राजधानी के एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में किसी नटखट छात्र ने लगातार तीन बार शरारत की। शरारतें इतनी गंभीर थी कि तीसरी बार चेतावनी देकर नहीं छोड़ा जा सकता था। प्रिंसिपल ने उसे स्कूल से निकाल दिया। छात्र आठवीं कक्षा में पढ़ता था। इस स्तर तक पहुँचने के बाद नए स्कूल में प्रवेश मिलना आसान नहीं था। उस पब्लिक स्कूल जैसे प्रतिष्ठित विद्यालय से निकाले जाने का कारण हर नए स्कूल में पूछा जाता और कारण बताया जाता तो किसी भी हालत में प्रवेश नहीं मिलता।
छात्र के पिता ने अपने शरारती पुत्र को नियति और अपनी मजबूरी समझकर चुप्पी साध ली। स्कूल से निकाले जाने के बाद विद्यार्थी को अपनी गलती का एहसास हुआ। वह पश्चाताप से भर उठा और अपना निष्कासन रद्द कराने के लिए खुद ही यहाँ-वहाँ भटकने लगा। प्रबंध समिति के विभिन्न सदस्यों के द्वार खटखटाए, अध्यापकों से मिला, स्वयं प्रिंसिपल के पास भी गया, लेकिन कहीं से उम्मीद पूरी होती नहीं दिखाई दी। कहीं से पता चला कि प्रिंसिपल का एक पत्रकार मित्र है और वह पत्रकार मित्र समझाए तो निष्कासन रद्द हो सकता था। पत्रकार का नाम था अनंत कुमार। उसने दात्र की व्यथा और पश्चात्ताप की सच्चाई को अनुभव किया। अपने मित्र प्रिंसिपल से बातों ही बातों में निकाले गए छात्र की चर्चा छेड़ी। उस छात्र का नाम आते ही प्रिंसिपल ने तपाक से कहा, माफ करना मित्र, लेकिन तुम उस बदमाश लड़के को वापस लेने के लिए मत कहना।
अनंत कुमार ने कहा, नहीं कहूँगा। लेकिन जरा अपने पीछे तो देखो। किसकी मूर्ति लगी हुई है, जिसकी मूर्ति तुमने लगा रखी है, उस (ईसा) ने अपने शरीर में कीलें गाड़ने वालों को भी माफ कर दिया था। प्रिंसिपल ने अपनी कुरसी के पीछे लगी ईसा की मूर्ति को निहारा। अनंत के कहे हुए शब्दों ने हृदय को छू लिया। कुछ क्षण चुप रहने के बाद प्रिंसिपल स्वतः बोले, क्या सचमुच वह लड़का सुधरने को तैयार है। कुछ आश्वासन और पड़ताल के बाद छात्र को तैयार है। कुछ आश्वासन और पड़ताल के बाद छात्र को वापस प्रवेश मिला गया। आगे का काम उन पत्रकार ने संभाला। प्रेम, आत्मीयता ओर उदारता ने छात्र में आत्मविश्वास के साथ जिम्मेदारी की भावना भी भर दी। आठवीं कक्षा में वह अव्वल आया। उसके बाद सफलता के रिकॉर्ड कायम करता गया। अगले दो वर्षों में वह अपने स्कूल के सबसे होनहार छात्रों में था।
नए मनुष्य के विकास की दिशा में काम कर रहें मिशनरियों और मनोविज्ञानियों का मानना है कि बचपन में हो ध्यान दिया जाए, तो पंचानवे प्रतिशत बालक प्रतिभाशाली सिद्ध होते हैं। परिस्थितियों का दबाव उन्हें कुँठित नहीं करता, बल्कि अभिभावकों की उपेक्षा ही उनके विकास में बाधक बनती है। यह ठीक हैं कि कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को पिछड़ा अयोग्य, दब्बू और असफल देखना नहीं चाहते। अपनी स्थिति और समझ के अनुसार बच्चे के विकास के लिए सभी प्रयत्न करते हैं। नासमझी या निजी कुँठाओं के चलते चूक उन प्रयत्नों में ही हो जाती है।
