विभीषण ने रावण की अनीति के विरुद्ध आवाज़ उठाई, जानते हुए भी कि इससे उसका जीवन संकट में पड़ सकता है। भरी सभा में उसने कहा,
तव डर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु पीता॥
हे अवाज! आपके अंदर कुमति का निवास हो जाने से आपका मन उलटा चल रहा है, उससे आप भलाई को बुराई और मित्र को शत्रु समझ रहे हैं।
झूठी चापलूसी करने वाले सभासदों के बीच अपने भाई विभीषण की नेक सलाह भी विद्वता की मूर्ति पंडित रावण को उलटी ही लग रही थी। उत्तेजित रावण कह उठा, “तू मेरे राज्य में रहते हुए भी शत्रु से प्रेम करता है। अतः उन्हीं के पास चला जा और उन्हीं की नीति को शिक्षा दे।” ऐसा कहकर उसने भाई को लात मारी व सभा से उसको निकाल दिया।
समझाने पर भी जो खोटा मार्ग न छोड़े, उससे संबंध ही त्याग देना चाहिए, यही सोचकर विभीषण लंका छोड़कर भगवान् राम की शरण में गए और अपना उद्धार किया।