कर्म किए बिना कोई रह ही कैसे सकता है।

September 2000

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योगीराज श्री अरविंद कहते हैं कि गीता के इस तृतीय अध्याय के बीसवें से लेकर छब्बीसवें, इन सात श्लोकों से अधिक महत्वपूर्ण श्लोक गीता में कम ही हैं। वे ‘लोकसंग्रह’ श्याब्द को समझाते हुए कहते हैं कि इसे समाज सेवा- समाज सुधार आदि शब्दों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यह ईश्वर के विधान के अंतर्गत ईश्वरत्व को जीते हुए शिक्षण देने की प्रक्रिया है। आधुनिक मन की भूमिकाओं से कहीं अधिक ऊँचाई पर गीता भावनाओं और अनुभूतियों की भूमिका में विचरण करती है। इसीलिए वह जिस शब्द का प्रयोग करती है, उसका अर्थ सामान्य नहीं, असामान्य ही लिया जाना चाहिए। लोकसंग्रह की बात को अगले श्लोक में फिर बड़े स्पष्ट ढंग से समझाया गया है। इक्कीसवाँ श्लोक है-

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

“जैसा आचरण एक श्रेष्ठ पुरुष का होता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जैसा भी कुछ आदर्श उपस्थित करता है, लोग उसी का अनुसरण करते हैं।

अर्जुन, जो इस असमंजस में है कि मेरे व्यक्तिगत कर्मों का समाज से क्या संबंध है, श्रीकृष्ण की इस उक्ति के बाद तुरंत समाधान पाता है कि यह इसलिए जरूरी है कि वह विशिष्ट श्रेणी में आता है। उसका आचरण सारे समाज के उत्थान-पतन का कारण बन सकता है। उसका कोई कर्म व्यक्तिगत नहीं, अपितु सभी कुछ लोकशिक्षण हेतु हैं चूँकि अधिकाँश मनुष्य अपनी जीवनचर्या के लिए भी दृष्टि औरों पर ही डालते हैं, बड़ी ही सावधानी से प्रतिभाशीलों को अपना जीवन जीना चाहिए। हीरो या आइकाँन बनना सरल है, पर जब जीवन के कुछ कुत्सित पक्ष सामने आते हैं, तो सारा समाज तो पहले सिर आँखों पर बिठाता था, थू-थू करता दिखाई देता है।

आज के युग में सबसे बड़ संकट यदि कोई है तो वह है मनीषियों के, प्रकाशस्तंभों के अकाल का संकट। नेता तो बहुत है, पर सृजेता कहीं दिखाई नहीं पड़ते। आज का नैतिक पतन हुआ ही इसलिए है कि जनता भ्रष्ट आचरण ही चारों ओर देखती है, उसे कहीं कोई मार्गदर्शक तंत्र दिखाई ही नहीं देता। युग निर्माण अभियान, गायत्री परिवार का सारा पुरुषार्थ, विभूति महायज्ञ की सारी प्रक्रिया उसी मार्गदर्शक तंत्र को जाग्रत्-जीवंत करने हेतु है, जो कभी समाज का पुरोहित था, अग्रगमन करता था, अपने आचरण से (स्वे-स्वे आचरण शिक्षयेत्) शिक्षण देता था। श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक कितना युगानुकूल है। इसे आज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में भलीभाँति समझा जा सकता है। यह मनुष्य जाति नैतिक पतन द्वारा नष्ट-भ्रष्ट न हो जाए, इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता युगों-युगों से यह शिक्षण देती चली आ रही है कि ऐसे महामानवों के उत्पादन की प्रक्रिया बंद नहीं होनी चाहिए। राष्ट्र की संगठनात्मक प्रक्रिया नैतिक आधार पर बलती हो और अनुशासन, चारित्रिक महानता, ब्राह्मणोचित जीवन जैसे सद्गुण सामाजिक सीढ़ी के ऊपरी डंडे से निचले डंडे तक उतरे दिखाई दें। क्राँति तब ही हो पाती है। वह नीचे से ऊपर की ओर श्रेष्ठ के अनुकरण की छूत की तरह रुख लेती बढ़ती चली जाती है। विकास ऊपर से नीचे निम्नतम व्यक्ति तक उतरता चला जाता है। आज के युग के विकास का आधार भी यही आदर्श हो सकता है।