प्रयत्नों की चूक भी एक बार क्षम्य है। मुख्य गलती यह होती है कि माता-पिता अपने व्यवहार से बच्चों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा देते हैं। कई बार उनका व्यवहार इतना सनक भरा होता है कि बच्चा अपने आपको स्वीकार करने से भी झिझकने लगता है। मुँबई में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का बच्चा मनोहर सातवीं कक्षा में फैल हो गया। पिता इससे बहुत नाराज हुए। इतना नाराज कि उन्होंने बेटे को अपनी नजरों से दूर ही रहने के लिए कहा। कह दिया कि मुझे तुम्हें अपना पुत्र कहते हुए शर्म आती हैं। जून के महीने में पिता को कोई मित्र कुछ दिन सपरिवार उनके घर आया। वे लोग तीन-चार दिन रुककर मुँबई घूमना चाहते थे। पिता ने मनोहर को उसके मामा के यहाँ भेज दिया। भेजते हुए भी जता दिया कि मैं तुम्हारा परिचय अपने बेटे के रूप में नहीं दे सकूँगा, क्योंकि तुम सातवीं कक्षा भी पास नहीं कर सके हो। इस तरह के तिरस्कार ने बच्चे के मन में टूटन और विखंडन की भावन भर दी। वह अपनी उम्र के आवारा लड़कों के साथ घूमने लगा। दस-बारह साल के भटके हुए बच्चों में जिस तरह की कुटेव पड़ जाती है, वैसी बुरी आदतें उसमें भी आने लगी। माँ इस बात से बहुत परेशान रहने लगी।
संयोग से उसी क्षेत्र में संपर्क अभियान पर निकले स्वाध्यायी डॉ. राघव घर आए। माँ ने डॉ. राघव को अपने बेटे की परेशानी के बारे में बताया। पूरा वृत्ताँत जानने के बाद उन्होंने मनोहर के पिता से कहा कि आप अपने बचपन को याद कीजिए, जिन दिनों आप पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे और स्कूल से भाग आया करते थे, तो पिता ने तब आपको किस तरह स्वीकार किया था। तरह-तरह से समझाने पर बात पिता के गले उतरी। उन्होंने बेटे को स्वीकार किया। डॉ. राघव को कहा कि सिर्फ छह महीने तक बच्चे की गलतियों को अनदेखा करो। जब भी वह गलती करे उसे समझाओ। सुबह उठाते ही मनोहर से हौसला बढ़ाने वाली दो-चार बातें कहो। इसके बाद दिन में एक घंटे के लिए मेरे पास छोड़ देना।
डॉ. राघव बाल-विकास की एक छोटी-सी संस्था चलाते थे। उसमें बातचीत से बच्चों का मन टटोला जाता और अभ्यास कराया जाता कि वे अपने आपको स्वीकार करें। मनोहर के लिए भी इसी तरह के प्रयास किए गए। इन प्रयत्नों या सावधानियों का अच्छा असर हुआ। मनोहर सुधर गया। अब वह अपने इलाके में बिजली के सामान का स्टोर चलाता है। मनोहर के पिता एक निजी संस्था में क्लर्क थे। पिता सालभर में जितनी कमाई करते थे, उतनी आय वह हफ्ते भर में कर लेता है। डॉ. राघव हाल ही में उस परिवार से मिलकर आए हैं। पिता ने उन्हें बहुत धन्यवाद दिया और यह उलाहना भी सुना कि अपने बेटे से अब भी शर्म आती है या उसकी सफलता पर गर्व अनुभव होता है। निश्चित ही मनोहर ने चमत्कृत कर देने वाली ऊँचाइयाँ नहीं छुई हों, लेकिन वह अपने पिता से बहुत आगे गया है, उसकी सफलताओं पर परिवार को गर्व हैं।
