आत्मिक क्षेत्र में प्रामाणिकता का अभ्यास

September 2000

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शुद्धतम रूप में ‘सत्य’ एक वायवी आदर्श है। अध्यात्म-दर्शन केवल परमात्मा को ही सत्य मानता है। अपने आचरण से ईश्वर ही व्यक्त हो, तभी सत्य का पालन हुआ मान सकते हैं, जीते जी अथवा मरने के बाद भी किसी के आचरण-व्यवहार में ईश्वर व्यक्त हुआ हों, इसके प्रमाण नहीं मिलते। सिद्ध योगियों, ऋषि चेतनाओं और अवतारी सत्ताओं के जीवन आचरण में वह भले ही व्यक्त होता हो, लेकिन हम यहाँ सत्य के साधना-पक्ष की चर्चा कर रहें हैं। योगसाधना में जिन यम-नियमों का उल्लेख किया गया है, उनमें सत्य का स्थान दूसरे क्रम पर आता है। प्रचलित व्याख्या में सत्य का स्थान दूसरे क्रम पर आता है। प्रचलित व्याख्या में सत्य का अर्थ जैसा अनुभव किया गया हो, वैसा ही व्यक्त करना है। यह अर्थ साधन-क्षेत्र में कम ही सहायक सिद्ध होता है। मन गलत भी तो अनुभव कर सकता है, वह भ्रमित भी हो सकता है। यह भी जरूरी नहीं कि मन जैसा अनुभव कर रहा हैं, वैसा व्यक्त करने की कला सभी को आती हैं। कहते-व्यक्त करने की कला नहीं आती हो तो सत्य का निर्वाह नहीं होता। फिर जैसा अनुभव किया था, कहने पर सुनने वाला होता। फिर जैसा अनुभव किया था, कहने पर सुनने वाला उसी अर्थ को ग्रहण कर ले, यह भी जरूरी नहीं हैं। सुनने वाला गलत अर्थ भी ग्रहण कर सकता है।

सत्य का आदर्श रखा जा सकता है, लेकिन उसे व्रत-अनुशासन की तरह नहीं निभाया जा सकता। मूलतः वह एक भाव हैं, जिसमें सत्य को बिना किसी विकार के अनुभव और व्यक्त किया जाता है। अध्यात्म या वेदाँत की दृष्टि से सत्ता सिर्फ भगवान् की ही है। शेष सब विकार या मिथ्या है। यह दृष्टि विकसित हो तो योग-वेदाँत का उच्चतम लक्ष्य मिल गया। लक्ष्य जब तक नहीं मिले, तब तक व्यवहार में सामंजस्य बैठाकर ही चलना पड़ता है।

व्यावहारिक जीवन में ‘सत्य’ का अर्थ है, प्रामाणिकता। जो कुछ कहा और किया जाए, उसमें दुराव या छल न हो। जब किसी से तथ्यों को छिपाने और अपने स्वार्थ के लिए या स्वभाव में बैठे दोष विकारों के लिए अकारण ही दूसरों को भरमाया जाता है, तो छल होता है। किसी गहरी विकृति के प्रभाव से अकारण ही लोग छल-कपट करते हैं, तो ज्यादा चिंता नहीं की जानी चाहिए। विकार ठीक होते ही व्यक्ति अपना स्वभाव सुधार लेगा। लेकिन छल का सहारा निहित स्वार्थ के लिए लिया जाए, तो वह पतन का गहरा गर्त है।

झूठ का संबंध प्रायः वाणी से ही है। मिथ्यावादी का मतलब भी झूठ बोलने वाला ही है। बोलने के अलावा व्यवहार और कर्म में असत्य की मिलावट हो जाए, तो उसे छल कहते हैं। आरंभ वाणी की साधना से ही करना पड़ता है आरंभ अपने और दूसरों के बारे में चर्चा से करना चाहिए। बातचीत के तीन-चौथाई विषय वार्तालाप में लगे दो व्यक्तियों में प्रत्येक स्वयं और तीसरा कोई अन्य ही होता है। चर्चा का स्वरूप अपनी स्थापना और दूसरों को रद्द करने जैसा होता है। बातचीत कर रहे व्यक्ति या तो अपनी प्रशंसा कर रहे होंगे अथवा दूसरे या वहाँ अनुपस्थित व्यक्ति की निंदा।