भगवान् यहाँ बड़ा स्पष्ट कह रहे हैं कि आम जनता, नेता लोग जो कुछ कहते हैं उसका नहीं, लेकिन जो भी कुछ करते हैं, उसी का अनुकरण करती है, (लोक स्तदनुवर्तते) स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण अपने बारे में भी यही बात अगले श्लोकोँ में कहते हैं कि वे स्वयं को अपवाद न मानते हुए कहते हैं कि यद्यपि संसार में उनके लिए प्राप्त करने को कुछ भी नहीं है, न ही कुछ उन्हें अप्राप्त है, सभी कुछ सुलभ है तो भी वे अथक रूप में निरंतर कार्य करते रहते हैं। यदि वे प्रमाद बरतेंगे तो अन्य लोग भी उनका अनुसरण कर अपना जीवन नष्ट कर बैठेंगे।

न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एवं च कर्मणि॥

“हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ (निरत रहता हूँ, विश्वास करता हूँ)।”

कितना स्पष्ट मार्गदर्शन है, राजकुमार अर्जुन के लिए। भगवान् स्पष्ट कह रहे है कि मैं अवतार हूँ। मैं जो चाहूँ वह प्राप्त कर सकता हूँ, फिर भी कर्म करता हूँ। भगवान् जब कर्म से विरत नहीं रह सकते, तो फिर मनुष्य कर्म से कैसे दूर भाग सकता है? वे कहते हैं कि यदि मैं सावधानीपूर्वक हर तरह से सोच-समझकर कर्म न करूं, तो बड़ी हानि हो जाएगी। क्या समाज का नैतिक पतन हो जाएगा? यहाँ यह समझना पड़ेगा कि अवतार को शरीर के स्तर पर उतरकर व्यवहार करना पड़ता है, अवतार बनकर नहीं। क से कबूतर बनाने के लिए शिक्षक को क बनाना पड़ता है, पूरा बनाकर दिखाना पड़ता है। ऐसा नहीं कि कह दिया कि कबूतर तो तुम जानते ही हो। शिक्षक बार-बार बनाता है, इसका मतलब यह नहीं कि उसे आता नहीं। उसे सिखाना है, इसलिए बार-बार शिक्षण देना पड़ेगा। अवतार स्वयं इंसान के स्तर पर उतरकर काम करके दिखाता है कि देखो हम ऐसा कर रहे है, तुम भी ऐसा करो। यही है लोकसंग्रह-लोकशिक्षण। पूर्ण जिंदगी जीकर दिखाना। जीवन को कलाकार की तरह जीना। परमपूज्य गुरुदेव ने घर-गृहस्थी में रहकर जीवन जीकर दिखा दिया। आप वैराग्य नहीं ले सकते, हिमालय नहीं जा सकते, संन्यासी नहीं बन सकते तो कोई बात नहीं। गृहस्थ में रहकर लोकसेवा कैसे की जाती है, गृहस्थ को तपोवन कैसे बनाया जाता है, इसका उदाहरण मैं स्वयं जीकर दिखाता हूँ, यह गुरुदेव ने कहा व किया। कम पैसे में जकीर, ओढ़ी हुई गरीबी वाला जीवन जीकर कैसे जिया जा सकता है, यह भी परमपूज्य गुरुदेव ने सीमित साधनों में युग निर्माण योजना खड़ी करें दिखा दिया। करोड़ों व्यक्तियों के मानस को बदलना, करोड़ों व्यक्तियों, के भाग्य की दिशाधारा को बदल देना और उसके लिए स्वयं नमूना बनकर दिखा देना, यह हमारी गुरुसत्ता के बल का ही कार्य था। वे जानते थे कि वे कौन है, किसलिए आए है, किन्तु हम सबके स्तर उतरकर लोकशिक्षण दे गए कि लोकसेवी ऐसा जीवन जीता है। आज लाखों सद्गृहस्थ आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में अग्रगमन कर रहे है, अपना अकेले का नहीं, अपने साथ परिवार संस्था, पूरे समाज का उत्कर्ष कर रहे हैं, यह कितनी बड़ी बात है।

