रहस्यों की पिटारी हमारी पीनियल ग्रंथि

September 2000

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अब तक शरीर-विज्ञान संबंधी जितनी खोजें हुई हैं, उनमें अवयवों की प्रत्यक्ष हलचलों को ही मुख्य आधार माना जाता रहा है। जो भी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से दृष्टिगोचर हो, उसे ही विज्ञान प्रामाणिक मानता आया है। इतना सब होते हुए भी शरीरगत अनेकानेक संदर्भ ऐसे है, जिन्हें मनुष्य अभी तक नहीं जान पाया है। इन पर रहस्य के परदे अभी भी पड़े हैं। वे तब ही हटेंगे, जब स्थूल की हलचलों के पीछे झाँक रही सूक्ष्म सत्ता की लीला को समझने के प्रयास किए जाएंगे।

अंतःस्रावी ग्रंथियाँ, वंशानुक्रम प्रक्रिया, भ्रूणावधि में जीव का समन्वित विकास-क्रम, जीवकोष की अनंत संभावनाओं से भरी क्षमताएँ, अचेतन मन की रहस्यमय गतिविधियाँ, प्रभावशाली तेजोवलय जैसे संदर्भ ऐसे हैं, जिनका स्थूल शरीर की सामान्य हलचलों से कोई संबंध नहीं हैं। शरीरशास्त्रियों की विशद खोजबीन इसके कुछ ही रहस्य पता लगा पाई है। ऐसी अद्भुतताएँ जिनका तालमेल जैन-रासायनिक हलचलों से नहीं बैठता, उन्हें सूक्ष्मशरीर की शक्ति कह सकते हैं। यह क्षेत्र अत्यंत सुविस्तृत है, जिसकी थाह पाने का प्रयास अध्यात्मवेत्ता युगों-युगों से करते आए हैं एवं आधुनिक वैज्ञानिक अब इस दिशा में भी अग्रसर हुए है।

इस क्षेत्र का परिचय देने में अग्रणी है, शरीर की अंतःस्रावी ग्रंथियाँ। इस दिशा में विशेष अनुसंधान करने वाले डॉ. क्रुकशेंक ने इन स्रावों की आधार-ग्रंथियों को जादुई ग्रंथियां कहा है। वे कहते हैं कि व्यक्ति का स्तर एवं व्यक्तित्व इन स्रावों के क्रिया-कलापों का निरीक्षण कर ही जाना जा सकता है। शरीर की आकृति ही नहीं, उसकी प्रकृति का निर्धारण भी इन हार्मोन रसों द्वारा ही होता है।

वैसे तो अपने-अपने स्थान पर सभी ग्रंथियों का महत्व है, पर इन सभी की नियामक सत्ता जहाँ विराजमान् है, उन्हें मास्टर ग्लैण्ड्स कहा गया है। इनमें मुख्य हैं, पीनियल एवं पिट्यूटरी। इनकी संरचना भी अपने आप में अनोखी हैं एवं दोनों का ही परस्पर गहन संबंध है।

जिस ग्रंथि को शरीर विज्ञान पीनियल कहते हैं, उसे पौराणिक वर्णन के अनुसार तृतमीय नेत्र कहा गया है, जबकि तंत्र और योगशास्त्र उसे आज्ञाचक्र की संगति देते आए हैं। कुछ समय पहले तक वस्तुतः वैज्ञानिकों की यह मान्यता थी कि यह ग्रंथि मनुष्य के लिए अनावश्यक हैं तथा यह मानवी सभ्यता के विकास के प्रारंभिक चरणों का बचा हुआ अवशेष है, परंतु अध्यात्म ने इसको प्रारंभ से ही अत्यंत महत्वपूर्ण अंग माना हैं अध्यात्म चेतना का विज्ञान है। इसीलिए अध्यात्मवेत्ताओं की दृष्टि स्थूल पर नहीं, अपितु उसके अंतराल में छिपी सूक्ष्म सत्ता पर जाती है। पीनियल की शरीर-विज्ञान क्षेत्र में बढ़ती ख्याति एक इसी तथ्य से जानी जा सकती है कि कई राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन पिछले दो दशकों में इसकी गुत्थियां सुलझाने हेतु ही आयोजित किए गए।

शारीरिक दृष्टि से पीनियल मानव-शरीर का सबसे छोटा घटक है। यह एक-चौथाई इंच लंबा एवं सौ मिलीग्राम भारी होता है। इतना छोटा अंग शायद ही कभी इतनी उत्तेजना का कारण बना हो। गरदन और सिर के मिलन बिंदु पर मेरुदंड के ठीक ऊपर स्थित यह ग्रंथ भूमध्य भाग में मस्तिष्क की दीवार से जुड़ी है।

ऐसा नहीं कि पीनियल पर वाद-विवाद पहले न चला हो। ग्रीक वैज्ञानिक हीरोबिस जो ईसा से चार शताब्दी पूर्व शरीर-विज्ञान की अपनी व्याख्याओं के कारण काफी प्रसिद्ध हुए थे, पीनियल संबंधी अपने विचारों से विवादास्पद भी रहे। वे इस ग्रंथि को विचार-प्रवाह का नियामक मानते थे। उनके अनुसार यह ग्रंथि शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्र के मध्यस्थ के रूप में कार्य करती है। प्रारंभिक लैटिन संरचना शास्त्रियों ने भी इसे स्वामी ग्रंथि की संज्ञा दी थी। सोलहवीं शताब्दी के फ्राँसीसी दार्शनिक एवं स्नायु विज्ञानी रैने डेस्कार्टिस ने इसे आत्मा का निवास स्थान बताया था। सन् 1100 में दो वैज्ञानिकों एच. डब्ल्यू ग्राफ तथा ई. बाल्डविन स्पेन्सर ने पीनियल पर गहन शोध की। उनके शोध-निष्कर्षों ने यह प्रमाणित किया कि यह ग्रंथि वातावरण के प्रकाश से सीधे और चर्म चक्षु के स्नायु मार्ग द्वारा दोनों ही तरह से प्रतिक्रिया करती है। यह निष्कर्ष अध्यात्मवेत्ताओं की इस घोषणा से साम्य रखता है। कि पीनियल ग्लैंड ही तृतीय चक्षु है। हाल के वर्षों में मेलाटोनिन तथा सेरोटोनिन नामक दो हार्मोन पीनियल ग्रंथि से पृथक किए गए हैं। इन दोनों रसस्रावों के गुणों एवं कार्यों के संबंध में किया गया अनुसंधान स्थूल शरीर की रहस्यमय परतों के संबंध में कई नए तथ्य उजागर करता है।

