मिथिला नगरी के महानंद परिव्राजक ने जीवन के तीन दशक कठिन तपश्चर्या में बिताए। जप, तप, आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, यज्ञ, कीर्तन, मार्जन, तर्पण करते-करते असंख्य सिद्धियाँ करतलगत कर ली। असाधारण क्षमता वाले मुनि महानंद की ख्याति चंद्रमा के प्रकाश की तरह विकसित होने लगी। सैकड़ों व्यक्ति उनकी सिद्धियों का लाभ पाने लगे। सैकड़ों व्यक्ति प्रतिदिन आश्रम पहुँचते और उनके चरणों में सिर रखकर महासुख अनुभव करते, किन्तु मुनि का अंतःकरण स्थिर न था। सिद्धियों ने उनकी तृष्णा तो बढ़ा दी। पर वह शाँति व स्थिरता न मिली, जिसके लिए मुनि ने घर, परिवार और स्नेही-संबंधियों का साथ छोड़ा था।
एक दिन महानंद इसी दुःख से भरे अपनी कुटिया से निकले। एक गाँव की ओर चल पड़े। शुरू की चौखट में पहुँचें थे कि किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया। कोई बीमार था, देखने वाला कोई न था, बड़ी पीड़ा बढ़ गई थी। उस व्यक्ति की दर्द भरी कराह मुनि के हृदय में उतर गई। उन्होंने बीमार की रातभर सेवा की। दवा दी, पाँव दाबें, बिस्तर बदले, टट्टी और पेशाब धोया। चौथे पहर जब उसे नींद आई, मुनि आश्रम लौटे।
आज न उन्होंने संध्या की, न प्राणायाम और निदिध्यासन भी नहीं किया, किन्तु तो भी उनके अंतःकरण में अपूर्व शाँति, स्थिर उत्फुल्लता, अबाध सुख निर्झर की भाँति झर रहे थे। महानंद को बोध हुआ कि तप-साधना द्वारा अर्जित क्षमता का सही उपयोग न हो पाने से मत अशाँत था और अपनी साधना का अगला चरण इसी को मानकर अविरल शाँति पाई। मुनि कह उठे, “मुझे मालूम होता कि परमात्मा दीन-दुखियों की सेवा का प्यासा है, तो क्यों इतना समय व्यर्थ जाता।”