जरूरतें घटें तो अभाव मिटें

September 1993

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आज हर ओर से अभाव! अभाव! की आवाज आ रही है। आदमी दिन-रात मशीन की तरह काम में जुटा रहता है। तब भी उसके खर्चे पूरे नहीं होते। हर समय कोई न कोई कमी उसे सताती रहती है। अभाव को पूरा करने के लिए लोगों ने आय के अनुचित साधन भी अपना लिए हैं। किन्तु अभाव से फिर भी पीछा नहीं छूटता। गरीब तो गरीब हैं, उन्हें कोई भी अभाव रह सकता है। लेकिन जब आप बड़े-बड़े धनवानों को अभाव का रोना रोते सुना जाता है, तो सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि इसका कारण धन की कमी नहीं है बल्कि कुछ अन्य ही है जो गरीब अमीर दोनों को समान रूप से जकड़े हुए है। अभावों का मुख्य कारण है आवश्यकताओं की बढ़ोत्तरी। आवश्यकताएँ जिस तेजी तथा अनुपात से बढ़ती हैं, आय का उस अनुपात से बढ़ पाना असंभव है। फलतः मनुष्य के कोई न कोई अभाव बना ही रहता है।

यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये और विचारपूर्वक सोचा जाये तो पता चलेगा कि जीवन में वास्तविक अभाव बहुत कम होते हैं। अभाव की वास्तविक अवस्था में किसी का भी जीना कठिन है। ज्यादातर लोग कृत्रिम अभावों की वेदना से व्यग्र रहते तथा मरते हैं। अन्न वस्त्र आदि जीवन की निताँत आवश्यकता की आपूर्ति की ही वास्तविक अभाव कहा जा सकता है। समाज में मनुष्य की इन अनिवार्य आवश्यकताओं की किसी न किसी प्रकार पूर्ति होती रहती है। यह बात अलग है कि किसी की ये जरूरतें सघन रूप से अति पूर्ति पाती हों और किसी की केवल सीमाबद्ध।

आज संसार में जो कुछ भी दुःख, क्षोभ, अशाँति, असंतोष अथवा व्यग्रता दिखाई दे रही है, उसका मूल कारण मनुष्य की बढ़ी हुई कृत्रिम आवश्यकताएँ रही हैं। मूल आवश्यकताओं को कोशिश करके भी नहीं बढ़ाया जा सकता है। जबकि बनावटी जरूरतों की बढ़ोत्तरी का कोई अंत नहीं। मनुष्य प्रयत्न करके भी पेट से अधिक कपड़ा नहीं पहन सकता। यदि वह ऐसा करेगा तो रोगी तथा असभ्य बनेगा।

जब इन्हीं मूल आवश्यकताओं के साथ कृत्रिमता अथवा अनावश्यकता जोड़ दी जाती है, जब ये जरूरतें भी ईरान से तूरान तक बढ़ जाती हैं। पेट के लिए भोजन चाहिए, ठीक है। किन्तु भोजन के जिए मसाले, मक्खन, मलाई, कचौड़ी, पकौड़ी, अण्डा-मुर्गी माँस-मज्जा थाली भर जंजाल आदि विभिन्न व्यंजन ठीक नहीं है। भोजन की आवश्यकता मौलिक है उसमें स्वाद अथवा प्रकारों का आरोप कृत्रिमता है। कृत्रिमता से कलुषित भोजन की जरूरत सामान्य रूप से पूरी नहीं की जा सकती। सामान्य सरल तथा सादा भोजन जो कि मनुष्य के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए जरूरी है, आठ दस रुपए में पूरा जाता है। वहीं बनावटीपन और स्वादों से सजाया भोजन सौ रुपए में भी नहीं पूरा हो सकता। अस्तु अभाव की जड़ आवश्यकता की पूर्ति नहीं भोजन के साथ जुड़ी कृत्रिमता ही है।

वस्त्रों एवं निवास के साथ भी यही बात है। तन ढकने के लिए कपड़ा चाहिए कि जिससे कि शरीर की रक्षा हो सके और सभ्यता की भी। यह काम साधारणतया कपड़ों की दो-तीन जोड़ी से आसानी से हो सकता है। इसके लिए किसी को भी अधिक व्यग्रता अथवा व्यय की जरूरत नहीं पड़ती। बुद्धिमानी तथा सावधानी से थोड़े पैसों में भी काम चलाया जा सकता है।

