनों ही संतान के लिए बहुत ही परेशान और बेचैन रहते थे। उन्हें अपन सारा राज-ऐश्वर्य, वैभव-विलास काटता-सा लगता। राजा-रानी दोनों ने ही संतानप्राप्ति के लिए अनेकों उपाय किए। ज्योतिषाचार्यों एवं पंडितों के द्वारा बताए गए अगणित व्रत-उपवास किए। चारों धामों सहित अनेकों तीर्थों-पुण्य स्थलों की यात्राएँ की। किन्तु कोई भी उपाय फलित नहीं हुआ। संतानप्राप्ति के लिए व्याकुल राजा लगातार निस्तेज होते जा रहे थे। महारानी का सौंदर्य ग्रीष्मकालीन सरोवर के जल की भाँति नित-प्रति क्षीण होता जा रहा था।

मौन बाबा के तप के प्रभाव की कहानियों से राजा अपरिचित न था, परंतु अब उसमें कहीं भी आने-जाने का कोई उत्साह न था। पर महारानी तो संतान के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थी। उन्होंने राजा से बाबा के पास चलने की इच्छा व्यक्त की। पहले तो राजा ने अनिच्छा व्यक्त की, पर बाद में उसने रानी का मन रखने के लिए फैसला किया कि बाबा को यही राजदरबार में बुलावा लिया जाए। रानी का जैसे ही इसका पता चला, उन्होंने प्रतिवाद करते हुए समझाया, श्रद्धा से ही मनोवाँछित फल की प्राप्ति होती है। फिर याचक को ही दाता के पास जाना चाहिए।

अपनी महारानी की बात मानकर राजा दल-बल के साथ बाबा के पास जाने के लिए तैयार हो गया। महारानी ने फिर प्रतिवाद किया, तपस्वी के पास राजसी ऐश्वर्य का कोई काम नहीं है। निष्कपट सादगी ही सहायक होती है। अतः हमें अकेले और एकदम साधारण वेश-भूषा में चलना चाहिए। राजा ने रानी की यह बात भी मान ली।

वे दोनों ही मौनी बाबा की तपस्थली पहुँचे। वहाँ का वातावरण बड़ा ही मनोरम और शाँत था। पास में ही एक झरना बह रहा था, जिससे कल-कल का रव गूँज रहा था। पक्षीगण मधुर स्वर में चहक रहे थे इस स्थान पर केवल बाबा के शिष्य थे। आगन्तुक जन दर्शन करके अपने अपने घरों को लौट चुके थे। राजा और रानी ने नत जानु होकर बाबा के शिष्यों को प्रणाम किया। बाबा के शिष्यों ने उन्हें आशीष दिया। यद्यपि बावजूद उनका तेज-ऐश्वर्य उनके अभिजात्य होने की सूचना दे रहा था। ये दोनों कुछ देर तक तो नीचे बैठे रहे। इसके बाद रानी ने बाबा के दर्शनों की इच्छा व्यक्त की।

बाबा के शिष्यों ने इन्हें रोका नहीं। हालाँकि आज तक मौनी बाबा की ऊपर वाली गुफा में दोनों शिष्यों के अलावा अन्य किसी ने पाँव भी नहीं रखा था। दोनों शिष्य बाबा के दर्शनार्थियों को नीचे ही रोक देते थे, किन्तु आज न जाने क्यों उन्होंने इन दोनों का ऊपर जाने दिया।

राजा-रानी दोनों ही गुफा के अंदर प्रविष्ट हुए। गुफा में शाँति एवं तप का तेज फैला हुआ था। मौनी बाबा के मुख की दीप्ति से गुफा प्रकाशित हो रही थी। राजा ने ऐसा महान् तपस्वी अब तक नहीं देखा था। रानी तो एकबारगी अवाक्-सी रह गई। दोनों ने बाबा को प्रणाम किया। बाबा ने अपना दाहिना हाथ धीरे से ऊपर उठा दिया। काफी देर वहाँ रहने के बाद राजा-रानी अपने राजमहल लौट गए। राजा के लिए प्रतिदिन तो बाबा के पास आना संभव नहीं था, परन्तु उसने रानी को प्रतिदिन अकेले बाबा के पास जाने की आज्ञा दे दी।

