हम कहीं भी रहें, सभी पर प्यार उड़ेलते रहेंगे

September 2000

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(परमवंदनीया माताजी के महाप्रयाण दिवस पर विशेष)

आश्विन मास प्रायः सितंबर माह में ही आता है। यही वह समय है, जिसे हर वर्ष पारिवारिक स्तर पर शक्ति-स्वरूपा माताजी आश्विन कृष्ण त्रयोदशी को परमपूज्य गुरुदेव के जन्मदिवस के रूप में तथा परमवंदनीया माताजी के जन्मदिवस के रूप में आश्विन कृष्ण चतुर्थी को पूज्यवर साँकेतिक ढंग से मनाते थे। दोनों ही दिन प्रातः ब्रह्ममुहूर्त के दो घंटे प्रतीकात्मक भेंटों के आदान-प्रदान तथा उसे पूज्य-प्रक्रिया में निकलते, जिसे बाहर बहुत कम लोग जानते हैं। दो महान् सत्ताओं का एक−दूसरे के प्रति समर्पण कितना उच्चस्तरीय होता है, उसे हमने देखा व आत्मसात किया है। एक कष्ट की बात यह कि हमारी मातृसत्ता ने इसी मास के शुभारंभ महालय भाद्रपद पूर्णिमा को अपने स्थूल शरीर के महाप्रयाण हेतु भी चुन लिया। सारा निर्धारण पूर्व से हो गया था। शारीरिक कष्ट से लेकर पीड़ित-उपचार के प्रयास निमित्त मात्र बने थे। आज छह वर्ष बीतने पर भी सभी कुछ मानो आँखों के सामने एक दृश्यचित्र-फिल्म की रील की तरह घूम जाता है।

कुरुक्षेत्र अश्वमेध यज्ञ के पूर्व एक सप्ताह की लंबी दूरी तब बड़ी कष्टप्रद लगने लगी थी, जब 1664 के मार्च माह में अमेरिका प्रवास पर जाना पड़ा था। लौटते समय सीधे कुरुक्षेत्र आने का आदेश मिला, जहाँ पंद्रहवाँ अश्वमेध यज्ञ अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में आयोजित था। नई दिल्ली उतरते ही सीधे कुरुक्षेत्र पहुँचना था, जहाँ परमवंदनीया माताजी पूर्व से ही जीजी से साथ पहुँच चुकी थीं। प्रायः बीस दिन बाद उन्हें देखा तो लगा कि परमवंदनीया माताजी इस बीच काफी बदली-सी लग रही हैं। शरीर में उत्साह तो वैसा ही है, जैसा पूर्व में था। प्रभा मंडल भी बढ़ा हुआ है, परंतु मन बार-बार कहीं और चला जाता है। काफी देर तक वे परमपूज्य गुरुदेव के चित्र को देखती रहतीं। मौन बैठी रहतीं। दो-तीन बार पूछा भी तो उनने हाथ आगे कर दिया। कहा, सब ठीक है, तुम नब्ज़ देख लो। हँसी वही, मस्ती वही, ममत्व वही, परंतु लगता था मन उचट-सा हो रहा है, बार-बार कहीं और चला जाता है।

अश्वमेध यज्ञ कुरुक्षेत्र में ही आज के कई दिग्गज राजनीतिज्ञ आशीर्वाद प्राप्त करने परमवंदनीया माताजी के पास पहुँचे थे। आज वे सभी कहीं भी दृश्य रंगमंच पर नहीं दिखाई देते, तो मात्र इसी कारण कि परमवंदनीया माताजी के पाँच मिनट के एक अंतरंग परामर्श को वे आत्मसात नहीं कर पाए। इसी महायज्ञ में एक अवधि ऐसी मिली, जिसमें समय थोड़ा खाली था। सोचा, पास में चंडीगढ़-पिंजौर बाग जैसा क्षेत्र है, उसे दिखा लाते हैं, तो माताजी स्वयं बोलीं कि प्रणव! कहीं पास में कोई ऐतिहासिक स्थान और है क्या! याद आया स्वयं कुरुक्षेत्र एक ऐतिहासिक स्थल है। वह जगह भी है जहाँ श्रीकृष्ण ने गीता का संदेश दिया, एक स्थान पर महादेव का मंदिर भी है, महाबली कर्ण के द्वारा बनाई गई एक झील भी है। वंदनीया माताजी के अनुसार कर्ण की बनाई झील ही जाने का उनका मन था, जहाँ अधिक

