अनुभूतियों की चैतन्यमयी-रहस्यमयी दुनिया

September 2000

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मूल चेता यों तो शुद्ध, बुद्ध, पवित्र है, पर वह जब जीवसत्ता के रूप में अभिव्यक्त होती है, तो जीवात्मा की मलीनताओं और कुसंस्कारों के कारण उसका वह स्वरूप वैसा प्रखर नहीं रह जाता, जैसा वास्तव में वह है। इसी कारण मनुष्य का व्यवहार, विचार और शक्ति साधारण प्रतीत होती है, किन्तु कई बार कुछ विशिष्ट स्थितियों में जब वह अपने मूल स्वरूप को प्राप्त होती है, तो आश्चर्यचकित करने वाली अनुभूतियों की उद्गम बन जाती हैं। आए दिन घटने वाली घटनाएँ इसकी साक्षी हैं।

प्रसंग सन् 1164 का है। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मुज मरे विश्व-भ्रमण पर निकले हुए थे। उन्हीं दिनों अचंभित करने वाली एक घटना घटी, जिसकी चर्चा अपनी पुस्तक ‘शेयरिंग दि क्वेस्ट’ में करते हुए लिखते हैं कि यात्रा के दौरान वे बहुत ही मानसिक विक्षोभ से गुजर रहे थे। इसी क्रम में एक दिन साइप्रस के लीमासोल बंदरगाह पहुँचे।

क्षणार्द्ध में ही वे ग्रह-नक्षत्रों के बीच मौजूद थे, तभी उन्हें अपने दिव्य अस्तित्व का भान हुआ। वे लाखों-करोड़ों मील ऊपर अंतरिक्ष में चक्कर काट रहे थे, जहाँ ग्रह-पिंडों को देखा जा सकता था। रहस्य परत-दर-परत खुलते चले जा रहे थे।

तब तक शाम हो चुकी थी। उन्होंने एक ग्रीक भोजनालय में भोजन किया और सागर की ओर चल पड़े। अन्य दिनों की तुलना में वे आज अधिक शाँति और प्रसन्नता महसूस कर रहे थे। समुद्र-तट पर पहुँचकर वे अस्ताचल की ओट में छिपे सूर्य से निस्सृत होने वाली रश्मियों को सागर-जल में निहारने लगे, तभी उन्हें मस्तिष्क में आश्चर्यजनक दबाव अनुभव हुआ, ऐसा लगा जैसे किसी ने उसकी खोपड़ी सुन्न कर दी हो। अब अस्तित्व संबंधी उनका बोध परिवर्तित हो गया। वह स्वयं को द्रववत् सत्ता वाले महसूस करने लगे। इसी क्षण अवर्णनीय रोमांच के साथ ऐसी प्रतीत हुआ, माना सम्पूर्ण विश्व उनके अंदर समा रहा हो या शायद अंतस्तल के किसी केन्द्र-बिंदु से वह बह निकल रहा हो। उनकी चेतना जल, थल, हर दिशा में व्यापक होकर संपूर्ण अंतरिक्ष में व्याप्त हो गई। क्षणार्द्ध में ही वे ग्रह-नक्षत्रों के बीच मौजूद थे, तभी उन्हें अपने दिव्य अस्तित्व का भान हुआ। वे लाखों करोड़ों मील ऊपर अंतरिक्ष में चक्कर काट रहे थे, जहाँ ग्रह-पिंडों को देखा जा सकता था। रहस्य परत-दर-परत खुलते चले जा रहे थे। इसकी गति इतनी तीव्र थी कि उनका सामान्य मस्तिष्क उन्हें अपने अंदर सहेज सकने में असहाय और असमर्थ था। वह केवल उस उत्फुल्लता को ही अनुभव कर सका, जो इस दौरान उद्भूत हुई।

