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September 2000

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जो कुछ कर गुजरना चाहते हैं

जिन्हें पेट-प्रजनन की ही गरज है, जो लोभ, मोहर और अहंकार से ऊँचे उठ सकने की आवश्यक ही नहीं समझते, उनके संबंध में तो कही ही क्या जाए? किन्तु जिन्हें कोई महत्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करना है, उनके लिए एक ही उपाय है कि प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत करके उन्हें उस स्तर का अभ्यास कराएं, जिसके बलबूते बड़े काम किए जाते हैं, बड़े लाभ अर्जित किए जाते हैं। दूसरों की सहायता पाने की बात को अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। अपना पुरुषार्थ जगे, तो यह स्वाभाविक है कि खिले हुए फूल को देखकर उसपर तितलियाँ मंडराएँ और भौंरे यश-गीत गाने की झड़ी लगाएँ। (वाङ्मय-28, पृष्ठ 2.16)

राष्ट्र आत्मनिरीक्षण की ओर बढ़े

दीन-दुर्बल स्तर की जनता कभी समर्थ और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकती। जो राष्ट्र की धाराएँ संभालते और चलाते हैं, वे यदि विकृत और दुर्बल मनोभूमि लिए हुए होंगे तो राष्ट्र किसी भी दिशा में प्रगति न कर सकेगा। हर ओर इज़राइल आदि देशों ने स्वल्पकाल में ही अपना कायाकल्प कर डाला और एक हम है, जो उलटे पीछे फिसलते चले जा रहे है। थोथे वादे करने वाले नेता अपनी आपाधापी में इतने गहने घुसे बैठे हैं कि उनके लिए लोकमंगल के लिए सचमुच कुछ बड़ा काम कर सकना संभव नहीं है। न सामाजिक कुरीतियों का अंत होता है, न अनैतिकता की बाढ़ रुकती है। इस सामाजिक एवं राष्ट्रीय दुर्बलता के लिए एक ही तथ्य उत्तरदायी है और वह है, जनमानस की चिंतनधारा। विकृतियाँ यही से उद्भव होती हैं। व्यक्तित्व इसी निकृष्टता के कारण स्वार्थी और संकीर्ण बनते हैं ओछे व्यक्तियों से भरा समाज विग्रहों, समस्याओं, दुर्बलताओं और अभावों को केंद्र ही बना रहेगा। आज की स्थिति में सबसे बड़ा शौर्य यह है कि हम पूरा मनोबल इकट्ठा करके प्रखर परिवर्तन प्रस्तुत करें, जिसमें विवेक की ही प्रतिष्ठापना हो और अविवेकपूर्ण दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों को पैरों तले कुचल कर रख दिया जाए।

(वाङ्मय-28, पृष्ठ 6.74)


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