अवतार, गुरु, महामानव वास्तव में डिमाँस्ट्रेशन के लिए आते हैं। जीवन जीने की कला का शिक्षण देने आते हैं। अपने रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं का समाधान कैसे खोजा जाए, इसका शिक्षण अपने आचरण से देने आते हैं इसीलिए बार-बर स्वाध्याय के क्रम में हमें कहा जाता है कि हम उनके जीवनक्रम को पढ़ें, मनन करें, भलीभाँति हृदयंगम करें। मनुष्य-मनुष्यता सीख सके, इसके लिए अवतार वह सब करके दिखाता है जिसका समाना किसी भी मनुष्य को करना पड़ सकता है। भगवान् अगले ही श्लोक में कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूं, तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे और मैं संकरता को (व्यक्तियों में भ्रम उत्पत्ति) जन्म देने वाला बन जाऊँगा तथा जाति के रूप में उनके नाश का कारण बनूँगा।

अगले दो श्लोक बड़े महत्वपूर्ण हैं। श्री भगवान् 25वें तथा 26वें श्लोक में कहते है-

सक्ताः कर्मण्यविद्वाँसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुयाद्विद्वाँस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसड्ग्रहम॥

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानों कर्मसगिंनाम्। जोषयेर्त्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥

“जैसे अज्ञानी आसक्ति पूर्वक कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी को बिना आसक्ति के लोकसंग्रह की दृष्टि से कर्म करना चाहिए। ज्ञानी को चाहिए कि वे कर्मासक्त ज्ञानियों में बुद्धि भ्रम पैदा न करें उन्हें चाहिए कि स्वयं कर्चों को भलीभाँति संपादित करते हैं वे दूसरों को भी कर्म करने की प्रेरणा दे।”

भगवान् कह रहे है कि स्वयंसेवी स्तर के लोकसंग्रह (लोकशिक्षण) के कार्यों का संपादन भी उतनी ही कुशलता और जागरुक मनोयोग के साथ किया जाना चाहिए, जितनी कि जागरुकता और मनोयोग के साथ हम साँसारिक लाभों के लिए प्रयास करते हैं। जितनी लगन के साथ एक अज्ञानी अपनी वासना की तृप्ति में लगा है, पैसा कमाने में लगा है, उतनी ही लगन के साथ ज्ञानी से लोकसंग्रह में लगे रहने की अपेक्षा की है। भगवान् यह भी कहते हैं कि ज्ञानी को चाहिए कि जो व्यक्ति कामनाओं के दबाव में अहंकार के व अभिभूत हो घोर कर्म में लगे हैं, ऐसे व्यक्तियों के हृदय में किसी भी प्रकार की भाँति उत्पन्न करना ठीक नहीं है। ज्ञानी स्वयं अपना कर्म करे, दूसरों को भी कर्म करने की प्रेरणा दें। श्रीकृष्ण का मत है कि कर्मण्यता एक पवित्र शक्ति है। इच्छापूर्ति के लिए उत्साहपूर्वक अहंकार भाव से यदि कोई कर्म करता है, तो उन्हें रोकिए मत। एक बार यदि वे अपने पुरुषार्थ में ढीले पड़ गए, तो वे घोर तम से घिर जाएँगे ज्ञानी जनों को धीरे-धीरे अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उनके साथ मिल-जुलकर प्रयत्न करना चाहिए, उन्हें निस्स्वार्थ पूर्वक समाजसेवा में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित करते रहना चाहिए।

उपर्युक्त दोनों श्लोक बड़े गूढ़ अर्थों वाले हैं। इनमें एक बात बड़े महत्व की आई है, वह है सही अर्थों में ज्ञानी की परिभाषा। ज्ञानी कौन है? परमात्मा के स्वरूप में अटल जो स्थित है वह ज्ञानी है। जो ईश्वरत्व को जानता है, जीता है, वह ज्ञानी है। वह ज्ञानी है, जो निरंतर लोकशिक्षण करता रहता है। अपने आचरण से शिक्षण देता रहता है। यह नहीं देखता कि और लोग क्या कर रहे हैं। जो औरों की उनके कर्मों में अश्रद्धा नहीं पैदा करता, बल्कि सतत् अच्छा काम परोपकार कार्य करने की प्रेरणा देता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