जब हम अपनी प्रशंसा करते हैं तो अपनी मामूली सफलताओं और गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। घटनाओं और स्थितियों को अतिरंजित कर देखने को वृत्ति दूसरों को भ्रम-भुलावे में डालती हैं या नहीं, अपने आपके बारे में स्वयं को जरूर भरमा देती है। बढ़ा-चढ़ाकर की गई अपनी चर्चा आसपास ‘पाखंड’ की रचाना कर देती है। जो नहीं हैं, उसे व्यक्त करने के जाल-जंजाल में एक बार उलझ गए तो यथार्थ जगत् में वापस लौटना मुश्किल हो जाता है। किए गए दावों और तारीफों के पुल कायम रखने के लिए नित-नई तिकड़म लड़ानी पड़ती है।

सत्य को व्यवहार में उतने, ‘चित्त-वृत्तियों के निरोध’ रूप योग के लक्ष्य को प्राप्त करने अथवा ईश्वर को अपने जीवन में प्रतिष्ठित करने का प्रारंभिक नियम यह है कि जहाँ तक हो अपनी प्रशंसा कभी नहीं करना। इसी नियम का दूसरा भाग हैं, दूसरों की निंदा नहीं करना। अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा नहीं करने का नियम यमनियमों की साधना का शुभारंभ है। इस अभ्यास को ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ हटने और अच्छी तरह समझ-सीख लेने के बाद आगे बढ़ने की तरह महत्व दिया जाना चाहिए। ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ नहीं सीखेंगे, तो अगले कोई पाठ नहीं पढ़े जा सकेंगे, ‘आत्मप्रशंसा’ और ‘परनिंदा’ से नहीं बचेंगे तो सत्य के अगले चरणों में भी प्रवेश संभव नहीं होगा।

अपनी प्रशंसा में जिस तरह अपने गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर देखा जाता है, उसी तरह परनिंदा में दूसरों की विशेषताओं और कृत्यों को काट-छाँटकर देखा जाता है। दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर कहने और गुणों को अनदेखा करते हुए ही परनिंदा संभव होती है। निंदा-आलोचना का उद्देश्य ही दूसरे को छोटा करके देखना और अपना महत्व-मूल्य बढ़ना है। बड़प्पन की एक विधि तो यह है कि अपने भीतर गुणों और योग्यताओं का विकास किया जाए। उस आधार पर अपने आपको बड़ा सिद्ध किया जाए। यह रास्ता कठिन है। आसान यही लगता है कि दूसरों को छोटा, हेय, दुर्गुणी बताया जाए। अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा-आलोचना से बड़ा बनने का ‘शोर्टकट’ किसी कक्षा में नहीं पहुँचाता। आत्मिक प्रगति की दिशा में कुछ कदम बढ़ाने के बजाय यह प्रवृत्ति हजारों कदम पीछे धकेल देती है।

अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने पर वृत्ति पर थोड़ा अंकुश लगा लिया जाए, तो प्रामाणिकता की मंजिल एक हद तक पा ली गई समझना चाहिए। ‘जान-बूझकर’ असत्य नहीं बोलने’ का नियम इसके बाद आता है। आत्मप्रशंसा और परनिंदा पर यथासंभव नियंत्रण कर लेने के बावजूद झूठ बोलने के कई अवसर आते हैं। किसी वस्तु, उत्पादन और उपाय के बारे में अनावश्यक दावे कना भी गलत है। कहा जा सकता है कि वस्तुओं और उत्पादों में जो गुण नहीं है, उनका विज्ञापन किए बिना बाजार में काम नहीं चलता। बाजार में टिकने के लिए झूठ बोलना और झूठी विज्ञापनबाजी करना बेहद जरूरी है।

