विधाता का अनमोल अनुदान, वनौषधि विज्ञान

September 2000

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वनस्पतियों की संख्या अगणित है। आहार एवं औषधि प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाली प्रायः सभी वनस्पतियां अपने आप में परिपूर्ण हैं। इनमें से प्रत्येक की संरचना अनेक यौगिकों, क्षारों, रसायनों एवं खनिजों के सम्मिश्रण से हुई है। इसलिए उनमें से प्रत्येक को परिपूर्ण कह सकते हैं। जिस तरह से मनुष्य अपने आप में परिपूर्ण है। विधाता ने रक्त-माँस, अस्थि, बस, त्वचा, पाचक द्रव्य आदि सभी आवश्यक तत्वों को उसके शरीर में इस प्रकार संजोया है कि उसे अपनी गतिविधियाँ संचालित करने में सुविधा रहे। ठीक यही बात वनस्पतियों के संबंध में भी है। पत्तियों, फलों कंदों के रूप में उनका उपयोग होता है। इनका गहन विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि इनमें से प्रत्येक में अनेकानेक रासायनिक घटकों का समावेश है। वे जिस शरीर में प्रवेश करती है, उसकी सभी आवश्यकताओं को भली भाँति पूरा कर देती हैं।

इन वनस्पतियों के औषधीय गुणों का विज्ञान ही आयुर्वेद है। इस आयुर्वेद का इतिहास खोजे तो ज्ञान होता है कि इसका उद्भव ईसा से भी सैकड़ों साल पहले हुआ। यह विज्ञान भारत से तिब्बत होता हुआ चीन पहुँचा। एक तिब्बती पाँडुलिपि, जो ल्हासा संग्रहालय में पाई गई है, में इस सत्य का उल्लेख मिलता है। इसमें उद्धृत दस हजार से भी अधिक औषधियों में स्थान-स्थान पर चरक एवं सुश्रुत के संदर्भ है। उस ग्रंथ का नाम है, रिगयुदब्झी। इस शब्द में दो शब्द सम्मिलित रूप से ध्वनित होते हैं। एव को सन् 820 ई. का माना जाता है।

अपराह्न चिरपुरातन आयुर्वेद विज्ञान चीन में अभी भी जीवित है। इसके लिए अपना जाने के परिणाम वहाँ के जन जीवन में स्पष्टतः नजर आते हैं। वहाँ अधिकाँश रोगों में शल्य क्रिया आवश्यक नहीं समझी जाती। केवल वनौषधियों या जड़ी-बूटियों के उपचार से ही आँत्र-अवरोध जैसी आपातकालीन व्याधि को मिटाने में चीनी चिकित्सक सफल हुए है। इन जड़ी-बूटियों के प्रत्यक्ष सत्परिणाम सारे विज्ञान जगत् के समक्ष है। आज मूर्द्धन्य चिकित्साविज्ञानी भी विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि चिकित्सा के उन्हीं आधारों को जीवित किया जाना एवं जीवंत बनाए रखना चाहिए, जो मानव की जीवनी शक्ति को बढ़ाने में सहायक हों, वैज्ञानिकों का मत है, इसके लिए मानव को प्रकृति का शरण में जाना होगा।

वनौषधियाँ प्रकृति का अपना स्वरूप है। इनमें रोग-निवारण की सामर्थ्य है और शरीर की कमियों को दूर करने वाले पौष्टिक तत्व भी है। समूचे प्रकृति जगत् में प्रायः 4 लाख से भी अधिक पौधे हैं। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है कि चिकित्सा की दृष्टि से किसी-न-किसी प्रकार से उपयोगी न हो। इस संबंध में एक प्राचीन आख्यान बहु-प्रचलित है।

एक बार ब्रह्माजी ने महर्षि जीवक को आदेश दिया कि पृथ्वी पर जो भी पत्ता-पौधा, वृक्ष-वनस्पति व्यर्थ दिखाई दें, उन्हें यहाँ ले आओ। लगातार 12 वर्षों तक पृथ्वी पर घूमने के बाद महर्षि लौटे और ब्रह्माजी के समक्ष नतमस्तक होकर बोले, प्रभो! मैं इन 12 वर्षा में पूरी पृथ्वी पर भटका हूँ प्रत्येक पौधे के गुण दोष को परखा है। पर पृथ्वी पर एक भी ऐसे वनस्पति नहीं मिली जो किसी न किसी व्याधि के उन्मूलन में सहायक न हो।