भीड़ न हो, बस अपने ही कुछ परिजन हों। प्रायः पचास किलोमीटर दूर स्थित इस नीरव सुँदर स्थान पर पहुँचते- पहुँचते काफिला थोड़ा लंबा हो गया। दस-बारह गाड़ियाँ हो गई व जब वहाँ जाकर किनारे बैठे तो माताजी का मन हुआ कि नाव में सभी को वे घूमते देखना चाहती हैं। परिवर्तन के लिए हमने वंदनीया स्नेह-सलिला माँ से प्रार्थना की कि वे भी हमारे साथ नाव में चलें। आपने आग्रह मान लिया और करीब पौन घंटे वे पैडल ‘बोट में झील में आनंद लेती रहीं। सभी कुछ बहुत हलकेपन से भरा-अवतारी चेतना के दैवी लीला संदेह का एक अंग लग रहा था, पर कहीं कुछ ऐसा था, जिससे आभास होता था कि माताजी यहाँ न होकर कहीं और हैं। थोड़ी देर वहाँ एकाँत मिला। पूछा तो वे बोलीं कि कुछ नहीं बेटा! अब हर क्षण उन्हीं की (परमपूज्य गुरुदेव की) याद आती रहती है। उन्हीं पलों की प्रतीक्षा कर रहीं हूँ कि कब उनसे जा मिलूँ। हमने कहा, माताजी! आप यह क्या कह रही हैं। अभी तो हमने चलना भी नहीं सीखा। आपका आँचल पकड़कर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में आप इस तरह सोचेंगी तो कैसे काम चलेगा। माताजी ने देखा, वातावरण भारी हो रहा है, तो तुरंत हलकापन लाते हुए बोली, शैलो! कुछ खाने-जीने की चीजें साथ नहीं लाई क्या। जो कुछ भी था, वह चालीस-पचास लोगों में बाँट दिया। मुक्त हस्त से हँसते हुए कखजामं रनिनों, सलाह पर अपना प्यार लुटाने का वह स्वरूप पुनः जीवंत हो गया। थोड़ी देर में लौट आए। शप को दीप यज्ञ के बाद ही हरिद्वार लौट गए।

स्मृतियाँ बार-बार रुलाती हैं। लौट-लौटकर वे न आएँ यही उचित है, ऐसा मानकर कहा जाता है कि उस समय दिमाग कहीं और नियोजित कर दिया जाए। पर यह सब कैसे संभव हो, जब अपनी आराध्य सत्ता-जग जननी वंदनीया माताजी की बात आती हो। कुरुक्षेत्र अश्वमेध एवं चित्रकुट अश्वमेध के बीच मात्र 10-12 दिन का अंतर था। कुरुक्षेत्र? तो हरिद्वार के पास था, सड़क से ही यात्रा हो गई थी। चित्रकूट तो इसी प्राँत में, पर दूसरे कोने पर मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश की सीमा पर सतना (म॰प्र॰) व बाँदा (उ॰प्र॰) जिने ककी लगती हुई सरहदों पर। व्यवस्था की गई कि शासकीय विमान हवाई जहाज परमवंदनीया माताजी को अतिथि के रूप में लेकर सतना उतरेगा एवं यहीं फिर वापस लाएगा। कुरुक्षेत्र से आने के बाद ही परमवंदनीया माताजी बहुत कुछ अपने में लीन रहने लगी थीं। अक्सर वे संगीत वाले कार्यकर्ताओं को बुलाकर भजन रिकॉर्ड कराने लगने लगती। बहुत से गीत जो अब प्रातः चरण पादुकाओं पर प्रणाम के समय अथवा पर्वों पर परमवंदनीया माताजी के स्वर में सुनाई देते हैं, ये सभी उनकी उस भाव प्रधान स्थिति में रिकॉर्ड किए गए हैं। “हे नाथ! याद तेरी पल-पल सता रही है”, “प्रभू तुझ में मैं मिल जाऊँ”, “तुम्हीं हो प्राण हम सबके, हमारी चेतना हो तुम”, “मेरा उपाय तो प्रतिपल मेरे पास है”, “आज मेरा मन तुम्हारे गीत गाना चाहता है”- जैसे गीत जब भी बजे तक हैं, मातृसत्ता के अंदर की पीड़ा की याद दिला देते हैं। प्रायः ढाई सौ से अधिक गीता वंदनीया माताजी के स्वरों में रिकॉर्डेड हैं। इससे ही ज्ञात होता है कि गुरुवर से विलग होने के बाद उनका अंतरतम कितना तादात्म्य उनकी सूक्ष्म सत्ता के साथ ले चुका था।

