भौतिकी व आत्मिकी का समन्वित पुरुषार्थ ही अभीष्ट

September 1993

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यह संसार दो तत्वों से विनिर्मित है-एक-जड़, दूसरा-चेतन। जड़ अर्थात् पदार्थ और चेतन अर्थात्-प्राण। मानवी अस्तित्व इन्हीं दो आधारों पर खड़ा है। पंचतत्वों से बना शरीर पदार्थ परक है, तो पंचप्राणों के समन्वय से बनी चेतन आत्मा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवधारी भी इन्हीं दोनों के समन्वय से बने हैं। अस्तु इन दोनों के क्षेत्रों में काम करने वालों को उनके स्वरूप एवं सदुपयोग का ज्ञान होना चाहिए और इस संदर्भ में गहन अध्ययन, अनुसंधान उनका परम लक्ष्य होना चाहिए। प्राण पदार्थ के बिना अपनी क्षमता एवं चेष्टा प्रकट करने में असमर्थ है। इसी प्रकार जड़ पदार्थ के अंतराल में छिपा रहस्यमय अनुशासन न हो तो वह या तो निष्क्रिय रहेगा या अस्त−व्यस्त होकर अव्यवस्था उत्पन्न करेगा।

कुछ समय पूर्व पदार्थ को जड़ अर्थ निर्जीव माना जाता था, पर अब वह मान्यता बदल गयी है। विज्ञान की नवीनतम शोधों ने जीवाणुओं को, वृक्ष-वनस्पतियों को तो जीवंत कहा ही है, साथ ही यह भी बताया है कि मिट्टी, पत्थर, धातु, पानी जैसी वस्तुओं में भी जीवन मौजूद है। उनमें भी एक सुनिश्चित प्राण चेतना मौजूद है, जिसका कि अपना अलग ही प्रभामंडल है। इसी से फंदा, जंग, काई, सड़न आदि के रूप में उनकी शक्ति का परिचय मिलता रहता है। भले ही वह स्वल्प मात्रा में ही क्यों न हो। हर पदार्थ एक नियत अनुशासन के अंतर्गत अपना स्वरूप बनाये हुए हैं और क्रियाशील रह रहा है। अब इस अनुशासन को अच्छी तरह समझा और उसमें भरपूर दूरदर्शितापूर्ण समन्वय-संतुलन की क्षमता रहने के कारण चेतन स्तर का माना जा रहा है। पदार्थ के अंतराल में अनुशासन, अस्तित्व एवं हलचल के रूप में चेतन के दर्शन होते हैं। वनस्पतियों से लेकर जीवाणुओं तक और सामान्य जीवधारियों से लेकर मनुष्य तक में यह चेतना अपना काम विभिन्न प्रकार से करती दृष्टिगोचर होती है।

चेतना का एक अन्य क्षेत्र है- अदृश्य जीवधारी। मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व को अब असंदिग्ध रूप से माना जाने लगा है। मरण और जन्म के बीच का मध्यावधि में प्राणी किसी न किसी रूप में अपनी सत्ता बनाये रहता है। अध्यात्म की भाषा में इन्हें प्रेत, पितर, देव, दैत्य आदि नाम दिये जाते हैं। इनके निवास स्थलों को स्वर्ग, नरक, अंतरिक्ष, श्मशान आदि कहा जाता है। पदार्थ विज्ञानी इन अदृश्य आत्माओं का अस्तित्व तो मानते हैं, पर मरणोत्तर जीवन की स्थिति के संबंध में अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं। अदृश्य जीवधारियों की भी एक दुनिया ऐसी है जैसी कि अदृश्य जीवाणुओं-विषाणुओं की। दृश्यमान जलचर, थलचर, नभचर छोटे-बड़े प्राणियों की प्रत्यक्ष दुनिया के संबंध में हम सब बहुत कुछ जानते हैं।