रानी बिना किसी भूल-चूक के बाबा के पास जाती। वहाँ वह गुफा के आस−पास की सफाई करती और घंटों चुपचाप बैठी रहती। ऐसे ही बरसात का मौसम था। खूब तेज मूसलाधार बारिश हो रही थी। बिजली की कड़क एवं बादलों की गरज के साथ तेज आंधी के तूफानी झोंकों ने बड़ा भयावह वातावरण बना दिया था, लेकिन रानी की निष्ठा अडिग थी। वह अपने रोज के नियमानुसार बाबा की गुफा के पास पहुँच गई। उसका शरीर बेसुध हो रहा था। वस्त्र पूरी तरह से भीग चुके थे। पहाड़ पर चढ़ते समय उसके पाँवों में कई जगह चोटें लग गई थीं, जिनसे रक्त वह रहा था एक बार तो वह एक गहरी खाई में गिरते-गिरते बची थी। किन्तु यदि कोई दृढ़ संकल्प हो तो कोई भी कार्य होने से रुकता नहीं है। सच्ची सेवा एवं निर्दोष श्रद्धा कभी बंध्या नहीं होती।

रानी की इस तरह क्षत-विक्षत एवं बेहाल दशा देखकर मौनी बाबा की करुणा छलक उठी। उनका मौन टूट गया। उन्होंने बड़े करुण स्वर में पूछा, बेटी! तुझे क्या चाहिए? तू इतना कष्ट सहकर मेरे पास क्यों आती है? आज इतने आँधी-पानी से भरे संकट काल में तू कैसे आ गई? बोल बेटी! तुझे क्या चाहिए?

रानी को अपने कानों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। क्या बाबा बोल दिस? उसकी सेवा सफल हुई उसने बड़े ही विह्वल स्वर में कहा, बाबा मैं अभागी निस्संतान हूँ। आपके द्वार से कोई निराश होकर नहीं जाता। मुझे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दें, बाबा। अपनी बात कहते-कहते वह बाबा के चरणों पर लेट गई। उसकी दशा देखकर करुणा विगलित स्वर में बाबा बोलें, जा तेरी कोख से पुत्र पैदा होगा। बाबा का वरदान पाकर रानी निहाल होकर घर लौट गई।

बाद में बाबा ने ध्यान लगाकर देखा तो पता चला कि रानी के भाग्य में तो कोई संतान ही नहीं हैं लेकिन अब क्या हो सकता है? अब तो वरदान दे दिया गया है। उन्होंने निश्चय किया, अब तो मुझे ही रानी की कोख में जाना होगा। इस निश्चय के साथ उसी क्षण बाबा ने समाधि लगाकर अपने प्राण त्याग दिए। दूसरे दिन रानी ने पहुँचकर देखा, तो बाबा का निष्प्राण शरीर पड़ा था। उनके दोनों शिष्य उनके अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहे थे। रानी बहुत दुःखी हुई, परंतु बाबा के कथनानुसार वह गर्भवती हो गई थी। राजमहल में खुशियाँ छा गई। राजा ने मुक्त हस्त से प्रजा को दान दिया।

गर्भकाल पूरा होने पर राजकुमार का जन्म दिया। सुलक्षण एवं सर्वगुण संपन्न होने पर भी राजकुमार गूँगा था। काल-प्रवाह में वह बाहर साल का हो गया, परंतु बोल नहीं। वैद्य-हकीम आए, ज्योतिषाचार्य और पंडित आए। किंतु सभी के प्रयास निष्फल गए, कोई भी राजकुमार से बोल न सका। अंत में राजा ने यह घोषणा करवा दी कि जो भी राजकुमार को बोलवा देगा, उसे व आधा राज्य देंगे।