इन औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों में कुछ तो ऐसी हैं, जो हमारे घर के आस−पास और हम सबके जीवन में बहुत घुली-मिली हैं। इन्हीं में से एक नाम है, तुलसी। इसे वनस्पति शास्त्र में औसिमम सैक्टम नाम से जाना जाता है। लोक-भाषा में इसे राम तुलसी, श्याम तुलसी, तुलसी वृंदा, तुलसी महारानी, श्यामा, सुखल्ली आदि कितने ही नामों से पुकारा जाता है। रूप-गुण के अनुसार तुलसी की कई किस्में होती है। अधिकतर पूजन में राम तुलसी प्रयोग में लाई जाती है। सामान्यतः यह तुलसी का पौधा छोटा ही रहता है, पर कभी-कभी चार फुट की ऊँचाई तक बढ़ जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी आयु प्रायः एक साल रहती है, पर मैदानी इलाकों में यह चार से पाँच सालों तक भी जीवित रहती है।

वनौषधि विशेषज्ञों का मत है कि तेज बुखार एवं बड़बड़ाहट की हालत में इसका काढ़ा पिलाने से काफी लाभ मिलता है और मन को भी शाँति मिलती है। इन्फ्लुएंजा, मलेरिया, टाइफ़ाइड आदि में भी तुलसी का काढ़ा बहुत फायदा करता है। तुलसी से रक्तचाप के रोगियों को भी फायदा होता है। इसलिए इसे मृतजन्मा कहते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार तुलसी के दर्शन, स्पर्श, रापेण, सिंचन एवं पूजन से सब अनिष्टों का निवारण होता है। घर में सुख-शाँति की अभिवृद्धि होती है। विज्ञानवेत्ता भी इस सत्य को स्वीकारते हैं कि जिस घर में तुलसी के पौधे बहुतायत में हो, वहाँ रोगाणुओं का जमघट नहीं रहता और प्राणशक्ति की बढ़ोत्तरी होती है।

तुलसी की ही तरह नीम भी हम सबके जीवन में बहुत पास-पास नजर आता है। वनस्पतिशास्त्र में इसे अजाडोराक्टा इंडिका कहते हैं। संस्कृत में इसे निम्ब, तिक्तक आदि कहते हैं। उड़िया में नीम, बंगला में निमगाछ, कन्नड़ में बेब, गुजराती में लींबड़ा, तमिल में बेब, तेलुगु में वेपुयमयम कहते हैं। नीम भारत के सभी प्राँतों में पाया जाने वाला भारतवासियों का बहुत ही सुपरिचित वृक्ष है।

औषधीय गुणों की दृष्टि से नीम प्रतीशक, हल्का, ग्राही, चरपरा, वात, ज्वर, पित्त, कफ, कुष्ठ रोगों का नाश करता है। इसके बीज में 40 प्रतिशत तेल होता है। नीम का तेल कडुआ, कृमिनाशक होता है। इस तेल का उपयोग चर्म रोग, यकृत रोग, गलित कुष्ठ पर किया जाता है। नीम की छाल व पत्ते कडुए लेकिन बलकारक, ज्वर-निवारक एवं कमजोरी दूर करने वाले होते हैं। इसकी छाल को पानी में मिलाकर पीने से पेट साफ होता है और आँखों की जलन में भी राहत मिलती है।

नीम से पत्ते नेत्रों के लिए हितकारी, कुष्ठ, कृमि में लाभदायक एवं विषनाशक है। इन्हें चर्म रोगनाशक भी माना गया है। पानी में नीम के पत्ते उबालकर स्नान करने से फोड़े-फंसी, खाज-खुजली आदि विभिन्न चर्मरोगों में काफी फायदा पहुँचता है। नीम के पत्तों का रस कुछ दिन पीने से रक्त-शोधन होता है। पानी में उबाले गए नीम के पत्तों से पाँव धोने से थकान दूर होती है। नीम की हरी पत्तियाँ चबाकर कुल्ला करने से मुँह की दुर्गंध दूर होती है। सोते समय नीम का तेल शरीर पर मलने से कीड़े-मच्छर आदि नहीं काटते। नीम की सुख पत्तियाँ-टहनियाँ जलाकर धुआँ करने से मच्छर एवं अन्य कीट-पतंगे भाग जाते हैं।

वनौषधियों के इस क्रम में आँवला हर कहीं सहजता से मिलने वाली औषधि है। इसका वनस्पति शास्त्रीय नाम ‘एम्बिका आँफिसिनैलिस’ है। फ्रांसिस, चरैया, बनारसी, कृष्णा, कंचन आदि इसकी प्रमुख किस्में है। पौष्टिकता की दृष्टि से भरपूर आँवला में विटामिन-सी काफी मात्रा में विद्यमान रहती है। शरीरविज्ञानियों का मत है शरीर में विटामिन-सी के अभाव से स्कर्वी जैसे घातक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसकी कमी से मसूड़ों में सूजन आती है तथा उनसे रक्त भी निकलने लगता है। इसके परिणामस्वरूप मसूड़े ढीले पड़ जाते हैं, दाँतों में दर्द होने लगता है तथा पायरिया होने का खतरा बढ़ जाता है। विटामिन-सी ही इन सबकी एकमात्र कारगर औषधि है। विटामिन-सी रक्त में कोलेस्टरोल की मात्रा को कम करती है। यह रक्त की कोशिकाओं को पुष्ट एवं लचीला बनाती हैं।