इसी प्रकार के एक अनुभव का उल्लेख काँलिन विल्सन ने अपनी कृति ‘बियोण्ड दि ऑकल्ट’ में किया है। वे लिखते हैं कि पूर्व में ऐसा तीव्र और अभिभूत करने वाला अनुभव उन्हें कभी नहीं हुआ। हाँ, बचपन से ही उनमें एक विशेषता अवश्य थी कि वे अक्सर ऐसी मनोदशा में पहुँच जाते थे, जहाँ इतनी प्रफुल्लता और आनन्द का एहसास होता, जिसे साधारण नहीं कहा जा सकता था। अब्राहम मैस्लों ने इसे ‘चरम अनुभव’ की संज्ञा दी है। ऐसे ही एक क्षण वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि तब वे उन्नीस वर्ष के थे और स्ट्रासबर्ग की यात्रा कर रहे थे एक भोजनालय में ताजा भोजन किया और थोड़ी शराब पी। अब तक उन्हें यह बात खाए जा रही थी कि इतने कम पैसों में विदेश-भ्रमण कैसे होगा, लेकिन जैसे ही भोजनालय से भोजन कर वे बाहर निकले एवं सामने के गाँव के उस पार पर्वत को देखा, तो एक अद्भुत आनंद की अनुभूति हुई। वह इतनी संपूर्ण थी कि उसमें उनकी सारी चिन्ताएँ और परेशानियाँ विलीन हो गई। उन्हें ऐसा महसूस हुआ, जैसे व शरीर से पृथक होकर अपने जीवन का पर्यवेक्षण कर रहे हो, वे कहते हैं कि हो सकता है इसमें शराब का भी कुछ योगदान हो, पर जो कुछ उन्हें आभास हुआ, उसे वे ‘अनुभव’ की तुलना में ‘दर्शन’ कहना ज्यादा पसंद करते हैं, कारण कि वह अनुभव से आगे कुछ और भी था, ऐसा उनका मानना है।

आखिर ऐसा क्यों होता है? इस संबंध में काँलिन विल्सन का मन है कि कदाचित् ये दिव्य क्षण इस बात के सूचक हों कि यह ज्ञान-प्राप्ति का एक ऐसा तरीका है, जो अनुभव द्वारा ज्ञान-ग्रहण की सामान्य विधि से भिन्न हैं और जिसमें चेतना का सीधा हाथ हो। जब व्यष्टि चेतना में यह प्रतिभा अचानक विकसित होती है, तब वह पदार्थ और प्राणी संबंधी उस यथार्थ ज्ञान की गहराई तक पहुँचने में समर्थ होती हैं, जो साधारणतः प्रच्छन्न होता है।

एक अन्य घटना सन् 1161 की है। इसका वर्णन करते हुए नोना काँक्सहेड अपने ग्रंथ ‘दि रिलिवैन्स ऑफ ब्लिस’ में लिखनी हैं कि डेरेक गिब्सन नामक एक व्यक्ति मोटरसाइकिल से अपने काम पर जा रहा था, तभी उसे लगा कि इंजन की ध्वनि अकस्मात् एकदम कम हो गई हैं। अभी वह इसके प्रति सतर्क हुआ ही था कि मालूम पड़ा, सब कुछ बदल चुका है। उसे पहले की ही तरह सब साफ-साफ दिखाई पड़ रहा था, किन्तु अब वह वस्तुओं के भीतर भी झाँक सकता था। उसने पेड़ों पर दृष्टिपात किया, तो वल्कल के नीचे और तने के अन्दर की संरचनाएं भी स्पष्ट होने लगी। घास वृहदाकार दिखलाई पड़ रही थी, उसकी आँतरिक बनावट हस्तामलकवत् स्फुट थी। माइक्रोस्कोप से देखे जाने योग्य सूक्ष्म जीवन भी बड़े आकार के प्रतीत हो रहे थे। वरन् वह स्वयं को उनके अन्दर स्पष्ट रूप से अनुभव कर रहा था।

उसकी दुनिया परी-लोक बन चुकी थी, जिसमें हरे और भूरे रंगों को बाहुल्य था। रंगों को देखने की तुलना में उनकी अनुभूति वह अधिक अच्छी तरह कर पा रहा था। उसे इस बात का भी स्पष्ट आभास हुआ कि उसका मन जो कुछ देख रहा है, वह वास्तव में अवलोकन नहीं, अपितु वह स्वयं उसे जी रहा है। ‘मैं’ का लोप हो गया तथा उसके मन में शक्ति एवं ज्ञान की धाराएँ तरंगित होने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे वह सब कुछ जानता हो। ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका उत्तर न दे सके, कारण कि वह भी इन्हीं का एक हिस्सा है।