लेकिन जब कपड़ों की सामान्य जरूरत मूल्यवान वस्त्रों, प्रकारों, नित्य नवीन फैशनों की अनेकताओं के बनावटीपन से बोझिल कर दी जाती है, तब उसका खर्च उठाना मुश्किल हो जाता है। एक हजार रुपए साल का खर्च बढ़कर पाँच हजार रुपए साल हो जाता है। ऐसी बनावटी जरूरत से जिसका पैसा बरबाद होगा वह अभाव की आग में जलेगा ही।

प्रकाश तथा वायु की सुविधा वाला एक साधारण सा मकान साधारण रूप से थोड़े पैसों में बनवाया अथवा किराये पर लिया जा सकता है। लेकिन निवास की इस जरूरत के साथ आलीशान सजी हुई कोठी की कल्पना जब जुड़ जाती है तब यह साधारण जरूरत असाधारण बन जाती है। अपनी पूर्ति में सारी जिंदगी की कमाई खर्च कर देने पर भी ठीक ढंग से पूरी होती नहीं दिखती।

आमतौर पर जरूरतों की तीन कड़ियाँ हैं। मूल जरूरतें, कृत्रिम अथवा विलास जन्य जरूरतें और व्यसन जन्य जरूरतें। जीवन रक्षा से संबंधित भोजन, वस्त्र और आवास की साधारण जरूरतें मूल जरूरतें हैं। इन्हीं जरूरी चीजों का अनावश्यक स्तर बढ़ा देने से यही मूल जरूरतें कृत्रिम अथवा विलास विषयक हो जाती हैं नशीली, प्रदर्शन-परक तथा वासना बोधित जरूरतें व्यसन-रूप जरूरतें हैं। तीसरे स्तर की आवश्यकताएँ मनुष्य जीवन के लिए अनिवार्य तो नहीं ही हैं वरन् हानिकारक भी हैं। ये न केवल कमाई को नष्ट करती हैं बल्कि स्वास्थ्य एवं जीवन को भी तबाह कर देती हैं। व्यसन विषयक जरूरत मानव जीवन की भयानक शत्रु है। इन्हें जरूरतों की कोटि में न रखकर दुर्भाग्य की कोटि में रखना ही उचित होगा।

जरूरतों के न्यूनाधिक्य के अनुपात से ही दुःख सुख की वृद्धि होती है। जिसकी जरूरतें जितनी कम हैं वह उतना ही अधिक संतुष्ट एवं सुखी रहेगा ? उसे अभाव की पीड़ा उतनी ही ज्यादा भोगनी होगी। जिसकी जरूरतें जितनी ही अधिक होगी, वह उतना ही असंतुष्ट एवं दुःखी होगा और उसके सम्मुख हर समय अभावों का भूत मंडराता रहेगा। कोई भी व्यक्ति जरूरतों को तो बिना किसी कठिनाई के आसानी से बढ़ाता रह सकता है। लेकिन उसकी पूर्ति के लिए अपनी आय को आसानी से नहीं बढ़ा सकता। जरूरतों की पूर्ति न होने की पीड़ा आय बढ़ने की प्रतीक्षा तो करती नहीं। वह तो तत्काल सताने लगती है और तब तक सताती रहती है जब तक कि उसकी पूर्ति नहीं हो जाती। किन्तु इसके साथ एक मुसीबत यह भी है कि एक जरूरत की पूर्ति हुई नहीं कि दूसरी तैयार। जरूरतों की बढ़ोत्तरी रक्त बीज की तरह होती रहती है। यदि कोई किसी प्रकार दस-जरूरतों की पूर्ति कर पाता है तो इसके साथ उतनी ही और खड़ी हो जाती है। जरूरतों की वृत्ति का यह तारतम्य किसी भी प्रकार रुकता नहीं। फिर एक आवश्यकता एक बार पूरी होने के बाद दूसरी बार के लिए फिर तकाजा करने लगती है। पूर्ति के इस सिलसिले से आवश्यकताएँ थमने की जगह बढ़ती जाती है।

मूल जरूरतें, आवश्यकतानुसार आगे भी बढ़ सकती हैं। किसी के सामाजिक, अथवा स्थानीय स्तर के साथ इनका स्तर भी बढ़ाया जा सकता है। किन्तु केवल तब ही जब उसका बढ़ाया जाना न सिर्फ अनिवार्य बल्कि उपयोगी भी हो जाए। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ जाने अथवा स्थान ऊँचा हो जाने से किसी को अपने रहन-सहन का स्तर भी ऊँचा करना पड़ सकता है। कार्य कुशलता अथवा बौद्धिकता के कारण भोजन का सामान्य तथा साधारण खर्च बढ़ाया जा सकता है। किन्तु वह बढ़ाया तब ही जाये जब उसकी निताँत अनिवार्यता हो जाये और उसके अनुरूप या तो उनकी आय में बढ़ोत्तरी हो गई हो अथवा बढ़ने की संभावना हो। प्रदर्शन अथवा अहं की तुष्टि के लिए ही साधारण स्तर की असाधारण रूप में बढ़ाना विलास एवं अपव्ययता होगी।