वयस्क व्यक्ति जैसा भी हो, उसे पूरा खिला हुआ फूल मानें तो बच्चों को कली की तरह माना जा सकता है। यह नहीं हो सकता कि कली को नकारा जाए और उससे स्वस्थ विकसित पुष्प बनने की आशा भी करें। जो व्यक्ति दब्बू, पहल करने में अक्सर चूक जाने वाले और कुछ देर प्रयत्न करने के बाद ही थक जाने वाली दुर्बलता के शिकार होते हैं, उनका बचपन निश्चित रूप से अस्वीकार, उपेक्षा और लाँछन से बिंधा हुआ होता है। बिंधे हुए व्यक्तित्व में जीवन ऊर्जा टिक नहीं पाती और व्यक्ति निरंतर असफल होता चला जाता है।
बच्चों के विकास की दिशा में काम कर रही संस्था ‘अंकुर’ के निदेशक संजय पुरी का अनुभव है कि लाड़-प्यार का अर्थ बच्चों में सम्मान और स्वीकार का भाव भरना नहीं है। बहुत बार माता-पिता अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर पाने की स्थिति में भी अनावश्यक लाड़-प्यार करते हैं। जिम्मेदारी का अर्थ बच्चों के व्यक्तित्व विकास पर ध्यान देना है। पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाने की ग्लानि से उबरने के लिए माता-पिता बच्चों की अनुचित माँग भी पूरी करने लगते हैं। अनाप-शनाप माँगें मानते जाने पर एक स्थिति ऐसी आती हैं कि किसी-न-किसी बिंदु पर मना करना ही पड़ता है। बच्चा जब मना करने का कारण पूछता है, तो कोई संतोषजनक उत्तर देते नहीं बनता। बार-बार कारण पूछने पर बच्चे को फटकारते हुए जान छुड़ानी पड़ती है। उस फटकार से अब तक बनाया हुआ ‘ताश का महल’ ढह जाता है और व्यक्तित्व में हट, जिद, दुराग्रह जैसी विकृतियाँ आ जाती है। यह विकृति गहरे नकार का ही विद्रूप है।
आत्मविश्वास बहुत आगे की स्थिति है। किसी भी क्षेत्र में महत्वपूर्ण सफलता अर्जित करने के लिए यह आधारभूत गुण है। इस गुण से पहले आत्मसम्मान और आत्मस्वीकार की भावना आनी चाहिए। अदम्य ऊर्जा से भरे व्यक्तित्व में आत्मविश्वास का भाव दुस्साहस की तरह भी उद्भूत हो सकता है। प्रतिकूलताओं और बाधाओं को निरन्तर चीरते हुए निकल जाने और शिखर पर पहुँच जाने की क्षमता बिरले व्यक्तियों में ही होती है। वह क्षमता विशिष्ट स्तर की है। निन्यानवे प्रतिशत लोग सामान्य स्तर के ही होते हैं। उनमें आत्मविश्वास की भावना ठीक से जग सके, तो वे भी विशेष सफलताएँ अर्जित कर सकते हैं।
डॉ. संजय पुरी ने ढाई सौ से ज्यादा अभिभावकों को विमर्श दिया है। ये अभिभावक अपने बच्चों की किसी-न किसी समस्या, दोष या अवगुण के लिए चिंतित थे। उन्हें लगता था कि बच्चे में यह दोष रहा तो आगे चलकर उसे जगह-जगह धक्के खाने पड़ेंगे। उसे किसी का सहयोग नहीं मिल सकेगा। डॉ. पुरी ने इन अभिभावकों से बच्चों के बारे में नहीं, उनके अपने व्यवहार के बारे में ज्यादा पूछताछ की। पचासी प्रतिशत मामलों में यह निष्कर्ष सामने आया कि अभिभावक की भावना के शिकार थे। उसके अभाव में वे आत्मसम्मान के स्थान पर दंभ और आत्मविश्वास की जगह उद्दंड हठ या दुराग्रह से ग्रस्त हो गए थे। वही जहर बच्चों में फैल रहा था। पहले अभिभावकों को अपने सुधार की सलाह दी गई। सुधार की दिशा में लगे माता-पिताओं को उसी अनुपात में शुभ परिणाम भी मिले।