इन सबके ऊपर एक ब्रह्मांड व्यापी चेतना है जिसे विज्ञान की भाषा में ‘कास्मिक कान्शसनेस’ कहते हैं। उसी के निर्धारण एवं अनुशासन में यह समूचा जड़-चेतन अपने-अपने क्रियाकलापों में बिना प्रमाद किये सुव्यवस्थित रीति से निरत है। अनंत अंतरिक्ष में बिखरे हुए विशालकाय ग्रह-नक्षत्रों को अपने पृथक-पृथक कार्यों में निरत रखने से लेकर उनके मध्य पारस्परिक तालमेल बिठाये रहने का उत्तरदायित्व यह ब्रह्मांडव्यापी चेतना ही सँभालती है। प्राणियों को अपनी सत्ता बनाये रहने, निर्वाह सामग्री उपलब्ध करने, वंश चलाने, मोद मनाने जैसे आधार उपलब्ध करने में किसी अदृश्य सत्ता की दूरदर्शी योजना काम करती देखा जा सकती है। मनुष्य जैसे विकसित प्राणियों की प्रगति और अविकसितों में विद्यमान संभावना को देखते हुए सहज ही समझा जा सकता है कि यह भौतिकवाद ने अपने बाल्यकाल में बड़े-जोश-खरोश के साथ कहा था। क्या प्राणी, क्या पदार्थ सभी की संरचना, गतिविधि, सुव्यवस्था एवं सहकारिता को देखते हुए गंभीर चिंतन को यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं रह जाती है कि इस ब्रह्मांड में एक विवेकवान निर्धारण का अस्तित्व है और वह इस सृष्टि क्रम को आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाये हुए हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे ‘परमात्मा’ कहते हैं। विज्ञान ने इसे ब्रह्मांडीय चेतना कहा है। इसका अस्तित्व मानने की दृष्टि से अब आत्मिकी और भौतिकी समान रूप से सहमत है। मतभेद इस बात पर है कि अतिरिक्त अन्य स्वरूप क्या है? स्पष्ट है कि भावुक भक्तजन तत्वदर्शी और प्रत्यक्षवादी परमात्मा की ब्रह्मांडीय चेतना की रीति-नीति के संबंध में मतभेद रखते हुए भी अस्तित्व के संबंध में एकमत हो चले या होते जा रहे हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में उस सत्ता के अस्तित्व कं संबंध में थोड़ा प्रकाश डाला गया है। जो इस दृश्यमान एवं अदृश्य जगत के सूत्र संचालन में अपनी प्रमुख भूमिका संपादित कर रही है। यह

जिसने भारत के पुरातन इतिहास को ध्यानपूर्वक पढ़ा है, वे उन दिनों के समतुल्य की मनुष्यकृत एवं प्रकृति प्रदत्त उपलब्धियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन परिस्थितियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। कारण स्पष्ट है-समय, श्रम, चिंतन और साधन का दुरुपयोग न किया जाय तो परिणति में जमीन-आसमान जैसा अंतर होगा ही। खाई खोदने और दीवार चिनने में निरत दो व्यक्तियों की गतिविधियाँ एक दूसरे से उलटी होने के कारण उसके परिणामों में भी उसी अनुपात से अंतर आता है। आरंभ में दोनों एक जगह थे, पर एक ने खाई खोदी और गहराई बढ़ाई। दूसरे ने चिनाई जारी रखी और ऊँची दीवार उठाई समतल भूमि पर दोनों प्रयास एक स्थान पर थे, पर विपरीत क्रियाकलाप ने दोनों के मध्य दुहरा अंतर खड़ा कर दिया। यही बात मनोयोग एवं श्रम साधना के संबंध में भी है। दुरुपयोग से पतन और सदुपयोग से उत्थान का सिलसिला चलता रहे तो अंतर में द्रुतगति से फर्क पड़ता चला जाएगा।

आज साधनों का बाहुल्य है, फिर भी रीति-नीति में अवाँछनीयता घुस पड़ने के कारण उनका अपव्यय या दुरुपयोग ही होता रहा है। फलतः जो कमाया वह व्यर्थ ही नहीं गया, वरन् दुरुपयोगजन्य पतन-पराभव का सरंजाम जुटा लिया गया। उससे तो वे कहीं अच्छे रहे जो साधनों के स्वल्प होते हुए भी मात्र उसके सदुपयोग की योजना एवं व्यवस्था बनाते रहे और अपने समय के देवमानव कहला सके। भारत भूमि में तैंतीस करोड़ देवताओं का निवास होना, इस धरित्री का स्वर्गादपि गरीयसी कहलाना एक ही रहस्य का उद्घाटन करता है कि उन दिनों उपलब्धियों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग ही जन-जन के मन में था। जबकि इन दिनों वासना, तृष्णा और अहंता की परितृप्ति के अतिरिक्त और किसी ने कुछ समझा ही नहीं। दृष्टिकोण एवं आचरण में दीखने वाला यह जमीन, आसमान जैसा अंतर यही बताता है कि महत्व साधनों के बाहुल्य का नहीं, सदुपयोग का है।