व्यापार-व्यवसाय में विज्ञापनबाजी या झूठी तारीफें करने की बात बहुत आगे की है। प्रारंभिक स्तर पर इतना ही अभ्यास कर लिया जाए कि सामान्य व्यवहार में झूठ न बोलें। लोग सामान्य दिनचर्या में भी मिथ्या बोलने लगते हैं। सोने, जागने, काम करने, आमदनी बताने, कोई सूचना देने में भी कई बार चालाकी बरती जाती है दिए गए वक्तव्य तब खोखले और झूठ ही साबित होते हैं।

प्रयत्न किया जाए कि अपने पास जो सूचना उपलब्ध है, वह उसी रूप में दी जाए। उसमें न कुछ मिलाया जाए और न ही अनावश्यक रूप से काट-छाँट की जाए। किसी विषय में यदि कोई जानकारी नहीं हो तो उसका दावा नहीं किया जाए। गलत जानकारी देने के बजाय ‘नहीं मालूम” कह देना अच्छा है। यह नीति गली-मोहल्ले में किसी का पता बताने से लेकर दर्श्यान और अध्यात्म के क्षेत्र में सूक्ष्म चर्चाओं तक सभी विषयों में अपनानी चाहिए।

क्रोध आने पर चुप रह जाना या किसी और रूप में व्यक्त नहीं करना आमतौर पर मनोवेगों पर नियंत्रण की साधना में आता है। सत्य की साधना में इस अभ्यास को सम्मिलित करने का अर्थ हैं, आँतरिक सुदृढ़ता का विकास। मानसिक दृष्टि से बली हुए बिना सत्य के तेज को धारण नहीं किया जा सकता। क्रोध आने पर चुप रह जाने का नियम मानसिक शक्ति को इस तरह ढालता है कि वह अप्रिय स्थितियों को झेल सके।

विचार किया जाना चाहिए कि क्रोध क्यों आता है? अपने अनुकूल स्थिति न होने पर, अप्रिय व्यवहार देखकर या आशा-अपेक्षा के विपरीत घटनाएँ घटने पर चित्त उबल पड़ता है। सत्य यह है कि औरों को अपने हिसाब से चलाने की इच्छा और इस इच्छा में बाधा पड़ने पर ही मन कुपित होता है। दूसरों को अपनी इच्छा-अपेक्षा के अनुसार चलाने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। यह अधिकार जताया जाता है, तो संसार जिन नियमों से चल रहा है, उन्हें उलटने की कामना की जाती है। यह कामना सत्य के आदर्श की अवहेलना ही कही जानी चाहिए।

शुरुआत में ही क्रोध को त्याग देने का कठिन परामर्श नहीं दिया जा रहा। अप्रिय स्थितियों में मन क्षुब्ध हो रहा हो, रोष उत्पन्न होता हो या उथल-पुथल मचा देने का आवेश उमड़ने लगे तो चुप होकर बैठ जाएँ। न कुछ बोले, न प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पाँच मिनट, दस मिनट, पंद्रह मिनट तक शाँत होकर ही बैठे रहें। बहते हुए साफ पानी में किसी पशु के छलाँग लगाकर निकल जाने पर तह में जमी हुई गंदगी उठ आती है। वह कुछ देर तक पानी में छाई रहती है। कुछ समय बीतने पर मलीनता वापस बैठ जाती है और पानी पहले की तरह ही स्वच्छ-निर्मल बहने लगता है। भगवान् बुद्ध ने चित्त के विक्षेपों को शाँत पानी में मची हुई उछल-कूद का प्रभाव बताया है। प्रवाह अपने आप उस जल को स्वच्छ कर देता है। अप्रिय स्थितियों की प्रतिक्रिया भी चुपचाप सहन कर ली जाए। कुछ मिनटों में चित्त पहले की तरह शाँत-निर्मल हो जाएगा। इस स्थिति को प्राप्त हुआ चित्त सत्य की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गया होगा।


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