इसके साथ यह जरूरी ही नहीं है कि स्तर तथा स्थान बढ़ जाने पर भी जरूरतों का स्तर बढ़ाया ही जाये। रहन-सहन अथवा आहार-विहार का स्तर तो वास्तव में उसकी स्वच्छता-सादगी तथा व्यवस्था ही मानी जानी चाहिए न कि बहुमूल्यता अथवा बहुतायतता। भारत में तो ऐसे सत्पुरुषों की गौरवपूर्ण परंपरा सुदीर्घ काल से चलती रही है कि समाज में सर्वोपरि प्रतिष्ठा पा लेने पर भी उनके रहन-सहन तथा आहार-विहार का स्तर पूर्ववत ही साधारण बना रहा। उसे उठाने की न कोई आवश्यकता अनुभव हुई और न उनकी बढ़ी हुई सामाजिक प्रतिष्ठा ने ही इसके लिए उनपर दबाव डाला। फिर भी स्तर स्थान तथा आय के अनुसार रहन-सहन उठाने की छूट एक सीमा तक मानी जा सकती है। किन्तु यह हो जरूरत और उपयोगिता के अनुसार ही प्रदर्शन या सफलता के लिए नहीं।

कृत्रिम एवं व्यसनमूलक जरूरतों की अनियंत्रित वृद्धि ने समाज में शोषण का चक्र चला रखा है। यह सही है कि मनुष्य अपनी अनावश्यक तथा अनुचित जरूरतों की पूर्ति के लिए दूसरों का शोषण करने लगा है। किन्तु यह भी किसी प्रकार झूठ नहीं है कि मनुष्य दूसरे कि अपेक्षा स्वयं अपना शोषक अधिक है। कोई दूसरा तो उसका शोषण चार-छः अथवा दस-

बीस प्रतिशत कर पाता होगा। आदमी अपनी पाली हुई निरर्थक जरूरतों को अपनी पूरी अथवा अधिकाँश कमाई चुगा देता है। अपनी अनावश्यक जरूरतों को बढ़ाकर फिर उनकी मजबूरन पूर्ति करने के लिए कमाई का अपव्यय करना अपनी आय का शोषण करना ही तो है। फिर व्यसन पालकर तो वह अपना आर्थिक शोषण ही नहीं करता जीवनी शक्ति एवं स्वास्थ्य भी गँवा बैठता है। शोषण की शिकायत दूसरे से करने के पहले स्वयं की जरूरतें घटाकर स्वयं के द्वारा किया जा रहा शोषण बंद करना चाहिए। दूसरों के शोषण से त्रस्त मनुष्य यदि एक बार स्वयं का शोषण बन्द कर दे तो भी बहुत राहत पा सकता है।

यदि आप अभावों से दुखी रहते हैं, दिन-रात मेहनत करते हैं फिर भी पूर्ति का संतोष नहीं पाते तो अपने जीवन पर नजर डालिए। अपनी आय की कमी की शिकायत करने के बजाय अपने व्यय की विवेचना कीजिए। अवश्य आप पाएँगे कि आपकी आय उतनी कम नहीं है जितनी कि आपकी जरूरतें बढ़ी हुई हैं। यदि आप बिना किसी विशेष उद्योग अथवा आय वृद्धि के सुखी एवं संतुष्ट होना चाहते हैं तो आज ही जरूरतें कम करना शुरू कर दीजिए। सबसे पहले व्यसन-मूलक जरूरतें तो ऐसे छोड़ दीजिए जैसे धोखे से हाथ में आ जाने पर आग को छोड़ देते हैं।

आप तो केवल उन्हीं आवश्यकताओं पर खर्च करें जो जीवन के लिए निताँत अनिवार्य हों। जरूरतों को वश में कर लेने पर जीवन में सुख, संतोष और संपन्नता सुनिश्चित हो जाती है। इस रहस्य को जानकर अपनाकर आप आज और अभी अपने अभाव भरे जीवन की दुःख पूर्ण काल कोठरी से निकलकर भाव भरे भव्य भवन में प्रवेश कर सकते हैं, जहाँ प्रसन्नता और संपन्नता की छटा बिखरी पड़ी है।


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