चित्रकूट अश्वमेध यज्ञ 16 से 20 अप्रैल 1334 की तारीखों में था। हवाई जहाज छोटा-सा था, लगभग चार सीटों का। विमान जाँल ग्राण्ट हवाई पट्टी से दिल्ली होकर सतना जा रहा था। अचानक विमान के हवा में पहुँचते ही परमवंदनीय माताजी बोल उठीं, यह मेरी अंतिम यात्रा है। अब संभवतः मैं किसी कार्यक्रम में नहीं जा पाउँगी। हमने बिना समझे सुधारते हुए कहा, हाँ! माताजी विमान से यह अंतिम यात्रा हैं। इसके बाद तो भिण्ड (म॰प्र॰) एवं शिमला दोनों ही स्थानों पर सड़क मार्ग से ही जाया जा सकेगा। माताजी बोलीं, “बेटा! अब इन आयोजनों से जाना नहीं होगा, यह कह रही हूँ। यह अंतिम कार्यक्रम है।” बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह कैसे होगा ? सभी जगह प्रचार हो चुका है कि परमवंदनीय माताजी पहुँच रही हैं। माताजी को भी अहसास हुआ कि वे जो कह रही हैं, उससे आघात लगेगा। उनने माहौल को हलका बनाते हुए कहा कि अभी तो चित्रकूट जा रहे हैं। बाद की चर्चा से क्या करना। देखो! भगवान् राम पुष्पक विमान से अयोध्या लौटे थे, तो उन्हें हनुमान् जी सब बताते लाए थे कि कहाँ-कहाँ उनने क्या किया। तुम बताओ जितना ऊपर से देख सको, कहाँ-कहाँ क्या है? चर्चा का प्रवाह बदल गया एवं बात मिशन के लघु से विराट् तक पहुँचे स्वरूप पर जा पहुँची।

सतना पहुँचने के बाद से वापस आने तक परमवंदनीया माताजी की मनःस्थिति भाव प्रधान ही रही। चित्रकूट तीर्थ का एक स्थान उनने जी भरकर देखा। प्रत्येक में अपने आराध्य की झलक पाई। शारीरिक अशक्तता के बावजूद वे कामदगिरी भगवान् की ड्यौढ़ी तक गईं, मंदाकिनी के तट पर बैठीं एवं गुप्त गोदावरी गई। जब गुप्त गोदावरी में ऊपर जाने की इच्छा परमवंदनीया माताजी ने प्रकट की, तो परिजनों ने जल्दी से एक डोली की व्यवसायिक की व अपने कंधों पर उठा लिया मातृशक्ति की आँखों में आँसू थे बार-बार कहतीं, “मेरे बच्चों! तुम्हें बड़ा कष्ट हो रहा है। अब यहीं उतार दो।” ऐसा कहते-कहते बोल उठीं, “अब उठा तो लिया है, ऐसे ही कंधों पर सीधे अपने आराध्य के पास शीघ्र जाना भी तो है।”

आज छह वर्ष बाद ये सब बातें याद आती हैं, तो अंतरात्मा अंदर तक भग जाता है। कितना कष्ट उठाया उनने औरों की पीड़ा अपने पर ओढ़कर। यह कल्पनातीत बात है। परमवंदनीया माताजी 20 अप्रैल को लौटने के बाद धीरे-धीरे अपनी चेतना की शक्ति को सूक्ष्मीकृत करती रहीं व अंततः 13 सितंबर को उनने भी इसे स्थूल काया से महाप्रयाण कर स्वयं को सूक्ष्म में विलीन कर दिया। इसी वर्ष अगस्त माह में प्रकाशित एक संपादकीय ‘एक माँ की अंतः वेदना एवं अपेक्षा भरी गुहार’ के माध्यम से पाठकों-परिजनों तक परमवंदनीया माताजी की अभिव्यक्ति पहुँची। इसके तुरंत बाद ही पटाक्षेप हो मया।

इस वर्ष की भाद्रपद पूर्णिमा (23 सितंबर, बुधवार) आ पहुँची। परमपूज्य गुरुदेव के 1671 में दृश्यपटल से पीछे जाने के बाद उनने एक ही चीज बाँटी, प्यार-अपनत्व-ममता। बिना किसी प्रतिफल-अनुदान की अपेक्षा के कोई इतना प्यार भी कर सकता है, यह शक्तिस्वरूपा माताजी के जीवन में देखा जा सकता है। उनकी एक ही बात याद आती है जो विरासत में वे हमें दे गई हैं, “हम कहीं भी रहें, शरीर रहे अथवा न रहे, धरती पर रहें या किसी और लोक में, अपने बच्चों पर ममत्व-करुणा उड़ेलते रहेंगे।” महापूर्णाहुति की वेला में इन्हीं शब्दों की याद कर क्या हम थोड़ा-वाणी व व्यवहार में डाल सकते हैं। यही तो होगी, सच्ची श्रद्धाँजलि शक्ति-संवाहिका मातृसत्ता के प्रति।


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