एक मिलती-जुलती घटना प्रख्यात प्रोटेस्टेंट रहस्यवादी जैकव बोएहम से संबंधित है। उनके जीवनचरित ‘जैकब बोएहम, स्टडीज इन हिज लाइफ एंड टीचिंग्स’ में वेशप हैन्स एल. मार्टिन्सन लिखते हैं कि एक दिन वे अपने कमरे में बैठे हुए थे, तभी उनकी दृष्टि जस्ते की एक चमकती प्लेट पर पड़ी। सूर्य के प्रकाश में वह इतना अधिक चमक रही थी कि वे एक अद्भुत आंतरिक आनन्द जैसी मनोदशा में पहुँच गए। अब उन्हें ऐसा लगने लगा कि वे वस्तुओं के गहन अंतराल में उतर सकते और झाँक सकते हैं। इस स्थिति में पहले उन्हें लगा कि यह सब भ्रम है, पर पीछे जब मस्तिष्क से इस भ्राँति को निकालने के लिए वे बाहर आए, तो सामने ही हरा-भरा मैदान था। उसमें भाँति-भाँति की वृक्ष-वनस्पतियाँ और घास उगी थी। उन्होंने देखा कि वे उनके हृदय में भी निहार और प्रवेश कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकृति की वास्तविक समस्वरता के भी उसे वहाँ दर्शन हुए।

सन् 1157 में रूसी दैनिक ‘इजवेस्विया’ में एक समाचार छपा। यूलिया नामक एक महिला एक दिन अपने स्नानागार में नहा रही थी, तभी उसे सब कुछ घूमता नजर आया। उसे लगा जैसे स्नानागार चक्कर काट रहा हो। वह दीवार पकड़कर तत्काल बैठ गई। अब उसे प्रतीत हुआ कि वह स्वयं भी तेजी से घूम रही है। इसके उपराँत उसकी दृष्टि ऐसी हो गई कि वहाँ बैठे-बैठे संपूर्ण दुनिया को निहार रही हो। उसे सुदूर अंतरिक्ष के खगोलीय पिंड बिल्कुल स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। काफी समय तक वह नभमंडल के भिन्न-भिन्न ग्रह-गोलकों को देखती रही।

इस दौरान इच्छा करने पर वह हर एक ग्रह के अन्दर की खनिज-संपदा का भी ज्ञानार्जन कर लेती। वह उन्हें वैसे ही देख पाती, जैसे सामने रखी चीज को आँख बिना किसी असुविधा के देख लेती है। इस समय तक उसे कुछ होश नहीं था। अब एक बार फिर उसे अपने स्थूल शरीर का भान हो आया। इस स्थिति में उसने बंद बाथरुम के बाहर देखना चाहा, तो उसकी अप्रतिहत दृष्टि उसे न सिर्फ वस्तुओं के बाह्य कलेवर के दर्शन कराती, अपितु प्रत्येक की आत्मा का भी स्पर्श करती। कुछ समय बाद उसकी वह दृष्टि न रही और व पुनः सामान्य हो गई।

व्यष्टि चेता मनुष्य देह में सरोवर की तरह है। जब कभी उसके शुद्ध स्वरूप का उत्साह फूट निकलता है, तो सृष्टि रहस्य उजागर होते देर नहीं लगती। तब यह आसान से समझ में आ जाता है कि यहाँ के कण-कण में ब्राह्मी चेतना का ही प्रकाश संव्याप्त है और वही सृष्टि, स्थिति एवं लय का कारण भी है।

आत्मश्लाघा और आत्मप्रवंचना में मनुष्य अहंकारी होकर गरम हवा भर गुब्बारे की तरह फूलता तो जाता है, पर उसमें दृढ़ता और स्थिरता तनिक भी नहीं होती।


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