हम सभी एक दुर्गुण के शिकार हो जाते हैं। वह है औरों को देखकर उनके बारे में अधिक सोचना। हम क्या कर रहे हैं, यह न सोचकर यह सोचना कि वह यह क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है। यदि हम सब अपने कर्म के बारे में सोचने लगें, तो वास्तव में हमारा कल्याण हो जाए, क्योंकि सोचते-सोचते कहीं-न-कहीं तो कर्मों में सुगढ़ता आ ही जाएगी। श्री अरविंद का पांडिचेरी में आश्रम है, वहाँ एक सज्जन हमें मिले। उन्होंने हमें बताया कि आश्रम में आपको चिंतित लोग अधिक दिखाई देते हैं। हमने कहा, हाँ! कई लोगों के माथों पर सिलवटें दिखाई देती हैं। वे बोले, इसलिए चिंतित हैं कि और लोग क्या करते हैं। वे इसलिए चिंतित नहीं हैं कि वे क्या करते हैं। ये मात्र दूसरों को देख-देखकर परेशान होते रहते हैं। लोकसंग्रह करने वाला, लोकशिक्षण करने वाला निरंतर काम करती हैं, औरों को देखकर परेशान नहीं होता।

काम सभी श्रेष्ठ हैं। प्रवचन करना भी, लेखन भी, झाड़ू लगाना भी, बरतन माँजना भी, ढपली बजाकर प्रज्ञागीत गाना भी तथा क्राँतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुँचाना भी। रामकृष्ण परमहंस का एक नौकर था रसिक भंगी। वह सफाई करता था, झाड़ू लगाता था। उनके सामने भी लगाता था। क्रमशः ठाकुर समाधिस्थ हो गए। विश्वविजयी यात्रा के बाद आए उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद समाधिस्थ हो गए। अब ब्रह्मानंद जी अध्यक्ष थे रामकृष्ण मठ के। प्रथम अध्यक्ष के रूप में वे बैलूर मठ में रहते थे। रसिक अंगी दक्षिणेश्वर के मंदिर परिसर में यथावत झाड़ू लगाता रहा। बूढ़ा हो गया। अंतिम समय में उसे अनुभूति हुई कि ठाकुर हमें रथ से लेने आए हैं। ऐसा कहते हुए मरणासन्न स्थिति में बोलते-बोलते वह खड़ा होकर ऐसे चला गया, मानो वास्तव में रथ में बैठकर गया हो। ठीक यही अनुभूति उसी समय गंगा-पार बैलूर मठ में स्वामी ब्रह्मनंद जी को भी हुई। उन्होंने तुरंत अपने सामने बैठे लोगों को बताया कि देखो ठाकुर आए हैं, रसिक भंगी को लेकर रथ में बिठाकर ले जा रहे हैं। परमहंस तत्व को वह कैसे प्राप्त हो गया, इस गूढ़ रहस्य को स्वामी जी ने समझाया कि उसकी साधना में गहराई थी। कर्म उसने पूजा मानकर किया, जो उसे पूर्णता की ओर ले गया। सफाई करते-करते जब लक्ष्य प्राप्ति रसिक भंगी को हो सकती है, रैदास को जूता गाँठते-गाँठते हो सकती है, सिखों के गुरु अर्जुन देव जी को बरतन माँजते हुए हो सकती है, तो हम सभी को हो सकती है, यदि हम उसे श्रेष्ठतम कर्म मानकर चलेंगे, गुरु का दिया दायित्व मानकर निभाएँगे।

शांतिकुंज आश्रम में एक भाई हैं, जिनकी पदचाप हमें दो-ढाई बजे उठते ही सुनाई दे जाती है। नियमित रूप से उनकी झाड़ू लगाने की आवाज सुनाई देती है। 1679 से हम उन्हें देख रहे हैं सामने का सारा हिस्सा (जो अब पीछे सप्तऋषि आश्रम की ओर है) अस्पताल की तरह वे साफ करके तब रख देते हैं, जब कोई उठता नहीं है। हमने उनसे पूछा कि आप यह क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा कि गुरुदेव कह गए थे। सबेरे उठकर सबसे पहले झाड़ू लगाना। तब से हम यह कर रहे हैं। यह आदमी परम सत्य को प्राप्त हो जाएगा, निश्चित है, क्योंकि उसने गुरु के दिए कार्य को अपना कर्तव्य मानकर सँभाल लिया। जो पचास तरह की बातें शास्त्रार्थ की झाड़ते हैं, दुनिया भर का प्रवचन देते हैं, हो सकता है उन्हें अभी कई जन्म लेने पड़े। सत्ताइसवें श्लोक से आगे की बात कि कोई कर्म किस विवशता से करता है, अगले अंक में।


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