ताजे आँवले में इस विटामिन-सी की प्रचुरता रहती है। वैसे भी ताजा आँवला स्वयं में एक गुणकारक औषधि है। यह मूत्रप्रणाली को ठीक रखने में सहायक होता है। सुखाए गए आँवले पेचिश एवं डायरिया में बहुत उपयोगी होते हैं। आँवले के फल में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका विटामिन-सी उबालने और सुखाने पर भी नष्ट नहीं होता। च्यवनप्राश एवं त्रिफला जैसी महत्वपूर्ण औषधियों में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

कच्चे आँवले को दूध एवं नाश्ते के साथ खाना बहुत लाभदायक होता है। ताजे आँवले को दाँत से काटकर खाने से दाँत पुष्ट होते हैं। आँवले के पानी से बाल धोने से बाल लंबे, घने एवं काले होते हैं। कब्ज को दूर भगाने के लिए आँवला का वरदान की तरह है। यह शरीर के बिगड़े हुए आमाशय को ठीक करता है। आँवले के चूर्ण को नियमानुसार भोजन के बाद सेवन करने से दिमाग तेज होता है। नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। इससे श्वास के रोगों में आराम मिलता है और रक्त शुद्ध होता है। आँवला शरीर में रक्त-संचार को प्रभावी ढंग से ठीक करता है। इससे जिगर स्वस्थ रहता है एवं पाचनक्रिया ठीक रहती है।

लौंग जिसे हम अपने सामान्य जीवनक्रम में बहुत अच्छी तरह जानते हैं, एक गुणकारी औषधि भी है। रासायनिक विश्लेषण करने पर प्रति 100 ग्राम लौंग में 45.30 मि.ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 5.5 मि.ग्रा प्रोटीन, 0.74 मि.ग्रा. कैल्शियम, 100 मि.ग्रा. फास्फोरस, 48.8 मि.ग्रा. आयोडीन एवं विटामिन डी. मिलता है। गुणवत्ता के आधार पर अच्छी लौंग उसे माना जाता है, जिससे ज्यादा तेल होता है।

आयुर्वेद शास्त्रों के अनुसार लौंग चटपटी, कड़ुई होने के साथ नेत्रों के लिए लाभकारी, उद्दीपक, पाचक, रुचिकारक, पित्त, कफ दोषों को हरने वाली होती है। यह श्वास, खाँसी, क्षय रोग, रक्तदोष, ज्वर, चमन आदि में भी लाभदायक पाई गई है। यह श्वेत रुध्रि कणिकाओं को बढ़ाने का विशेष गुण रखती है। इसी कारण इसमें घावों को भरने और उन्हें जल्दी ठीक करने की एक विलक्षण शक्ति है। भोजन के बाद लौंग चूसने से मुँह और साँस की दुर्गंध नष्ट होती है। दाँत और मसूड़े मजबूत होते हैं। इससे भोजन ठीक तरह से पचता है। गले की खराश, हिचकी और जी मिचलाने आदि में भी लौंग चूसने से लाभ होता है।

ये तो कुछ उदाहरण भर है, जो ऊपर दिए गए हैं। इनसे हमें यह पता चलता है कि हमारे अपने आसपास पाई जाने वाली वृक्ष-वनस्पतियों में कितनी रोग-निवारक शक्ति है। प्रकृति हमारी अपनी माँ की तरह है, उसने विविध वनस्पतियों के रूप में हमारे सभी तरह के कष्ट-पीड़ाओं के निदान-समाधान हमारे पास ही जुटा रखे हैं। देर है तो बस हमारे अपनाने की, इन्हें प्रयोग में लाने की। विविध वनस्पतियों से अपने रोगों का निदान मात्र लोक-परंपरा भर नहीं है। यह एक उन्नत वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। आधुनिक शोध-अनुसंधान से भी यही निष्कर्ष सामने आए हैं कि खतरनाक समझे जाने वाले रोगों का इलाज भी इन वनस्पतियों से सफलतापूर्वक किया जा सकता है। तभी तो वनौषधि चिकित्सा पाश्चात्य देशों में भी तेजी से लोकप्रिय हो रही है। फिर हम अपनी ही विभूति से अपरिचित क्यों? समझदारी इसी में है कि हम अपने आसपास पाई जाने वाली वनौषधियों के महत्व को समझें और उन्हें उपयोग में लाएँ। इनसे स्वयं भी लाभान्वित हों एवं दूसरों को भी लाभान्वित करें।


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