येल स्कूल ऑफ मेडिसिन में कार्यरत मूर्द्धन्य वैज्ञानिक डेनिस लिचेन ने सन् 1160 में पीनियल से मेलाटोनिन नामक हार्मोन पृथक किया। यह पदार्थ मेढ़क तथा मछलियों में वातावरणीय प्रकाश परिवर्तन की प्रतिक्रिया स्वरूप त्वचा में रंग-परिवर्तन हेतु जिम्मेदार है और मनुष्य में यही भावनात्मक बदलाव का तथा क्रोध एवं भय के आवेगों का नियंत्रणकर्त्ता समझा जाता है। वयः संधि के प्रारंभ में तथा मनुष्य के यौन विकास में इसकी विशिष्ट भूमिका हैं। जैसे-जैसे बच्चे वयः संधि काल में प्रवेश करते हैं, उनकी पीनियल ग्रंथि का आकार और कार्य-क्षमता घटती जाती है। ऐसा माना जाता है कि उक्त ग्रंथि यौन विकास के प्रारंभ को अपने नियंत्रण में रखती है और जब उसका नियमन हट जाता है, तो यही कार्य पिट्यूटरी अपने जिम्मे ले लेती हैं। कामेंद्रिय को पिट्यूटरी ग्लैंड के माध्यम से नियंत्रित करने में इस तरह का सक्रिय योगदान पीनियल की महत्वपूर्ण भूमिका प्रतिपादित करता है। आज्ञाचक्र का जागरण क्या है? इसे यदि सरल शब्दों में समझा जाए, तो यह विवेक का अनावरण कहलाएगा। इस विवेक का सहारा लेकर जब मनुष्य अपनी समस्त क्षमताओं को रचनात्मकता की ओर मोड़ लेता है, तो अचेतन की सुप्त संपदा के हीरे-मोती उसे प्राप्त हो जाते हैं। यही प्रसुप्त का जागरण है। इसे अंतः का परिमार्जन साधना का आधारभूत अंग यहीं है। शिवजी और दमयंती द्वारा क्रमशः कामदेव और बहेलिये को तीसरे नेत्र द्वारा जलाकर भस्म करने का जो पौराणिक आख्यान मिलता है, वह कोई आलंकारिक उल्लेख मात्र नहीं है, वरन् उसमें इसी ग्रंथि की शक्ति और सामर्थ्य को दर्शाया गया है।

सर्वसामान्य में इस अवयव की सक्रियता उतनी ही होती है, जितने से शरीरगत क्रियाप्रणाली सुचारु रूप से चलती रह सके। यह साधारण स्थिति और इसका भौतिक स्वरूप हुआ। इस दशा में इसका क्रिया-कलाप शरीर-तंत्र को नियमित-नियंत्रित भर करने तक सीमित होता है, किन्तु जब इसे उत्तेजित कर जाग्रत् किया जाता है, तब यह अपनी सूक्ष्म शक्ति के साथ प्रकट होता और साधक के व्यक्तित्व एवं दृष्टिकोण में ऐसा आमूलचूल परिवर्तन लाता है, जिसे किसी भी प्रकार कायाकल्प स्तर से कम का नहीं कहा जा सकता। दूरदर्शी विवेकशीलता इसका प्रथम लक्षण है। जिस व्यक्ति में यह दिखलाई पड़े, उसके बारे में असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि उसमें पीनियल की सूक्ष्म शक्ति जाग्रत् हो चुकी है। जब यह शक्ति संपूर्ण रूप से उद्बुद्ध होती है, तो आदमी में अनेक प्रकार की आध्यात्मिक विभूतियों का प्रादुर्भाव होता और वह साधारण से असाधारण बन जाता है।

भौतिक स्तर पर इसे प्रभावित करने का कोई उपाय नहीं है, पर आध्यात्मिक स्तर पर इसको उद्दीप्त करने के कितने ही उपाय-उपचार बताए गए है, जिनमें अगोचरी मुद्रा, शाम्भवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा, त्राटक, ध्यान-धारणा आदि प्रमुख है।

हार्मोन्स में हमारे शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास की अनंत संभावनाएँ भरी पड़ी हैं। योगाभ्यास द्वार, मनोमय कोश का जागरण और तृतीय नेत्र उन्मीलन का महत् उद्देश्य व्यक्तित्व का परिमार्जन और चिंतन का परिष्कार हैं। शारीरिक बल-वृद्धि तथा मानसिक स्वास्थ्य के रूप में शेष अनुदान स्वतः मिलते चले जाते हैं। हमारा शरीर स्रष्टा की अनुपम देन है। यहाँ जीवकोष से लेकर जीन्स तक तथा न्यूरान्स से लेकर हार्मोन्स तक सभी अनंत क्षमताओं से सम्पन्न हैं। केवल इनकी संभावनाओं को पहचानना एवं उनका सदुपयोग करना मनुष्य को आना चाहिए।


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