दुरुपयोग क्यों? सदुपयोग क्यों नहीं? इसका कारण एवं उत्तर एक ही है-दृष्टिकोण में उत्कृष्टता-निकृष्टता की भिन्नता का होना। एक जैसी आकृति के मनुष्यों में यह प्राकृतिक भिन्नता क्यों पायी जाती है ? इसका उत्तर भी एक ही है अपनी क्षमता का सही प्रकार से उपयोग न बन पड़ा। अनाड़ी ड्राइवर कीमती मोटर का भी, ऐक्सीडेंट कर बैठते हैं। आकाँक्षा, विचारणा, संवेदना से विनिर्मित अंतःकरण मनुष्य के हाथ में इतनी बड़ी संपदा है कि इसका सदुपयोग-दुरुपयोग कहीं से कहीं पहुँचा देता और कुछ से कुछ बना देता है। आश्चर्य इस बात का है कि लोग अपने भौतिक साधनों का उपयोग तो भली प्रकार जानते हैं, किन्तु असंख्य गुनी महत्वपूर्ण आँतरिक क्षमताओं के बारे में एक प्रकार से अनजान ही बने रहते हैं और जब उनके उपयोग का का प्रसंग आता है तो अनाड़ी, अनजान जैसा आचरण करके अपने ही साधनों का अपने ही विरुद्ध उपयोग करते हैं।

आज व्यक्ति और समाज दुर्दशा देखते ही बनती है। सोने, में तौलने जैसी काया, हीरे, मोती न्यौछावर करने जैसा मस्तिष्क, देवताओं के स्वर्ग से बढ़कर अन्तःकरण अपने-अपने क्षेत्र में इतनी अद्भुत क्षमतायें भरे बैठे है कि उनकी रहस्यमयी स्थिति की चर्चा करने भर से आँखें चमकने लगती है। इतने पर भी व्यक्ति सर्वथा पिछड़ी-गयी-बीती, हारी-थकी, कंगाली और विपन्नता से भरी हुई दुर्दशाग्रस्त स्थिति में जीवनयापन करता है। उसका कारण एक ही है - अपने साधनों, औजारों की क्षमता एवं प्रयोग क्रिया के संबंध में अज्ञानग्रस्त रहना।

ऐसे उदाहरणों से इतिहास के पृष्ठ रंगे पड़े हैं जिनमें शिक्षा, संपदा, अनुकंपा एवं परिस्थिति की दृष्टि से गये गुजरे कहे जाने वाले व्यक्तियों ने अपनी आँतरिक विशिष्टता के आधार पर अनेकों का हृदय जीता, सहयोग पाया और चारित्रिक विशिष्टता के सहारे

प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलते चले गये और अभ्युदय की एक-एक सीढ़ी पार करते हुए उन्नति के शिखर पर जा पहुँचे, कठिन काम संपन्न किये। मनस्वी, तेजस्वी कहलाये और आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त करते चले गये। दैवी वरदान लगने वाली इस गौरवगाथा के मूल में एक ही रहस्य निकला कि वे आँतरिक विशिष्टता को समझने और सही तरीके ये प्रयुक्त करने में सफल रहे।

यही है आत्मविद्या-ब्रह्मविद्या, जो मनुष्य की आंतरिक गरिमा का स्वरूप समझाती उसे विकसित करने का मार्ग बताती तथा उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकने में समर्थ बनाती है। वैभव के उपार्जन में शिक्षा, श्रमशीलता, कुशलता आदि गुण काम आते हैं। यह भौतिकी का क्षेत्र है, जबकि व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आत्मिकी का प्रयोग करना पड़ती है। अतः अनुसंधान एवं उपयोग इस क्षेत्र का भी होना चाहिए। यही नहीं दोनों के समन्वय के साथ प्रयास भी सतत् चलने चाहिए।


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