प्रायः गूँगा व्यक्ति बहरा भी होता है, परंतु राजकुमार में यह दोष न था। उसकी जीभ गूँगे व्यक्ति के विपरीत मुलायम एवं पतली थी। वह मेधावी एवं प्रतिभावान् भी था। उसने थोड़े ही समय में सारी विद्याएँ सीख ली, सभी कलाओं में भी वह पारंगत हो गया।

एक दिन राजकुमार अपने सेवकों एवं मंत्री-पुत्रों के साथ आखेट के लिए गया। हालाँकि वह बेमन ही वहाँ गया था, क्योंकि हिंसावृत्ति उसे कतई पसंद न थी। उस दिन इस शिकार टोली को दैवयोग से कोई शिकार न मिला, लेकिन शाम को जब ये लोग लौट रहे थे तो रास्ते में एक झाड़ी से एक हिरन बोल पड़ा। शिकारी दल के सदस्य उस पर टूट पड़े। हिरन मारा गया। हिरन की दुर्दशा देखकर राजकुमार करुणा विगलित स्वर में बोल उठा, मैं बोला, तो बोला, पर तू क्यों बोला? मैं बोला तो मुझे दुबारा जन्म लो पड़ा और तू बोला तो तुझे मृत्यु के मुंह में जाना पड़ा। हाय रे भाग्य। बिना सोचे-विचारे बोलना भी कितना दुःखदायी है।

राजकुमार जब अपने आप से ये बातें कर रहें थे, तो पास खड़े मंत्री-पुत्र ने उनकी यह बातें सुन ली। उसने राजमहल जाकर राजा को सारी घटना कह सुनाई। राजा ने अचरज एवं खुशी के मिश्रित भावों से पूछा, क्या राजकुमार सचमुच ही बोलते हैं। फिर एकाएक वह गंभीर होकर बोले, राजा से झूठ बोलने की सजा तुम जानते हो न?

मंत्री-पुत्र? ने विश्वस्त स्वर में कहा, प्रत्यक्ष किम प्रमाणम्! मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि राजकुमार गूँगे नहीं है।

सभा लगी, उत्साहित जनसमूह उमड़ा पड़ा। आज राजकुमार बोलेंगे। साथ ही लोगों में भय भी व्याप्त था, यदि बात झूठी निकली तो मंत्री-पुत्र को फाँसी दे दी जाएगी। थोड़ी देर में राजकुमार सभा में आए, पर वे न बोले। क्रोधावेश में राजा ने मंत्री-पुत्र को फाँसी की सजा सुना दी। उन्होंने सोचा, यह राज्य के लोभ में झूठ बोल रहा था।

सभा के बीच फाँसी का सारा सरंजाम जुट गया। सभी खामोश थे। जल्लाद फाँसी के तख्ते को खिसकाने वाला ही था कि राजकुमार चिल्ला पड़े। इसे मत मारो, यह निर्दोष है। राजकुमार के शब्द सुनकर सभा का दहशत भरा वातावरण आनंदोत्सव में बदल गया।

इसके बाद राजकुमार ने अपने पूर्व जन्म की कथा कह सुनाई। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, राजन् मैं विंध्श्य गिरि का वही मौनी बाबा हूं। तुम्हारी रानी की सेवा एवं श्रद्धा देखकर मैंने ही उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया था। रानी के भाग्य में संतान तो थी नहीं, अतः अपनी बात को सत्य करने के लिए मुझे ही जन्म लेना पड़ा। अब रानी के निस्संतान होने का दर्द उसके मन से मिट चुका है। अतः अब मेरे यहाँ बने रहने को कोई प्रयोजन नहीं है। मैं फिर से अपनी तप-साधना करने जा रहा हूँ। गायत्री साधना में ही मानव-जीवन की सार्थकता है। उपस्थित जन पुनर्जन्म, पूर्व जन्म के इस अनोखे चमत्कार को देखकर हतप्रभ थे। गायत्री साधना की महिमा भी उन्हें चकित कर रही थी। जिसके लिए राजकुमार ने अपने राज्य को तिनके की तरह त्याग दिया और फिर से तप करने चले गए।


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